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डा राम मनोहर लोहिया |
डा राम मनोहर लोहिया जी के व्यक्तित्व और विचारधारा के बारे में संछेप में उन्हें भारत का एकलौता 'कुजात गांधीवादी ' माना जा सकता है और विस्तार में उनके मौलिक विचार और उनका सामाजिक चिंतन एक अनंत आकाशगंगा के समान है . वास्तव में महामानव महात्मा गाँधी जी के आदर्शो के असली वारिस और समाज में सभी प्रकार के भेदभाव को नष्ट कर हरसम्भव समानता की विचारधारा के मौलिक चिंतक डा राम मनोहर लोहिया जी एक युगपुरुष की भाँती थे .
भारत में समाजवाद के जनक कहे जाने वाले डा राम मनोहर लोहिया जी 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में पैदा हुए थे. उनकी मां चन्दादेवी एक शिक्षिका थीं और जब लोहिया जी बहुत छोटे थे (लगभग ढाई वर्ष) तभी उनकी मां का निधन हो गया था. ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्हें उनकी दादी के अलावा सरयूदेई, (परिवार की नाईन) ने पाला. बालक राम मनोहर टंडन पाठशाला में चौथी तक पढ़ाई की .यहाँ नटखट लोहिया वानर सेना का नेतृत्व सम्भालते थे . शैतानियाँ भी करते थे . धमाचौकड़ी-काल शुरू हुआ. वह कबड्डी खेलते, गुल्ली-डण्डा उड़ाते और खूब दौड़ते-कूदते थे. वे बेहद चतुर और शरारती थे. शरीर दुर्बल, किन्तु मन से सुदृढ़ और बुद्धि से बहुत कुशाग्र थे. इसके बाद वह विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए. पढने -लिखने में वह प्रारम्भ से ही कुशाग्र बुद्धि के थे . यहाँ उन्होंने अलगोजा बजाना सीखा था. बचपन में ही अपने पिता हीरालाल जी के सानिध्य में उन्हें विभिन्न आंदोलनों और विरोध सभाओं के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा मिली. पिता के साथ ही बालक राम मनोहर जी की मुलाक़ात राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी जी से हुई . राम मनोहर जी अपने पिता जी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए. उन्होंने बंबई के मारवाड़ी स्कूल में भी पढ़ाई की. लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में पहली अगस्त को हड़ताल की तथा गांधी जी के राष्ट्रव्यापी आह्वाहन पर मात्र 10 वर्ष की आयु में स्कूल त्याग दिया. पिता हीरालाल जी को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन के चलते सजा हो गयी . 1921 में फैजाबाद किसान आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू से उनकी मुलाकात हुई और 1924 में प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के गया अधिवेशन में वह शामिल हुए. उन्होंने इन्ही राजनैतिक घटनाक्रमो के बीच 1925 में मैट्रिक की परीक्षा दी तथा वह कक्षा में 61 प्रतिशत नंबर लाकर प्रथम आए. तत्पश्चात इंटर की दो वर्ष की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय में सम्पन्न की . राम मनोहर लोहिया जी ने कॉलेज के दिनों से ही खद्दर् पहनना शुरू कर दिया था . वह 1926 में पिताजी के साथ गौहाटी कांग्रेस अधिवेशन में भी शामिल हुए . उन्होंने 1927 में इंटर पास किया तथा आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचंद दत्त स्ट्रीट पर स्थित पोद्दार छात्र हॉस्टल में रहने लगे और विद्यासागर कॉलेज में दाखिला ले लिया. अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की. वह 1928 में कलकता में कांग्रेस अधिवेशन में भी शामिल हुए फिर 1928 से अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन में सक्रिय हुए. साइमन कमिशन के बहिष्कार के लिए छात्रों के साथ लोहिया जी ने बढ़ चढ़ कर आंदोलन किया. कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष तथा सुभाषचंद्र बोस और राम मनोहर लोहिया जी विषय निर्वाचन समिति के सदस्य चुने गए. उन्होंने 1930 में द्वितीय श्रेणी में बीए की परीक्षा पास कर ली थी .
जुलाई 1930 को लोहिया अग्रवाल समाज के कोष से आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना हो गये . वहाँ से फिर वह बर्लिन गए. विश्वविद्यालय के नियम के अनुसार उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ बर्नर जेम्बार्ट को अपना प्राध्यापक चुना. उन्होंने 3 महीने में जर्मन भाषा सीख ली . तभी 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने दाण्डी यात्रा प्रारंभ की थी और जब नमक कानून तोड़ा गया तब पुलिस अत्याचार से पीड़ित होकर पिता हीरालाल जी ने लोहिया जी को एक विस्तृत पत्र लिखा. उसी दरमियान 23 मार्च को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के विरोध में उन्होंने लीग ऑफ नेशन्स की बैठक में बर्लिन में पहुंचकर सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से विरोध प्रकट किया. सभागृह से उन्हें निकाल दिया गया. भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे बीकानेर के महाराजा द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने पर लोहिया ने रूमानिया की प्रतिनिधि को खुली चिट्ठी लिखकर उसे अखबारों में छपवाकर उसकी कॉपी बैठक में बंटवाई. गांधी इर्विन समझौते का लोहिया ने प्रवासी भारतीय विद्यार्थियों की संस्था "मध्य यूरोप हिन्दुस्तानी संघ" की बैठक में संस्था के मंत्री के तौर पर समर्थन किया जिसका कम्युनिस्टों ने विरोध किया. उन्होंने बर्लिन के स्पोटर्स पैलेस में हिटलर का भाषण भी सुना था . 1932 में डा लोहिया ने 'नमक सत्याग्रह' विषय पर अपना शोध प्रबंध पूरा कर बर्लिन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर ली .
लोहिया 1933 में भारत वापस लौटे . लौटते ही वह पत्रकारिता और देश की आजादी के लिए सक्रिय हो गये . अक्टूबर 1939 में उन्होंने शस्त्रों का नाश हो नामक प्रसिद्ध लेख लिखा और 11 मई 1940 को सुल्तानपुर के जिला सम्मेलन में लोहिया ने कांग्रेस से 'सत्याग्रह अभी नहीं' नामक लेख लिखा. 7 जून 1940 को डॉ॰ लोहिया को 11 मई को दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए गए भाषण के कारण गिरफ्तार किया गया. उन्हें कोतवाली में सुल्तानपुर में इलाहाबाद के स्वराज भवन से ले जाकर हथकड़ी पहनाकर रखा गया. 1 जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत 2 साल की सख्त सजा हुई. सजा सुनाने के बाद उन्हें 12 अगस्त को बरेली जेल भेज दिया गया. 15 जून 1940 को गांधी जी ने 'हरिजन' में लिखा, कि 'मैं युद्ध को गैर कानूनी मानता हूं किन्तु युद्ध के खिलाफ मेरे पास कोई योजना नहीं है इस वास्ते मैं युद्ध से सहमत हूं.' 25 अगस्त को गांधी जी ने लिखा कि 'लोहिया और दूसरे कांग्रेस वालों की सजाएं हिन्दुस्तान को बांधने वाली जंजीर को कमजोर बनाने वाले हथौडे क़े प्रहार हैं. सरकार कांग्रेस को सिविल-नाफरमानी आरंभ करने और आखिरी प्रहार करने के लिए प्रेरित कर रही है. यद्यपि कांग्रेस उसे उस दिन तक के लिए स्थगित करना चाहती है जब तक इंग्लैंड मुसीबत में हो.' गांधी जी ने बंबई में कहा, कि 'जब तक डॉ॰ राममनोहर लोहिया जेल में है तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता, उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं. उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया जो कुछ किया है उनसे उनका सम्मान बढ़ता है.' 4 दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया . 19 अप्रैल 1942 को हरिजन में लोहिया का लेख 'विश्वासघाती जापान या आत्मसंतुष्ट ब्रिटेन' गांधी जी द्वारा प्रकाशित किया गया.
