जॉर्ज फर्नांडिस जी का जन्म 3 जून 1930 को कर्नाटक के मंगलोर जिले में हुआ था . इनके पिता का नाम जॉन जोसफ फर्नांडिस और माता एलीस मार्था फर्नांडिस थी . कहा जाता है कि इनकी माता जी किंग जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं, जिनका जन्म भी 3 जून को ही हुआ था, इस कारण उन्होंने इनका नाम जॉर्ज रख दिया था .
जार्ज ने अपनी प्रारम्भिक शिछा मैंगलोर के एलॉयसिस से पूरा किया. स्कूल की पढ़ाई के बाद परिवार की रूढि़वादी परंपरा के चलते बड़े पुत्र होने के नाते उन्हें धर्म की शिक्षा के लिए बैंगलोर में सेंट पीटर सेमिनेरी भेज दिया गया. 16 वर्ष की उम्र में उन्हें 1946-1948 तक रोमन कैथोलिक पादरी का प्रशिक्षण दिया गया. स्कूल में फादर्स उंची टेबलों पर बैठकर अच्छा भोजन करते थे, जबकि प्रशिक्षणार्थियों को ऐसी सुविधा नहीं मिलती थी. इस व्यवहार ने जार्ज के मन -मस्तिष्क में असमानता के कारण उत्पन्न एक सामाजिक बुराई को दूर करने की प्रेरणा को जन्म दिया . इसलिए उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज उठाई. इस घटना ने चर्च के पाखंड से उनका मोहभंग कर दिया और उन्होंने 18 साल की उम्र में चर्च छोड़ दिया . जीवन यापन हेतु रोजगार की तलाश में वह बंबई चले आए. बम्बई में कोई अपना नही था सो इस दौरान वह चौपाटी की बेंच पर ही सोया करते थे और उस वक्त काफी लोकप्रिय सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेते रहते थे.
फर्नांडिस की शुरुआती छवि एक जबरदस्त विद्रोही की थी. उस वक्त के मुखर राजनैतिक वक्ता एवं समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया, फर्नांडिस की प्रेरणास्रोत थे. वर्ष 1950 आते-आते वह टैक्सी ड्राइवर यूनियन के सबसे भरोसेमंद नेता बन गए. बिखरे बाल, और पतले चेहरे वाले फर्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे. कुछ लोग तभी से उन्हें ‘अनथक विद्रोही’ (रिबेल विद्आउट ए पॉज़) कहने लगे थे.भले ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग उस वक्त फर्नांडिस को बदमाश और तोड़-फोड़ करने वाला मानते हों पर बंबई के सैकड़ों-हजारों गरीबों के लिए वे एक हीरो थे, मसीहा थे. 1949 में बॉम्बे में जार्ज को एक अखबार में बतौर प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई. यहां जार्ज का संपर्क अनुभवी यूनियन नेता प्लासिड डी मेलो और भारत में समाजवाद के जनक समाजवादी नेता डा राममनोहर लोहिया से हुआ, जिनका उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. जिसके बाद में वह समाजवादी व्यापार संघ आंदोलन से जुड़ गए. जिसके बाद वह व्यापार संघ के प्रमुख नेता के रूप में उभरे और छोटे पैमाने के उद्योगों जैसे होटल और रेस्टोरेंट में काम करने वाले श्रमिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे .
