Tuesday, 4 July 2017

स्वामी विवेकानन्द







अमेरिका के शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म सभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी के भाषण का एक अंश कुछ इस प्रकार से है .

"मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं. हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं. मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है. मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था. ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है. भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं. यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। 
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ. लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं. साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं. वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं. यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो.








भारत की सनातन जीवन दर्शन के महान आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता (कोलकता) में हुआ था .इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था. इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था व इन्हें नरेन के नाम से भी जाना जाता था . इनका परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए विख्यात था. पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में थे व कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते थे. माता श्री मती भुवनेश्वरी देवी सरल व अत्यंत धार्मिक महिला थीं. बेटे नरेंद्र के पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे इसलिए वह अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे लेकिन नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से तीव्र थी और वह काफी अध्यात्मिक थे . ‘ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ संतुष्ट नही हुए एवं श्री रामकृष्ण परमहंस के सानिध्य में व्यक्तित्व विकास हुआ . रामकृष्ण परमहंस से संपर्क में आने के बाद विवेकानन्द जी ने करीब 25 साल की उम्र में संन्यास ले लिया. तत्पश्चात स्वामी रामकृष्ण परमहंस के देहांत के बाद स्वामी विवेकानंद ने पूरे देश में रामकृष्ण मठ की स्थापना की . विवेकानंद को पूरी दुनिया में भारतीय दर्शन और वेदांत का सर्वप्रमुख विचारक और प्रचारक माना जाता है.







विवेकानन्द  केवल एक सन्त ही नहीं, अपितु एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक ,चिंतक , और मानव-प्रेमी भी थे. अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था- नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से. देश की जनता भी स्वामीजी के आह्वाहन पर देश की खातिर उनके साथ निकल पड़ी. स्वामी विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे. उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और बहुत सख्त भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ आवाज भी उठाई . उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था. उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था. उन्होंने एक समय यह विद्रोही बयान भी दे दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये. 





स्वामी विवेकानंद जी मानव धर्म को सर्वोपरि समझते थे. एक बार वह बेलूर में श्री रामकृष्ण परमहंस मठ की स्थापना हेतु धन संग्रह कर रहे थे. भूमि भी खरीदी जा चुकी थी. इन्हीं दिनों कलकत्ता में प्लेग की महामारी फैल गई. स्वामीजी तुरंत मठ निर्माण की योजना स्थगित कर सारी एकत्रित धनराशि ले रोगियों की सेवा में लग गए. किसी ने उनसे पूछा- 'अब मठ का निर्माण कैसे होगा? स्वामीजी ने उत्तर दिया- इस समय मठ निर्माण से अधिक मानव सेवा की आवश्यकता है. मठ तो फिर भी बन सकता है परन्तु गया हुआ मानव पुनह हाथ नहीं आएगा और यदि आवश्यकता पड़ी तो मैं इसके लिए मठ की भूमि भी बेच दूंगा. मठ का निर्माण मानव धर्म से ऊपर नहीं है.






इसी प्रकार एक बार स्वामी जी विदेश गए. उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी देख लोगों ने पूछा, आपका बाकी सामान कहां हैं? स्वामी जी बोले, बस यहीं है. इस पर लोगों ने व्यंग किया. फिर स्वामी जी बोले, हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से अलग है. आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं और हमारा चरित्र करता है. अमेरिका में कुछ पत्रकारों ने स्वामीजी से भारत की नदियों के बारे में प्रश्न पूछा, आपके देश में किस नदी का जल सबसे अच्छा है? स्वामीजी बोले- यमुना. पत्रकार ने कहा आपके देशवासी तो बोलते हैं कि गंगा का जल सबसे अच्छा है. स्वामी जी का उत्तर था, कौन कहता है गंगा नदी हैं, वो तो हमारी मां हैं. यह सुनकर सभी लोग स्तब्ध रह गए. 



विवेकानन्द सनातन धर्म के महान आध्यात्मिक क्रन्तिकारी थे . जिसका प्रचार और प्रसार करने विदेशो में भी गये . उन्होंने सनातन धर्म के वेदों के साथ -साथ गीता और रामायण का भी गहन अध्ययन किया हुआ था . सनातन धर्म का वैश्विक प्रचार करने के बाद भी वह विश्व के अन्य सभी धर्मो का पूरा सम्मान करते थे . वह साम्प्रदायिकता और जातिवाद के सख्त विरोधी थे और मानव की समानता के समर्थक भी थे . गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने विवेकानन्द जी के बारे में कभी कहा था कि यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये. उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं. स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया सम्भवतः भारत में मौजूद अनेक सामाजिक समस्याओ के सन्दर्भ में उन्होंने तब कहा था कि, मुझे सौ पूरी तरह समर्पित लोग दीजिए और मैं इस देश की सूरत बदल कर रख दूंगा’ लेकिन अफ़सोस उस समय इस देश के 23 करोड़ लोगो में वे 100 लोग भी उन्हें नही मिल सके . 4 जुलाई, 1902 को अपनी मौत के दिन संध्या के समय बेलूर मठ में उन्होंने 3 घंटे तक योग किया. शाम के 7 बजे अपने कक्ष में जाते हुए उन्होंने किसी से भी उन्हें व्यवधान ना पहुंचाने की बात कही और रात के 9 बजकर 10 मिनट पर उनकी मृत्यु की खबर मठ में फैल गई। विवेकानन्द जी ने मात्र ४० वर्ष की कम उम्र में ही अपना शरीर त्याग दिया . वास्तव में हम अपनी गौरवमयी संस्क्रति पर कितना भी इठलाये किन्तु इसकी विशाल आध्यात्मिकता और श्रेष्ठ दर्शन से हकीकत में तो सदैव काफी दूर ही नजर आते है . जो गीता जीवन का शाश्वत दर्शन है उसी के नाम पर अदालतों में झूठी कसमे भी खाते है . आज का भारत, धर्म की जिस नई परिभाषा की ओर जा रहा है वह विवेकानन्द जी के धार्मिक विचारों से बिलकुल भिन्न है . सम्पूर्ण विश्व में सभी धर्मो में सहिष्णुता का घोर अभाव है . धर्म के नाम पर मानवता की हत्याए जारी है . ऐसे समय में स्वामी विवेकानन्द जी के शिकागो धर्म सम्मेलन के ओजस्वी भाषण की पंक्तियों पर ध्यान दिए जाने की अति आवश्यकता है .