सन् 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया ने खुलकर नेहरू का विरोध किया. इसके बाद अल्मोड़ा जिला सम्मेलन में लोहिया ने 'नेहरू को झट पलटने वाला नट' कहा. गांधी जी के साथ एक सप्ताह रहकर लोहिया ने गांधी जी को वाइसराय के नाम पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया, जिसमें गांधी जी ने लिखा कि अहिंसानिष्ट सोशलिस्ट डॉ॰ लोहिया ने भारतीय शहरों को बिना पुलिस व फौज के शहर घोषित करने की कल्पना निकाली है. लोहिया जी के द्वारा दुनिया की सभी सरकारों को नई दुनिया की बुनियाद बनाने की योजना की कल्पना गांधी जी के सामने रखी गई, जिसमें एक देश की दूसरे देश में जो पूंजी लगी है उसे जब्त करना, सभी लोगों को संसार में कहीं भी आने-जाने व बसने का अधिकार देना, दुनिया के सभी राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी तथा विश्व नागरिकता की बात कही गई थी. गांधी जी ने इसे हरिजन में छापा और अपनी ओर से समर्थन भी किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ जल्दी लड़ाई छेड़ने को लेकर गांधी जी ने दस दिन रूकने के लिए लोहिया को कहा. दस दिन बाद 7 अगस्त 1942 को गांधीजी ने 3 घंटे तक भाषण देकर कहा, कि 'हम अपनी आजादी लड़कर प्राप्त करेंगे.' अगले दिन 8 अगस्त को 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव बंबई में बहुमत से स्वीकृत हुआ, गांधी जी ने करो या मरो का संदेश दिया.
9 अगस्त 1942 को जब गांधी जी व अन्य कांग्रेस के नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तब लोहिया ने भूमिगत रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में फैलाया. लोहिया, अच्युत पटवर्धन, सादिक अली, पुरूषोत्तम टिकरम दास, मोहनलाल सक्सेना, रामनन्दन मिश्रा, सदाशिव महादेव जोशी, साने गुरूजी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अरूणा आसिफअली, सुचेता कृपलानी और पूर्णिमा बनर्जी आदि नेताओं का केन्द्रीय संचालन मंडल बनाया गया. लोहिया पर नीति निर्धारण कर विचार देने का कार्यभार सौंपा गया. उन्होंने भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी करो, आजाद राज्य कैसे बने' जैसी पुस्तिकाएं लिखीं. 20 मई 1944 को लोहिया जी को बंबई में फिर से रफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के बाद उन्हें लाहौर किले की एक अंधेरी कोठरी में रखा गया जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी. पुलिस द्वारा लगातार उन्हें यंत्रणा दी गई, 15-15 दिन तक उन्हें सोने नहीं दिया जाता था. किसी से मिलने नहीं दिया गया और 4 महीने तक ब्रुश या पेस्ट तक भी नहीं दिया गया. हर समय हथकड़ी बांधे रखी जाती थी. लाहौर के प्रसिद्ध वकील जीवनलाल कपूर द्वारा हैबियस कारपस की दरखास्त लगाने पर उन्हें तथा जयप्रकाश नारायण को स्टेट प्रिजनर घोषित कर दिया गया. मुकदमे के चलते सरकार को लोहिया को पढ़ने-लिखने की सुविधा देनी पड़ी. पहला पत्र लोहिया ने ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष प्रो॰ हेराल्ड जे. लास्की को लिखा जिसमें उन्होंने पूरी स्थिति का विस्तृत ब्यौरा दिया.जिसके बाद 1945 में लोहिया को लाहौर से आगरा जेल भेज दिया गया. द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने पर गांधी जी तथा कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दिया गया. केवल लोहिया व जयप्रकाश ही जेल में थे. इसी बीच अंग्रेजी सरकार और कांग्रेस की बीच समझौते की बातचीत शुरू हो गई. इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बन गई सरकार का प्रतिनिधि मंडल डॉ॰ लोहिया से आगरा जेल में मिलने आया. किन्तु इस बीच लोहिया के पिता हीरालाल जी की मृत्यु हो गई. किन्तु फिर भी लोहिया जी ने सरकार की कृपा पर पेरोल पर छूटने से इंकार कर दिया था .
अंततः 11 अप्रैल 1946 को लोहिया को आगरा जेल से रिहा कर दिया गया. 15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में 'गोवा मुक्ति आंदोलन' की पहली सभा ली और उन्हें 18 जून को गोवा मुक्ति आंदोलन के शुरूआत के दिन ही गिरफ्तार कर लिया गया. 30 दिसम्बर 1946 को लोहिया ने नवाखली में हिन्दु और मुसलमान के बीच के अविश्वास को दूर करने में गांधी जी के साथ विस्तृत कार्यक्रम तैयार किया और पूरे साल नवाखली, कलकत्ता, बिहार, दिल्ली सभी जगह लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे. लोहिया ने दंगाईयों के हथियार इकट्ठे कराए. उनके प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई . जनवरी 1947 में लोहिया ने नेपाली राष्ट्रीय कांग्रेस को स्थापित करने तथा राणाशाही के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारंभ करने की पहल की. 25 जनवरी 1948 को बंबई हड़ताल को लेकर लोहिया जी ने गांधी जी से हड़ताल का समर्थन मांगा. 28 जनवरी को गांधी जी ने कहा कि कल आना कल पेट भर की बात होगी. 30 जनवरी को लोहिया जब बिड़ला भवन के लिए निकले तब उन्हें गांधी जी की हत्या की खबर सुनने को मिली. इसके बाद मार्च 1948 में नासिक सम्मेलन में सोशलिस्ट दल ने कांग्रेस से अलग होने का निश्चय किया. लोहिया की प्रेरणा से रियासतों की समाप्ति का आंदोलन 650 रिसासतों में समाजवादी चला रहे थे.