जार्ज फर्नांडिस

जार्ज 1961 से 1968 तक मुम्बई नगर निगम के सदस्य रहे. इस दौरान उन्होंने शोषित कामगारों की आवाज को महानगर की प्रतिनिधत्व संस्था के समछ उठाया .देश में सन 1967 के आम चुनाव में फर्नांडिस ने मैदान में उतरने का निर्णय लिया. उन्हें बॉम्बे की दक्षिण संसदीय सीट से संयुक्त समाजवादी पार्टी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ मैदान में उतारा. 1967 के लोकसभा चुनावों में वे उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एसके पाटिल के सामने मैदान में उतरे थे . बॉम्बे साउथ की इस सीट से जब उन्होंने पाटिल को हराया तो लोग उन्हें ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ भी कहने लगे. जॉर्ज फर्नांडिस ने मुम्बई से 1967 का चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा की सीढि़यां चढ़ीं. 1973 में फर्नांडिस ‘ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन’ के चेयरमैन चुने गए. ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन का अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने 1974 में लाखों कामगारों के साथ हड़ताल कर दी, इस कारण हजारों को जेल में डाल दिया गया.

इंडियन रेलवे में उस वक्त करीब 14 लाख लोग काम किया करते थे. यानी भारत कुल संगठित क्षेत्र के करीब सात फीसदी. रेलवे कामगार कई सालों से सरकार से कुछ जरूरी मांगें कर रहे थे. पर सरकार उन पर ध्यान नहीं दे रही थी. ऐसे में जॉर्ज ने आठ मई, 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल का आह्वान किया. रेल का चक्का जाम हो गया. कई दिनों तक रेलवे का सारा काम ठप्प रहा. न तो कोई आदमी कहीं जा पा रहा था और न ही सामान.पहले तो सरकार ने इस ध्यान नहीं दिया. लेकिन यह यूनियनों का स्वर्णिम दौर था. कुछ ही वक्त में इस हड़ताल में रेलवे कर्मचारियों के साथ इलेक्ट्रिसिटी वर्कर्स, ट्रांसपोर्ट वर्कर्स और टैक्सी चलाने वाले भी जुड़ गए तो सरकार की जान सांसत में आ गई.ऐसे में उसने पूरी कड़ाई के साथ आंदोलन को कुचलते हुए 30 हजार लोगों को गिरफ्तार कर लिया. इनमें जॉर्ज फर्नांडिस भी शामिल थे. इस दौरान हजारों को नौकरी और रेलवे की सरकारी कॉलोनियों से बेदखल कर दिया गया. कई जगह तो आर्मी तक बुलानी पड़ी. इस निर्ममता का असर दिखा और तीन हफ्ते के अंदर हड़ताल खत्म हो गई. लेकिन इंदिरा गांधी को इसका हर्जाना भी भुगतना पड़ा और फिर वे जीते-जी कभी मजदूरों-कामगारों के वोट नहीं पा सकीं. हालांकि इंदिरा गांधी ने गरीबी और देश में बढ़ती मंहगाई का हवाला देकर अपने इस कदम के बचाव का प्रयास किया. उन्होंने हड़ताल को देश में बढ़ती हिंसा और अनुशासनहीनता का उदाहरण बताया. बाद में आपातकाल को सही ठहराने के लिए भी वे इस हड़ताल का उदाहरण दिया करती थीं. आपातकाल लगने की सूचना जॉर्ज को रेडियो पर मिली. उस वक्त वे उड़ीसा में थे. उनको पता था, सबसे पहले निशाने पर होने वालों में वे भी शामिल हैं. इसलिए वे पूरे भारत में कभी मछुआरे के तो कभी साधू के रूप में घूमते फिरे. आखिर में उन्होंने अपनी दाढ़ी और बाल बढ़ जाने का फायदा उठाते हुए एक सिख का भेष धरा और भूमिगत होकर आपातकाल के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे. तमाम सुरक्षा एजेंसियों के पीछे पड़े होने के बावजूद उन्हें पकड़ा नहीं जा सका. जबकि वे गुप्त रूप से बहुत सक्रिय थे. 15 अगस्त को उन्होंने जनता के नाम एक अपील भी जारी की. जिसमें सभी पार्टियों के बड़े नेताओं के जेल में बंद होने के चलते आंदोलन जारी रखने के लिए अलग-अलग स्तर पर नए नेतृत्व को गढ़ने की अपील की गई थी.
फर्नांडिस के साथ जेल में रहे 76 साल के विजय नारायण ने पुरानी यादें ताजा करते हुए बताया, ‘पुलिस हमें ढूंढ रही थी.हम न सिर्फ छिप रहे थे, बल्कि अपना काम भी कर रहे थे.गिरफ्तारी से बचने के लिए जार्ज ने पगड़ी और दाढ़ी के साथ एक सिख का भेष धारण किया था. उन्होंने बाल बढ़ा लिए थे. वह मशहूर लेखक के नाम पर खुद को खुश वंत सिह कहा करते थे. फर्नांडिस के साथ नारायण और अन्य लोगों को 10 जून, 1976 को कोलकाता में गिरफ्तार किया गया था.कुख्यात बड़ौदा डायनामाइट मामले में उन पर मुकदमा चलाया गया था.इसमें उनपर सरकार का तख्तापलट करने के लिए सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का भी मुकदमा चलाया गया था.
जॉर्ज फर्नांडिस मानते थे कि अहिंसात्मक तरीके से किया जाना वाला सत्याग्रह ही न्याय के लिए लड़ने का एकमात्र तरीका नहीं है. उन्हें यह लग रहा था कि आपातकाल के खिलाफ शुरुआत में संघर्ष करने वाले संगठन अपने नेताओं की गिरफ्तारी से डर गए हैं और लड़ना नहीं चाहते. इसीलिए जो नेता बाहर बचे हैं वे मीटिंग करने के सिवाए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं. इस तरह की सोच वाले फर्नांडिस आपातकाल की घोषणा के बाद से ही सोच रहे थे कि राज्य की ऐसे वक्त में अवज्ञा का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा! उन्होंने डायनामाइट लगाकर विस्फोट और विध्वंस करने का फैसला किया. इसके लिए ज्यादातर डायनामाइट गुजरात के बड़ौदा से आया पर दूसरे राज्यों से भी इसका इंतजाम किया गया था. आपातकाल पर लिखी कूमी कपूर की किताब के अनुसार डायनामाइट के इस्तेमाल की ट्रेनिंग बड़ौदा में ही कुछ लोगों को दी गई. जॉर्ज समर्थकों के निशाने पर मुख्यत: खाली सरकारी भवन, पुल, रेलवे लाइन और इंदिरा गांधी की सभाओं के नजदीक की जगहें थीं. जॉर्ज और उऩके साथियों को जून 1976 में गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद उन सहित 25 लोगों के खिलाफ सीबीआई ने मामला दर्ज किया जिसे बड़ौदा डायनामाइट केस के नाम से जाना जाता है. बाद में जॉर्ज फर्नांडिस और उनके सहयोगियों का कहना था कि वे बस पब्लिसिटी चाहते थे, ताकि देश के अंदर और बाहर लोग जान जाएं कि आपातकाल का विरोध भारत में किस स्तर पर किया जा रहा है. हिरासत में जॉर्ज के भाई लॉरेंस फर्नांडिस को पुलिस ने बहुत बुरी तरह से टॉर्चर किया था जिसके चलते उनकी टांगें हमेशा के लिए खराब हो गईं. जॉर्ज के बारे में प्रधानमंत्री इंदिरा को बार-बार ध्यान दिलाया जाता था लेकिन फिर भी पुलिस ने उन पर बहुत शारीरिक अत्याचार किए. जनता पार्टी की सरकार आने के बाद बड़ौदा डायनामाइट केस बंद कर दिया गया.
इंदिरा गांधी द्वारा चुनावों की घोषणा के साथ ही इमरजेंसी का अंत हो गया. फर्नांडिस ने 1977 का लोकसभा चुनाव जेल में रहते हुए ही मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से रिकॉर्ड मतों से जीता. जनता पार्टी की सरकार में वे उद्योग मंत्री बनाए गये.बाद में जनता पार्टी टूटी, फर्नांडिस ने अपनी पार्टी समता पार्टी बनाई और भाजपा का समर्थन किया. फर्नांडिस ने अपने राजनीतिक जीवन में कुल तीन मंत्रालयों का कार्यभार संभाला - उद्योग, रेल और रक्षा मंत्रालय. . कोंकण रेलवे के विकास का श्रेय उन्हें भले जाता हो लेकिन उनके रक्षा मंत्री रहते हुए परमाणु परीक्षण और ऑपरेशन पराक्रम का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को ही दिया गया.