2 जनवरी 1948 को रीवा में 'हमें चुनाव चाहिए विभाजन रद्द करो' के नारे के साथ आंदोलन किया गया जिसमें पुलिस ने गोली चलाई 4 आंदोलनकारी शहीद हुए. 1949 को सोशलिस्ट पार्टी द्वारा लोहिया के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला के आमरण अनशन तथा नेपाल में राणाशाही के अत्याचार के खिलाफ सभा की गई. नेपाली दूतावास की ओर जब जुलूस बढ़ा तब लाठी चार्ज किया गया और लोहिया जी को गिरफ्तार किया गया.जिसके उपरान्त 20 जून को देश भर में लोहिया दिवस मनाया गया . इस मुकदमे में उन्हें दो महीने की कैद हुई और 3 जुलाई को रिहा कर दिया गया. सन् 1949 में पटना में सोशलिस्ट पार्टी का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. इसी सम्मेलन में लोहिया ने 'चौखंभा राज्य' की कल्पना प्रस्तुत की थी . पटना में 'हिन्द किसान पंचायत' की स्थापना भी हुई जिसका अध्यक्ष लोहिया को चुना गया. 25 नवम्बर 1949 को लखनऊ में एक लाख किसानों ने विशाल प्रदर्शन किया और 26 फ़रवरी 1950 को रीवा में 'हिन्द किसान पंचायत' का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. दिल्ली में 3 जून 1951 को जनवाणी दिवस पर प्रदर्शन किया गया जिसमे 'रोजी-रोटी कपड़ा दो नहीं तो गद्दी छोड़ दो', प्रदर्शनकारियों का मुख्य नारा था. 14 जून 1951 को सागर स्टेशन में लोहिया जी को गिरफ्तार कर बेंगलूर के हवालात में बंद कर दिया गया. 3 जुलाई को लोहिया छूटे और 24 जुलाई को वे विश्व सरकार के समर्थकों के सम्मेलन में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम गए . इसी क्रम में वह 17 साल बाद पुन: बर्लिन पहुंचे. लोहिया इंग्लैंड, पश्चिम अफ्रीका, दक्षिण पश्चिम एशिया के कई देशों में गए और इस्रायल से होकर 15 नवम्बर को स्वेदश लौटे.
1951 में लोहिया को 3 जुलाई को समाजवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बुलाया गया.इस सम्मेलन में वह जर्मनी, युगोस्लाविया, अमेरिका, हवाई, जापान, हांगकांग, थाईदेश, सिंगापुर मलाया, इंडोनेशिया तथा लंका भी गए. लोहिया विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से प्रिंसटन में मिले. आइंस्टीन ने कहा, कि 'किसी मनुष्य से मिलना कितना अच्छा होता है आदमी कितना अकेला पड़ जाता है ' लोहिया ने अमरीका में सैकड़ों स्थानों पर भाषण किए. उस समय उन्होंने एशिया की समस्त सोशलिस्ट पार्टियों का संगठन निर्मित करने का विचार बनाया. 25 मार्च से 29 मार्च 1952 में एशियाई सोशलिस्ट कान्फ्रेंस हुई, लेकिन इसमें लोहिया शामिल नहीं हो सके और जय प्रकाश नारायण भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता बन कर रंगून गए.
मई 1952 में पंचमढ़ी में सोशलिस्ट पार्टी का सम्मेलन हुआ. आम चुनाव में हार के बाद लोहिया ने चुनावों की पराजय की शव परीक्षा के बदले ठोस विचारों की ओर पार्टी को ले जाने का विचार दिया. गुजरात पार्टी सम्मेलन में इतिहास चक्र की नई व्याख्या लोहिया द्वारा प्रस्तुत की गई।=. 24-25 सितम्बर 1952 में सोशलिस्ट पार्टी की जनरल कौंसिल बैठक में किसान-मजदूर प्रजा पार्टी और सोशिलिस्ट पार्टी के विलय का निर्णय लिया गया. इस तरह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ. 29 से 31 दिसम्बर 1953 को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन इलाहाबाद में हुआ, वहां लोहिया ने इलाहाबाद थीसिस प्रस्तुत की. लोहिया को उनके मना करने के बावजूद पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री चुना गया. 13-14 मई 1954 को उत्तर प्रदेश प्रजा सोशलिस्ट पार्टी द्वारा नहर रेट की बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया. 4 जुलाई 1954 को फर्रुखाबाद में वाणी स्वतंत्रता के संघर्ष को लेकर भाषण दिए जाने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया. नागपुर में 26-28 नवम्बर 1954 के बीच केरल गोली कांड पर विचार करने के लिए सम्मेलन हुआ जिसमे लोहिया केरल मंत्रीमंडल से इस्तीफा मांग लिया . 31 दिसम्बर 1955 तथा 1 जनवरी 1956 को सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना हुई. लखनऊ में लोहिया के नेतृत्व में एक लाख किसानों का प्रदर्शन हुआ. 1956 में लोहिया ने "मैनकाइंड" नामक पत्रिका भी शुरू की. सोशिलिस्ट पार्टी का प्रथम वार्षिक अधिवेशन भारत के मध्य बिंदु मध्यप्रदेश के ग्राम सिहोरा में 28, 29, 30 दिसम्बर 1956 को हुआ.
एक साल बाद फिर उसी स्थान उर्वसियम (नेफा) से लोहिया ने पूर्वोत्तर में प्रवेश किया, जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था . 17 अप्रैल 1960 को कानुपर के सर्किट हाउस में अनाधिकृत प्रवेश करने के कारण अपराध बताकर उन्हें पुन: गिरफ्तार किया गया. 1961 में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के दौरान लोहिया की सभा पर मद्रास में पत्थर बरसाये गए. 1961 में लोहिया एथेंस, रोम और काहिरा गए. 1962 में चुनाव हुआ और लोहिया नेहरू के विरुद्ध फूलपुर में चुनाव मैदान में उतरे. 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत के सवाल को उठाया. 1963 के फर्रुखाबाद के लोकसभा उपचुनाव में लोहिया 58 हजार मतों से चुनाव जीते. लोकसभा में लोहिया की 3 आना बनाम 15 की बहस अत्यंत चर्चित रही, जिसमें उन्होंने 18 करोड़ आबादी के 3 आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया था .
लोहिया जानते थे कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंग्रेजी का प्रयोग आम जनता की प्रजातंत्र में शत प्रतिशत भागीदारी के रास्ते का रोड़ा है. उन्होंने इसे सामंती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग के खतरों से बारंबार आगाह किया और बताया कि यह मजदूरों, किसानों और शारीरिक श्रम से जुड़े आम लोगों की भाषा नहीं है. उन्होंने लिखा: यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएं, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें, तो यह केवल एक प्रकार का जादू-टोना होगा. दुख की बात है कि लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन (1957) को हिंदी का वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश के तौर पर देखा गया, जबकि लोहिया ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि अंग्रेजी हटाओ का अर्थ हिंदी लाओ कदापि नहीं है. उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं की उन्नति और उनके प्रयोग की खुल कर वकालत की. उनके अनुसार अंग्रेजी हटाओ का अर्थ 'मातृभाषा लाओ' था.भारतीय राजनीति का बेबाक और बिंदास चेहरा रहे राममनोहर लोहिया ने 50 के दशक में ही भांप लिया था उन्होंने लोकसभा में बल देकर अपनी बात रखते हुए कहा था, अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए .मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोक राज्य असंभव है. कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती हैं यह प्रश्न नहीं है. हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी. अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये.
30 सितम्बर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है को पौरूष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहां 12 अक्टूबर 1967 को डाक्टरों की लापरवाही के कारण 57 वर्ष की आयु में ही उनका देहांत में हो गया.
पुस्तक संकलन
पुस्तक -लोहिया के विचार के अंश
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लोहिया एक फ़िजा थे, साथ ही एक अनोखी व गर्म फ़िजा के निर्माता भी। वह फिजा कैसी थी ? सम्पूर्ण आजादी, समता, सम्पन्नता, अन्याय के विरुद्ध जेहाद और समाजवाद की फ़िजा।आज वह फ़िजा भी नहीं है, लोहिया भी नहीं है। लेकिन दूसरों के लिए जीने वाला कभी मरता नहीं। लोहिया आज भी अपने विचारों में जीवित है। लगन, ओजस्विता और उग्रता–प्रखरता को जब तक गुण माना जायेगा, लोहिया के विचार अमर रहेंगे। मूलतः लोहिया राजनीतिक विचारक, चिंतक और स्वप्नद्रष्टा थे, लेकिन उनका चिन्तन राजनीति तक ही कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिन्तन-धारा की विशेषता थी। राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी उनके मौलिक विचार थे।
लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
लोहिया गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के अखण्ड समर्थक थे, लेकिन गाँधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे: वे समाजवादी थे, लेकिन मार्क्स को एकांगी मानते थे: वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना देखते थे: वे आधुनिकतम विद्रोही तथा क्रान्तिकारी थे, लेकिन शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक थे। लोहिया मानते थे कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है। फिर वे समाजवाद को भी प्रजातन्त्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातन्त्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे व बेमतलब हैं।
लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद को मूल रूप में समझा और दोनों को अधूरा पाया, क्योंकि इतिहास की गति ने दोनों को छोड़ दिया है। दोनों का महत्त्व मात्र-युगीन है। लोहिया की दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गांधी पूर्व के प्रतीक हैं और लोहिया पश्चिम-पूर्व की खाई पाटना चाहते थे। मानवता के दृष्टिकोण से वे पूर्व-पश्चिम, काले-गोरे, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े राष्ट्र नर-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।
लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।
लोहिया गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के अखण्ड समर्थक थे, लेकिन गाँधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे: वे समाजवादी थे, लेकिन मार्क्स को एकांगी मानते थे: वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना देखते थे: वे आधुनिकतम विद्रोही तथा क्रान्तिकारी थे, लेकिन शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक थे। लोहिया मानते थे कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है। फिर वे समाजवाद को भी प्रजातन्त्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातन्त्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे व बेमतलब हैं।
लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद को मूल रूप में समझा और दोनों को अधूरा पाया, क्योंकि इतिहास की गति ने दोनों को छोड़ दिया है। दोनों का महत्त्व मात्र-युगीन है। लोहिया की दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गांधी पूर्व के प्रतीक हैं और लोहिया पश्चिम-पूर्व की खाई पाटना चाहते थे। मानवता के दृष्टिकोण से वे पूर्व-पश्चिम, काले-गोरे, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े राष्ट्र नर-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।
लोहिया की विचार-पद्धति रचनात्मक है। वे पूर्णता व समग्रता के लिए प्रयास करते थे। लोहिया ने लिखा है- ‘‘जैसे ही मनुष्य अपने प्रति सचेत होता है, चाहे जिस स्तर पर यह चेतना आए और पूर्ण से अपने अलगाव के प्रति संताप व दुख की भावना जागे, साथ ही अपने अस्तित्व के प्रति संतोष का अनुभव हो, तब यह विचार-प्रक्रिया होती है कि वह पूर्ण के साथ अपने को कैसे मिलाए, उसी समय उद्देश्य की खोज शुरू होती है।’’
लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियां थी।
1 नर-नारी की समानता के लिए,
2 चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,
3 संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,
4 परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,
5 निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,
6 निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,
7 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा-‘मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।’
कर्म के क्षेत्र में अखण्ड प्रयोग और वैचारिक क्षेत्र में निरन्तर संशोधन द्वारा नव-निर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील भी लोहिया का एक रूप है। जीवन का कोई भी पहलू शायद ही बचा हो, जिसे लोहिया ने अपनी मौलिक प्रतिभा से स्पर्श न किया हो। मानव-विकास के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी विचारधारा सबसे भिन्न और मौलिक रही है। लोहिया के विचारों में अनेकता के दर्शन होते हैं। त्याग, बुद्धि और प्रतिमा के साथ सूर्य की प्रखरता है तो वहीं चन्द्रमा की शीतलता भी है, वज्र की कठोरता है तो फूल की कोमलता भी है।
लोहिया में सन्तुलन और सम्मिलन का समावेश है। उनका एक आदर्श विश्व-संस्कृति की स्थापना का संकल्प था। वे हृदय से भौतिक, भौगोलिक, राष्ट्रीय विश्व-संस्कृति की स्थापना का संकल्प था। वे हृदय से भौतिक, भौगोलिक, राष्ट्रीय व राजकीय सीमाओं का बन्धन स्वीकार न करते थे, इसलिए उन्होंने बिना पासपोर्ट ही संसार में घूमने की योजना बनाई थी और बिना पासपोर्ट वर्मा घूम आये थे।