रक्षामंत्री के रूप में जॉर्ज का कार्यकाल खासा विवादित रहा. मार्च 2001 में तहलका रक्षा घोटाला सामने आने के बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने इस गड़बड़ी की नैतिम जिम्मेदारी लेते हुए रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया.हालांकि आठ माह से भी कम समय में गलती स्पष्ट होने पर उन्हें उसी पद पर पुनः नियुक्त कर दिया गया. ताबूत घोटाले और तहलका खुलासे से उनके संबंध के मामले में जॉर्ज फर्नांडिस को अदालत से तो क्लीन चिट मिल गई लेकिन यह भी सही है कि लोगों के जेहन में यह बात अब तक बनी हुई है कि जॉर्ज फर्नांडिस के रक्षा मंत्री रहते ऐसा हुआ था. उनके कार्यकाल के दौरान परिस्थितियां इतनी खराब हो चली थीं कि मिग-29 विमानों को ‘फ्लाइंग कॉफिन’ कहा जाने लगा था.लेकिन एक तथ्य यह भी है कि जॉर्ज भारत के एकमात्र रक्षामंत्री हैं, जिन्होंने 6,600 मीटर ऊंचे सियाचिन ग्लेशियर का 18 बार दौरा किया था. जॉर्ज के ऑफिस में हिरोशिमा की तबाही की एक तस्वीर भी हुआ करती थी. रक्षामंत्री रहते हुए जॉर्ज के बंगले के दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे और वे किसी नौकर की सेवा नहीं लेते थे, अपने काम स्वयं किया करते थे.
कहा जाता है कि जनता हमेशा शांति चाहती है. जिसकी खातिर वह कई बार गुलामी भी स्वीकार लेती है. ऐसे में यदि जनता को आंदोलन और विद्रोह के लिए तैयार कर लिया जाए लेकिन आंदोलन जल्द ना खत्म हो तो वह अपने नेता को ही अपना दुश्मन और शांति को भंग करने वाला मानने लगती है. भारत में इस उक्ति पर सटीक बैठने वाले राजनीतिक किरदार हैं, जॉर्ज फर्नांडिस. एक वक्त उन्हें'गरीबों का मसीहा'कहा जाता था,लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस के राजनीतिक जीवन के आखिरी दिनों में उन पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप भी लगे. चाहे कोका कोला हो या आईबीएम का देशनिकाला, रक्षा सौदों में गड़बड़ियां हों या संघ की आंतरिक राजनीति में दखल देने का मसला या फिर जया जेटली से संबंध, लोगों ने उन्हें गलत ही माना. अपने खराब होते स्वास्थ्य के साथ वे अपने राजनीतिक चरित्र की रक्षा करने में असफल होते चले गए. विरोधाभास इस हद तक साफ था कि परमाणु बमों के विरोधी जॉर्ज के रक्षा मंत्री रहते भारत ने परमाणु बम का परीक्षण किया. और सांप्रदायिकता विरोधी जॉर्ज आडवाणी के मसले पर समझौता कराने वे आरएसएस के कार्यालय ही पहुंच गए.ऐसे में एक दिन ऐसा आया जब जॉर्ज का नाम धूमिल होते-होते भारतीय राजनीति के आकाश से ओझल हो गया. इसके बाद जॉर्ज क्या कर रहे हैं यह जानना लोगों के लिए जरूरी नहीं रह गया. और कभी-कभी उनसे जुड़ी कोई खबर आती भी थी तो उनकी पारिवारिक कलह की. या फिर ‘एक था जॉर्ज’ सरीखे शीर्षक से किसी पत्र-पत्रिका में लिखा कोई लेख.
जॉर्ज ने लगातार या तो आर-पार की लंबी लड़ाइयां लड़ीं या राजनीतिक जीवन में इतने ज्यादा झुककर समझौते किए कि जनता का उनसे विश्वास उठने लगा . एक हवाई यात्रा के दौरान जॉर्ज की मुलाकात लैला कबीर से हुई थी. लैला पूर्व केंद्रीय मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी थीं. दोनों ने कुछ वक्त एक-दूसरे को डेट किया और फिर शादी कर ली. उनका एक बेटा शॉन फर्नांडिस है जो न्यूयॉर्क में इंवेस्टमेंट बैंकर है. कहा जाता है बाद में जया जेटली से जॉर्ज की नजदीकियां बढ़ने पर लैला उन्हें छोड़कर चली गई थीं. हालांकि बाद में वे जॉर्ज की बीमारी की बात सुनकर 2010 में वापस लौट आईं. सार्वजनिक जीवन से बिलकुल कटे जॉर्ज फर्नांडिस को अल्जाइमर और पार्किंसन जैसी बीमारियों से ग्रस्त बताया जाता रहा है.. लैला के साथ रहने के बाद जॉर्ज के भाइयों ने भी उन पर हक जताया था. मामला अदालत तक गया. फैसला हुआ कि वे लैला और शॉन के साथ ही रहेंगे, भाई चाहें जॉर्ज को देखने आ सकते हैं. कुछ अर्सा पहले अदालत ने जया जेटली को भी लैला फर्नांडिस के मना करने के बाद जॉर्ज से मिलने से रोक दिया था. इस सारे बवाल की वजह जॉर्ज की संपत्ति बताई जाती है. जॉर्ज फर्नांडिस को जिन 10 भाषाओं का जानकार माना जाता है - हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, मराठी, कन्नड़, उर्दू, मलयाली, तुलु, कोंकणी और लैटिन.
आखिरकार अपनी लंबी बीमारी से जूझ रहा देश के गरीबो का यह मसीहा 29 जनवरी 2019 को 88 वर्ष की उम्र में चिर निद्रा में लीन हो गया . कहा जाता है कि वह अल्जाइमर के साथ -साथ स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से भी पीड़ित हो थे . भले ही उनका जीवन अपने अंतिम दिनों में काफी कष्टमय रहा हो लेकिन अपने सामाजिक जीवन का अधिकाँश अच्छा समय उन्होंने इस देश की सेवा में ही लगा दिया .वास्तव में वह डा लोहिया और जयप्रकाश के समाजवादी आन्दोलन से निकले एक बेहद महत्वपूर्ण शख्स थे .
जीवन घटनाक्रम
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1930: कर्नाटक के मैंगलोर में जन्म हुआ.
1946: धर्मगुरु के प्रशिक्षण के लिए बैंगलोर भेज दिए गए.
1946.1948: सेंट पीटर सेमिनेरी बैंगलोर में अध्ययन किया.
1949: नौकरी की तलाश में बॉम्बे आए और सामाजिक व्यापार संघ में शामिल हो गए.
1950 और 1960 के दशक में बॉम्बे में कई हड़तालें का नेतृत्व किया.
1971: लीला कबीर से विवाह किया.
1974: सबसे बड़ी रेलवे हड़ताल आयोजित की.
1980: फर्नांडिस और लीला कबीर एक दूसरे से अलग हो गए और 1984 में जया जेटली उनकी साथी बन गईं.
1998: उन्होंने घोषणा की कि अटल सरकार परमाणु परीक्षण करेगी.
2009: राज्यसभा में हुए मध्यावधि चुनाव में वह एक मात्र निर्विरोध नेता के रूप में उतरे.
29 जनवरी 2019 : निधन