लोहिया को भारतीय संस्कृति से न केवल अगाध प्रेम था बल्कि देश की आत्मा को उन जैसा हृदयंगम करने का दूसरा नमूना भी न मिलेगा। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व-दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का असली व सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक-दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें। भारतमाता से लोहिया की माँग थी-‘‘हे भारतमाता ! हमें शिव का मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’ वास्तव में यह एक साथ एक विश्व-व्यक्तित्व की माँग है। इससे ही उनके मस्तिष्क और हृदय को टटोला जा सकता है।
लोहिया का विश्वास था कि ‘सत्यम, शिवम् सुन्दरम के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के ‘समाजवाद, स्वातंत्र्य और अहिंसा के तीन-सूत्री आदर्श जीवन का सुन्दर सत्य होगा और उस सत्य को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए मर्यादा-अमर्यादा का, सीमा-असीमा का बहुत ध्यान रखना होगा। दुनिया के सभी क्षेत्रों की परम्पराओं द्वारा प्राप्त स्थल-कालबद्ध अर्द्धसत्यों को सम्पूर्ण बनाने की दृष्टि से संशोधन की चेष्टा लोहिया के जीवन भरी साधना रही है। आज की दुनियाँ की दो-तिहाई आबादी का दर्द और गरीबी व विपन्नता को जड़ से मिटाने और समस्त विश्व को युद्ध और विनाश की बीमारी से मुक्त करने का निदान लोहिया ने बताया। साथ ही वे यह भी जानते थे कि निदान सही होने पर भी संसार में फैला स्वार्थ और लोभ उसे मंजूर न करेगा। क्योंकि सौ फीसदी लाभ करने वाली दवा के पथ्य और कायदे-कानून बड़े निर्मम व कठोर होते हैं। लेकिन लोहिया ने इसकी भी कभी चिन्ता न की और उन्हें जो कुछ सत्य प्रतीत हुआ उसी का प्रचार करते रहे। उनका विश्वास था कि सही बात यदि बार-बार और बराबर कही जाय, तो धीरे-धीरे लोगों को उसे सुनने की आदत पड़ती जाएगी। इसीलिए दूसरों को अजीबोगरीब लगने वाली अपनी बातें वे निरन्तर, जीवनपर्यन्त कहते रहे। लोहिया में विचार, प्रतिभा और कर्मठता का अनोखा मेल था।
राजनीतिक कर्मयोगी के रूप में उनकी देन का मूल्याकन अभी सम्भव नहीं है। शायद उसका अभी समय भी नहीं आया है, परन्तु जहाँ तक उनके विचारों व सिद्धान्तों की बात है, उनके साथ भी वही हुआ, जो विश्व की लगभग सभी महान प्रतिभाओं के साथ होता चला आया है। ऐसे लोग, जो भी विचार और कल्पनाएँ पेश करते हैं, साधारण लोगों में उनके महत्त्व का प्रचार व ज्ञान होने में समय लगता ही है, परन्तु आश्चर्य होता है, जब समकालीन राजनीतिक व विचारक भी बहुधा उनके विचारों का सही मूल्यांकन सही समय पर नहीं कर पाते और बाद में पछतावे की बारी आती है। उदाहरण के रूप में यदि सन् 1954 में लोहिया के कहने पर केरल के समाजवादी मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया होता तो आज इस देश में समाजवादी आन्दोलन तो आदर्श बनता ही, साथ ही, दुनिया में भी एक नए आदर्श का निर्माण हुआ होता। इस तरह के अनेक अवसर पाए, जब लोहिया के बहुतेरे निकटतम साथी भी लोहिया द्वारा उठाए गए महत्त्वपूर्ण सवालों का मर्म नहीं समझ सके और चूके और पछताए।
लोहिया की आत्मा विद्रोही थी। अन्याय का तीव्रतम प्रतिकार उनके कर्मों व सिद्धान्तों की बुनियाद रही है। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ-साथ उनके पास असीम धैर्य और संयम भी रहा है। बार-बार जेल जाने-अपमान सहने के अप्रिय अनुभवों के बावजूद भी अन्याय के लिए अपनी दृढ़ता के कारण वे फिर-फिर ऐसे कटु अनुभवों को आमंत्रित कर के अंगीकार करते रहे। लोहिया ने खुद लिखा है-‘‘मुझे कभी-कभी ताज्जुब होता है कि एक तरह के निराधार अभियोग एक ही आदमी के विरुद्ध लगातार क्यों लगाए जाते हैं ? मेरे ऊपर दोष लगाने वालों की ताकत यही है कि वे भारतीय शासक वर्ग के खयालों के साथ हैं और मैं उसके बिल्कुल विरुद्ध। इसके अलावा मैंने भारतीय समाज की पुरानी बुनियादों के खिलाफ आवाज उठाई है और उन पर हमला किया है। जिसका नतीजा है कि मुझे देश की सभी स्थिर स्वार्थवाली और प्रभावशाली शक्तियों के क्रोध का शिकार बनना पड़ता है।’’
शायद लीक पर चलना लोहिया के स्वभाव में न था। साथ ही वे प्रवाह के साथ भी कभी बने नहीं, बल्कि प्रचलित प्रवाह के उलटे तैरने के प्रयोग में उनके विचारों को प्रचार के लिए देश के अखबारों का भी सहयोग कभी नहीं मिला। उपेक्षा, भ्रामक प्रचार और मिथ्या लेखन द्वारा लोहिया के विचारों को दबाने की सदा कोशिश की गई, पर क्या यह संभव था कि इस प्रकार उनके विचारों को नष्ट किया जा सकता ? उनकी महान कृतियों को जब भुलाना असंभव हो जाता था तभी आंशिक रूप में उन्हें प्रकाशन मिलता था- सो भी कभी कभी सही रूप में नहीं, बल्कि तोड़-मरोड़ कर, अर्थ को अनर्थ करके। दूसरी ओर हर झूठ का बराबर खण्डन करते रहना तथा सफाई देना स्वाभिमानी लोहिया के स्वभाव के खिलाफ तो था ही.
लोहिया की आत्मा विद्रोही थी। अन्याय का तीव्रतम प्रतिकार उनके कर्मों व सिद्धान्तों की बुनियाद रही है। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ-साथ उनके पास असीम धैर्य और संयम भी रहा है। बार-बार जेल जाने-अपमान सहने के अप्रिय अनुभवों के बावजूद भी अन्याय के लिए अपनी दृढ़ता के कारण वे फिर-फिर ऐसे कटु अनुभवों को आमंत्रित कर के अंगीकार करते रहे। लोहिया ने खुद लिखा है-‘‘मुझे कभी-कभी ताज्जुब होता है कि एक तरह के निराधार अभियोग एक ही आदमी के विरुद्ध लगातार क्यों लगाए जाते हैं ? मेरे ऊपर दोष लगाने वालों की ताकत यही है कि वे भारतीय शासक वर्ग के खयालों के साथ हैं और मैं उसके बिल्कुल विरुद्ध। इसके अलावा मैंने भारतीय समाज की पुरानी बुनियादों के खिलाफ आवाज उठाई है और उन पर हमला किया है। जिसका नतीजा है कि मुझे देश की सभी स्थिर स्वार्थवाली और प्रभावशाली शक्तियों के क्रोध का शिकार बनना पड़ता है।’’
शायद लीक पर चलना लोहिया के स्वभाव में न था। साथ ही वे प्रवाह के साथ भी कभी बने नहीं, बल्कि प्रचलित प्रवाह के उलटे तैरने के प्रयोग में उनके विचारों को प्रचार के लिए देश के अखबारों का भी सहयोग कभी नहीं मिला। उपेक्षा, भ्रामक प्रचार और मिथ्या लेखन द्वारा लोहिया के विचारों को दबाने की सदा कोशिश की गई, पर क्या यह संभव था कि इस प्रकार उनके विचारों को नष्ट किया जा सकता ? उनकी महान कृतियों को जब भुलाना असंभव हो जाता था तभी आंशिक रूप में उन्हें प्रकाशन मिलता था- सो भी कभी कभी सही रूप में नहीं, बल्कि तोड़-मरोड़ कर, अर्थ को अनर्थ करके। दूसरी ओर हर झूठ का बराबर खण्डन करते रहना तथा सफाई देना स्वाभिमानी लोहिया के स्वभाव के खिलाफ तो था ही.
पुस्तक 'भारत माता धरती माता' के अंश
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रामायण
धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस् की उपलब्धि का प्रयत्न करता है, राजनीति बुराई से लड़ती है। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में हैं, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गयी है। तुलसी की रामायण में निश्चय कि सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन उसमें कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है। इन दोनों को धर्म से इतना पवित्र बना दिया गया है कि भारतीय जन की विवेक-दृष्टि लुप्त हो गयी है।
दृष्टि गहरी और व्यापक हुए बिना न आनन्द मिलता है, न समझ। तुलसी की रामायण में आनन्द के साथ-साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है, धर्म शाश्वत मानी में और वक़्ती भी। तुलसी की कविता से निकली है अनगिनत रोज की उक्तियाँ और कहावतें, जो आदमी को टिकाती हैं, और सीधे रखती हैं। साथ ही ऐसी भी कविता है जो एक बहुत की क्रूर अथवा क्षण-भंगुर धर्म के साथ जुड़ी हुई है, जैसे शुद्र या नारी की निन्दा और गऊ, विप्र की पूजा। मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।
तुलसी महान हैं यह कहना अनावश्यक है। जरूरत है बताने की उन चीजों को जिनमें उनकी महत्ता फूटती है। तुलसी के बारे में मैं अपनी निजी राय बता दूँ, जिसको मानना ज़रूरी नहीं है, तुलसी एक रक्षक कवि थे। जब चारों तरफ से अझेल हमलें हों तो बचाना, थामना, टेक देना, शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है। जब साधारण शक्ति आ चुकी हो, फैलाव, खोज, प्रयोग, नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूँढ़नी होगी।
आनन्द, प्रेम और शान्ति का आह्वान तो रामायण में है ही, पर हिन्दुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि राम हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण की एकता के देवता थे, कि पूर्व-पश्चिम एकता के देवता थे कृष्ण और, कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्रोत रामकथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ को मराठी रामायण, कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया।
यहाँ मैं बतला दूँ कि खोतानी (तुर्की) रामायण तो राम और लक्ष्मण दोनों की शादी सीता से करा देती है, और थाई और कम्बोज और हिन्देशिया की रामायणों में वही दिखाया गया है जो कि कुछ प्राचीन भारतीय रामायणों में है, कि सीता की ननद उसके साथ ऐसी मसखरी करती है कि जिसमें उसके पास रावण का चित्र रख दिया कि सीता व्यग्र हो उठे। इन सबसे यह पता चलता है कि मूल राम-कथा आवश्यक वस्तु है न कि उसकी बारीकियाँ।
तुलसी रामायण की धार्मिक कविता ऐसी है कि जैसी, शायद दुनिया भर में और कोई कवित्वमय नहीं है, लेकिन बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि वह विवेक को दबा देने की ओर प्रवृत्त करती है। जहाँ धर्म निरपेक्ष कवि शेक्सपियर और ग्वेथे या कालिदास भी, पाठक में, उसकी समीक्षा-बुद्धि की अवरुद्ध किये बिना कविता और विस्तीर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, वहाँ रामायण जिस किसी विषय पर जो कुछ कहती है, उसे पवित्र बना देती है। कम से कम अधिकांश पाठकों और श्रेताओं पर यही असर पड़ता है। रोजमर्राह के रीति-रिवाज एक ऐसे शाश्वत मूल्य प्राप्त कर लेते हैं जैसे कि उन्हें कभी नहीं करना चाहिए। औरतों या पिछड़े वर्गों या जातियों के खतरनाक स्वरूप सम्बन्धी विचार सुप्रतिष्ठित किये गये हैं। इन उत्कृष्ट पंक्तियों को हमेशा याद रखना चाहिए—
सीया राममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
या
कत विधि सृजों नारी जग माही। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।
और, नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हँस कर टाल देना चाहिए कि ये पंक्तियाँ किसी शोक–संतप्त अथवा नीच पात्र के मुँह में हैं या ऐसे कवियों की हैं जो अपरिवर्तनशील युग में थे।
हम तुलसी को याद करें। नारी स्वतन्त्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं, कम से कम इसे ज्यादा जानदार कहीं नहीं। अफसोस यह है कि नारी-हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुँह पर चढ़ी रहती है, लेकिन नारी-सम्मान वाली कविता को वह भुलाये रहता है। ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ का सम्बन्ध नारी से है। जब पार्वती का विवाह हो गया तब उनकी माँ नैना बिदाई के मौके पर दुःखी होकर और समझाने-बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात करती हैं, जो सारे संसार की नाही-हृदय की चीख है—‘तक विधि सृजों नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’। हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्द्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर, कहीं-कहीं, उसने इसका नया पूर्वार्द्ध ही गढ़ डाला, ‘‘कर-विचार देखहुँ मनमाहीं।’
गजब है तुलसी ! क्या ममता, क्या नारी हृदय की चीख, क्या नर-नारी आदर्श जीवन की सूचना। आखिर उसने संसार को किस रूप में जाना है, ‘सियाराम-मय सब जग जानी’।
नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर हो सकता है। ऐसा सम्बन्ध कोई समाज अभी तक नहीं जान पाया। सीता और राम में भी पूरी बराबरी का स्नेह नहीं था। समाज के अन्दर व्याप्त गैरबराबरी का कण उसमें भी पड़ गया। फिर भी, जितना ज्यादा सीता, द्रौपदी और पार्वती इत्यादि को ऊँचे और स्वतंत्र आसन पर बैठाया है, उससे ज्यादा ऊँचा नारी का आसन दुनिया में कहीं और कभी नही हुआ। यदि दृष्टि ठीक है तो राम-कथा और तुलसी-रामायण की कविता सुनने या पढ़ने से नर-नारी के सम-स्नेह की ज्योति मिल सकती है।
ऐसी दृष्टि, लगता है कि हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी। दहेज की रकम बढ़ती चली जा रही है और जब माता-पिता उसे न दे पायेंगे और जब वह सब बढ़ेगा जिसे हिन्दुस्तान में अनर्थ कहा जाता है, तब लोग समझेंगे कि नारी को भी इसी तरह खोल दो जैसे नर को। तुलसी या और किसी भी रामायण में सामयिक और क्षण-भंगुर चीजें बहुत हैं। मिसाल के लिए बाल राम की पैजनियाँ। ये उस युग की प्रतीक हैं जहाँ मनुष्य को किसी न किसी खिलौने के रूप में देखा जाता है। इन पैंजनियों को खतम करना ही है, चाहे वह नर के पैर में हो, चाहे नारी के पैर मे, केवल पैर मे नहीं हैं, और जगह भी। कन-छेदन, नर और नारी दोनों के, और नक-छेदन नारी के, कितने वीभत्स प्रकरण हैं। मणि, मुक्ता और कनक के लिए सभी रामायणों में एक अद्भुत लालसा मिलेगी। मुझे लगता है कि ये सब वैभव और ऐश्वर्य और सुख के प्रतीक हैं। शायद, मनुष्य को उनसे कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। लेकिन वह समय तो अब खतम-सा हो रहा है, जब ये शक्ति और शासन के प्रतीक थे। ऐसे सब वर्णनों में तुलसी या और किसी कवि का दोष नहीं है। दोष अगर है तो समय का। अब समय फिर रहा है। इसलिए रामायण पढ़ते या सुनते समय पैजनियाँ, नकछेदन, मणि-मुक्ता वगैरह की बात को आदर्श मन से छोड़ देना चाहिए, और उन्हें केवल बीते हुए जमाने के बीते हुए प्रतीक के समान समझना चाहिए।
पुस्तक 'इतिहास चक्र ' से
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यदि अपने अब तक के आर्थिक और राजनीतिक सिद्धान्तों के प्रयत्नों के बौद्धिक नतीजों से सबक लूँ तों ऐतिहासिक सिद्धन्तों के बारे में अपने इस प्रबन्ध को प्रकाशित कराने से मुझे बचना चाहिए थे। लेकिन आशा तो अमर है ! इतिहास, लगता है कि यूनानी दुखान्त नाटकों के अटल तर्क की तरह ही चलता है। पाँच हफ्तों की विदेश-यात्रा के बाद, 1953 के आखिर में, एक हवाई-कम्पनी की एक बस में गोरी चमड़ीवाले मर्दों और औरतों के दल में मैं अकेला अश्वेत श्रोता था, जो भारत के कीड़े-मकोडों और उनके काटने से जीवन भर सताने वाली बिमारियों की बड़े विस्तार से चर्चा कर रहा था। मैं काफी देर तक अपनी जबान पर काबू किए रहा, क्योंकि मैंने धीरज रखना सीख लिया है यद्यपि पूरी तरह नहीं। एक मुखर और चपल महिला को मैंने काले नाग की बात बताई जिसके काटने का कोई इलाज ही नहीं। बस में कुछ लोगों ने समझा कि मैं बहुत कड़ुआ हो रहा हूँ। लेकिन मैं शरीर की किसी कड़ुवाहट के प्रति सजग न था लेकिन वास्तव में मेरे अन्दर इतिहास की कड़ुवी दुराहट की वेदना अवश्य प्राप्त थी। मैंने उन लोगों से कहा कि सचमुच भारत दुनिया का सबसे गरीब और गंदा मुल्क है, लेकिन हो सकता है कि सौ साल या इससे कम समय में, योरप और अमेरिका, भारत से इस संदर्भ में स्थान परिवर्तन कर लें। यह तो इतिहास-चक्र है। यह बिना किसी भावना के चलता है मेरे लोग और मेरा देश दो बार पहले ही इतिहास के शिखर पर खड़े हो चुके हैं और मैं नहीं चाहूँगा कि इसकी तीसरी आवृत्ति हो। क्योंकि, यदि शिखर पर चढ़ने का तीसरी बार अवसर आयेगा तो निश्चय ही हम फिर औंधे-मुँह नीचे गिर कर धूल फाँकेगे। यूनानियों और रोमनों को छोड़कर जो किसी तरह भी वर्तमान गोरी सभ्यता का अंग नहीं है, अमरीका और योरप वाले उतार-चढ़ाव के इस व्यापार में बिल्कुल नए ही है। उनकी अपनी कोई अतीत-कुल-स्मृतियाँ नहीं जो उन्हें इतिहास-चक्र की याद दिलाएँ। यही सबसे दुख की बात है। यदि इस चक्र पर सदा स्वयं टूटने के बजाय, मानव जाति की संभावित योजना से इसे ही तोड़ा जाय तो अब भी दुनिया में बुद्धिमानों की वह हँसी गूँज सकती हैं जो मैंने महात्मा गाँधी से सुनी और अलबर्ट आइन्स्टीन में जिनकी प्रतिध्वनि से मुझे प्रफुल्लता मिली थी।
जिबरान मजदलानी, उनकी माँ, उनका शोफर, तीनों ही अरब और हम एक बार, मोटर बेरुत से मश्क जा रहे थे जहां के खेत व पहाड़ियाँ बाइबिल की कथाओं द्वारा पवित्र हो चुके थे। एक बर्र मोटर में घुस आयी। जिबरान की माँ बहुत परेशान हो उठी और मोटर रुकवाई। तब तक बर्र शान्त होकर मेरे किनारे आकर बैठ गई थी। कड़े कागज के एक टुकड़ा उठाकर उसी से, धीरे से मैं बर्र जैसे नखरे दिखाने लगी। जिबरान की माँ अधिक उत्तेजित हो उठीं और मुझसे बोलीं के मैं बर्र को मार डालूँ। मैंने उनसे कहा कि बेचारी खुद ही थोड़े दिनों में मर जाएगी। उनका ख्याल था कि मरने से पहले यह किसी न किसी को डंक मारेगी अवश्य और उन्होंने मुझसे पूछा कि साँप होता तो मैं क्या करता। तब उन्हें यह बताकर कि जानवर या कीड़े जब तब छेड़ें या सताये न जायें प्रायः हमला नहीं करते, मैंने उनसे पूछा कि अकारण डर या घृणा से हमला करने वाले के साथ वे क्या करेंगी ? उन्हों बताया कि वह उसे भी मारने का प्रयत्न करेंगी। मैंने उनसे कहा कि ऐसी हालत में सारी मानव-जाति को ही हमला करने से रोकने के लिए मारना पड़ेगा। इस समय जिबरान ने बीच में पकड़कर अपनी माँ को भारत और गाँधी के बारे में बताया। तब तक बर्र खिड़की से बाहर उड़ गई। वास्तव में बर्रों को बराबर खिड़की से बाहर निकालते रहना होगा और अगर इसमें कोई कमी नहीं हुई तो उनके डंक और उनको मारनेवाले बढ़ते जायेंगे। लेकिन अधिकांश जातियों को मार कर समाप्त करना असंभव है, वे समाप्त हो सकती हैं यदि उनकी पैदाइश रोक दी जाय। कोई बम, हाइड्रोजन बन भी मानव-जाति को इस तरह समाप्त नहीं कर सकता कि सकी पैदाइश रुक जाय। जीवित –प्राणियों में व्याप्त बुराई को अचानक समाप्त नहीं किया जा सकता, अधिक से अधिक उनकी पैदाइश रोकी जा सकती है। अतः बर्रों को बराबर ही खिड़की के बाहर निकालते रहना होगा और उनकी पैदाइश की जगहों को खोज कर साफ करते रहना होगा। क्या कभी मनुष्य को अपने भाग्य की बुराइयों के पैदाइश-स्थल को खोज कर साफ करने में इतिहास पढ़ने से सहायता मिलेगी ? -राममनोहर लोहिया
उद्देश्य और इतिहास
बीस साल से भी ज्यादा पहले, बर्लिन विश्वविद्यालय के रेस्तरां की एक मेज पर इतिहास के कुछ विद्यार्थी बैठे थे। उनमें से कुछ हेगेलवादी थे, कुछ मार्कसवादी। मैंने उनसे यह प्रश्न किया कि अपनी परिपक्व सभ्यता के बावजूद भी भारत दूसरे देश का गुलाम कैसे हो गया ? उनमें कोई हठी या उद्दण्ड न था जैसा कि इतिहास पढ़ने वालों के लिए होगा उचित ही था और मार्क्सवादी ने अपनी समझ से उत्तर दिया। उसने बताया कि भारत की मंडियाँ गाँव के स्तर से बढ़ कर राष्ट्र के पैमाने तक पहुँच नहीं सकीं, भूमिहीन मजदूर देश में बहुत न बढ़ सके, और बड़े पैमाने पर बेदखलियाँ नहीं हुई काफी मात्रा में धंधे बढ़ाने योग्य व्यापारिक पूँजी भी न थी और भारत को मैक्सिको का भाग्य और अन्य स्थानों की लूट का अवसर न मिला। यह काफी तथ्यपूर्ण तथा विस्तृत उत्तर था और जहाँ तक सचाई का सम्बन्ध है कि हद तक सही उत्तर था। ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जा जमाने के पहले हमारी मंडियाँ आमतौर पर गाँव के स्तर की थीं, हमारे भूमिहीन मजदूरों की संख्या भी अधिक न थी और जहाँ तक हमारे उद्योग-धंधों के लिए व्यापारी पूँजी का सवाल है, यह विवादग्रस्त विषय है। फिर भी, मैंने अपने उस इतिहास के मार्क्सवादी सह-विद्यार्थी से पूछा कि यह तमाम तथ्य जो उसने गिनाए ये इंग्लैण्ड या पश्चिम योरप के अन्य देशों में सुलभ थे और भारत में क्यों नहीं थे। इसका उसके पास कोई जवाब न था।
तब हेगेलवादी से इस प्रश्न का उत्तर खोजने को कहा गया, और उसने जो कुछ कहने की कोशिश की वह इतिहास की आत्मा के बारे में, और कहा कि किसी कारण से इतिहास की आत्मा उस समय भारत के पक्ष में न थी कि वह विदेशी-आक्रमण के बचाव कर सकता और लोग भी थके हुए थे। लेकिन वह भी असंतोषजनक उत्तर था। इतिहास की दो प्रमुख विचार-धाराओं से, जो इतिहास की गति के सम्बन्ध में अन्तिम बातें या अन्तिम उत्तर देने का दावा रखती हैं, इस प्रकार के उत्तर अजीब थे। अवश्य ही मार्क्सवादी ने जहाँ तक लक्षण या चिन्हों का प्रश्न है, अच्छे उत्तर की कोशिश की थी, लेकिन इन लक्षणों के कारणों के सम्बन्ध में वह भी उतने ही अँधेरे में था जितना कि इतिहास की दूसरी विचारधारा को मानने वाला होता। यदि इस सवाल पर और अधिक जो जोर दिया जाता, तो मार्क्सवादी और हेगेलवादी दोनों ही अपने उत्तरों में शायद अधिक चतुराई, रुक्षता व कठोरता दिखाते। मराक्सवादी शायद कहता कि मानव-इतिहास ने कुछ खास रास्तों से चलकर ही मार्ग ढूँढ़ा है और यह तथ्य कि किन्हीं खास मौकों पर भारत को अन्य दूसरे देशों जैसा सुयोग या सुअवसर नहीं मिला, वह मानवता के लिए भी बहुत महत्त्व का सिद्ध नहीं हो सका। महत्त्वपूर्ण तथ्य की बात इतनी ही है कि प्रगति के तरीकों में मानवता ने क्रम से सीढ़ियाँ पार की हैं। उस विशेष अवसर पर पश्चिमी योरप, भारत से आगे बढ़ा और मैंने जो पूछा था वह उतने महत्व का प्रश्न न था। इसी तरह, हेगेलवदी संभवतः कहता कि भारत के लोगों की विशेष प्रतिज्ञा तत्त्वज्ञान, अराजकता और विचार के क्षेत्र में ही है। अराजकता, जो कुछ अवसरों परम मानवीय आत्मा और संगठन के बहुत बड़े नतीजो की प्राप्ति कराती है, और वहीं दूसरे अवसरों पर, विशेषकर जब लोग विश्व इतिहास में अपनी भूमिका अदा कर चुके होते हैं, और अपनी सृजनात्मक शक्तियों का व्यय कर चुके होते हैं तो उससे प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
इन उत्तरों ने किसी तरह ही हमें इतिहास की गति के सम्बन्ध में कोई सुराग नहीं दिया। प्रश्न अभी भी बना रहता है, कि ऐसा क्यों है कि कुछ विशेष लक्षण या बातों जो कुछ विशेष अवसरों पर प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, वही दूसरे अवसरों पर प्रभावहीन क्यों हो जाती है ? क्योंकि जो लोग इस सम्बन्ध में हमें नियम देने का दावा करते हैं या कुछ रोशनी डालना चाहते हैं कि अलग-अलग समय में मानव का विकास कैसे हुआ, उन्हें यह भी बताने को सामर्थ्यवान होना चाहिए कि लोगों और वर्गों का उत्थान और पतन क्यों होता है ? यदि इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, तो इतिहास के नियम की बात करना फिजूल है। लक्षणों या चिन्हों की बातें करना कारण बताना नहीं होता।
डॉ. लोहिया के चालीस साल के राजनीतिक जीवन में कभी उन्हें देश में सही माने में नहीं समझा गया। जब देश ने उन्हें समझा और उनके प्रति लोगों में चाह बढ़ी, लोगों ने उनकी ओर आशा की निगाहों से देखना शुरू किया तो अचानक ही वे चले गये। हाँ जाते-जाते अपना महत्त्व लोगों के दिलों में जमा गये।
लोहिया का महत्त्व !
उन्हें गये इतना समय बीत गया, देश की राजनीति में कितना परिवर्तन आ गया। फिर भी आज जैसे नए सिरे सो लोहिया की जरूरत महसूसस की जा रही है। यह तो भावी इतिहास ही सिद्ध करेगा कि देश में आए आज के परिवर्तन में लोहिया की क्या भूमिका रही है। लगता है कि लोहिया ऐसे इतिहास-पुरुष हो गए हैं, जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, उनका महत्व बढ़ता जाएगा।
किसी लेखक ने ठीक ही लिखा है- ‘‘डॉ. राममनोहर लोहिया गंगा की पावन धारा थे, जहाँ कोई भी बेहिचक डुबकी लगाकर मन को और प्राण को ताजा कर सकता है।’’ एक हद तक यह बड़ी वास्तविक कल्पना है। सचमुच लोहिया जी गंगा की धारा ही थे—सदा वेग से बहते रहे, बिना एक क्षण भी रुके, बिना ठहरे।
जब तक गंगा की धारा पहाड़ों में भटकती, टकरती रही, किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब मैदानी ढाल पर आकर वह धारा तीव्र गति से बहने लगी तो उसकी तरंगों, उसकी वेगवती धारा, उसके हाहाकार की ओर लोगों ने चकित हो कर देखा, पर लोगों को मालूम न था कि उसका वेग इतना तीव्र था कि समुद्र से मिलने में उसे अधिक समय न लगा। शायद उस वेगवती नदी को खुद भी समुद्र के इतने पास होने का अन्दाजा न था।
लगता है कि इतिहास-पुरुषों के साथ लोहिया का मन का बहुत गहरा रिश्ता था। ऐसे ही लोहिया के कुछ भावुक क्षण होते थे—राजनीति से दूर, पर इतिहास के गर्भ में जब वे डूबते थे, तो दूसरे ही लोहिया होते थे।
यह इस देश का, इस समाज का और आधुनिक राजनीतिक का दुर्भाग्य है कि महान चिन्तक इस संसार से इतनी जल्दी चला गया। यदि लोहिया कुछ वर्षों और जिन्दा रह जाते तो निश्चय ही सामाजिक चरित्र और समाज संगठन में कुछ नए मोड़ आ जाते। -ओंकार शरद