Thursday, 26 July 2018

मोब लिचिंग (भीड़ द्वारा हत्या ) (Mob Lynching)

Mob Lynching अर्थात भीड़ द्वारा हत्या . आजकल देश में 'मोब लिचिंग' नामक इस नये शब्द का प्रयोग काफी ज्यादा किया जा रहा है हालांकि इस देश की सांस्क्रतिक विरासत के नजरिये से यह शब्द बिलकुल मेल नही खाता है किन्तु फिर भी पिछले कई सालो से भीड़ द्वारा की जा रही अनेक हिंसात्मक घटनाओ से यह नया शब्द हमारी आधुनिक संस्क्रती के साथ जुड़ सा गया है . यदि देश के गौरवशाली इतिहास में झाँका जाए तो हमारी  संस्क्रति 'विश्व बन्धुत्व ' और 'वसुधैव कुटुम्बकम ' के उच्चकोटि के दर्शनो से युक्त रही है किन्तु आज संचार के माध्यमो के काफी व्यापक होने के कारण अनेक वैश्विक घटनाओं ने बाकी दुनिया के साथ -साथ हमारी संस्क्रती पर भी अपना काफी असर छोड़ा है . इन प्रभावों में अनेक अच्छाईयो के साथ -साथ थोड़ी - बहुत बुराइया भी शामिल होती है . इसलिए कभी पूरी दुनिया को विश्व शान्ति का अमर संदेश देने वाला भारत आज मोब लिचिंग के दुष्प्रभावो मे अब खुद ही कैद हो गया है .

अमेरिका में मोब लिचिंग के शिकार 



वास्तव में मोब लिचिंग शब्द की उत्पति दुनिया के सबसे प्राचीन लोकतान्त्रिक देश अमेरिका में मानी जाती है . ऐसा अनुमान है कि 'मोब लिंचिंग' शब्द का अविष्कार 2 अमेरिकियों चार्ल्स लिंच और विलियम लिंच के नाम पर 1782 ई के आस -पास हुआ होगा . कहा जाता है कि 1861 के अमेरिका में गृह युद्ध (सिविल वार ) के दौरान अश्वेत लोगो को श्वेत अमेरिकियों द्वारा मामूली अपराधो के लिए इस मोब लिचिंग से मार दिया जाता था . अनेक अफ़्रीकी नीग्रोस को श्वेत अमेरिकियों द्वारा भीड़ की शक्ल में फांसी पर लटका दिया गया था . यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में हत्या के शिकार ज्यादातर लोग अदालत तक भी नही पहुच पाते थे . वास्तव में मोब लिंचिंग का उद्देश्य भी यही था कि लोगो को अदालत में अपना पछ रखने से पहले ही मार दिया जाए . सम्भवतः यहाँ पर श्वेत अमेरिकी लोगो का एक वर्ग अश्वेतों पर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता था जिसके लिए उन्होंने मोब लिचिंग को ही अपना हथियार बनाया हुआ था . इस प्रकार इस मोब लिंचिंग शब्द के पीछे कही न कही अमेरिकी नस्लवाद की अवधारणा भी छिपी हुई है . 



देश में कुछेक भीड़ द्वारा जब कानून को अपने हाथ में लेकर किसी व्यक्ति को सजा दी गयी ,तो इसे मोब लिचिंग कहा गया . वास्तव में यह लोकतंत्र को भीड़तन्त्र में बदलने का एक असफल प्रयास है . हालाँकि यह भीड़ भी कई तरह की होती है . मसलन एक सामूहिक भीड़ प्राक्रतिक आपदाओ और किसी भी प्रकार के सामजिक और आर्थिक अन्याय से संघर्ष करने हेतु सशक्त विकल्प मानी जाती है तो दूसरी तरफ इसी भीड़ को यदि उन्माद से जोड़ दिया जाए तो फिर यह दंगा -फसाद और तोड़ -फोड़ के कार्यो में भी लिप्त हो जाती है . ऐसी भीड़ का कोई एक चेहरा नही होता है , इसलिए वास्तविक अपराधी को पकड़ना काफी दुष्कर होता है . देश में ऐसी भीड़ द्वारा कुछ लोगो को पीट - पीट कर भी मार दिया गया है .भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार ,"किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ही वंचित किया जाएगा ,अन्यथा नही ." इस प्रकार एक लोकतान्त्रिक देश में भीड़ द्वारा जारी ये हमले उसकी जनता की व्यक्तिक स्वतंत्रता और उसके मूल अधिकारों का हनन है .


मोब लिचिंग में प्राक्रतिक , विधिक और लोकतान्त्रिक नियमो का उल्लंघन होता है . उन्मादी भीड़ पीड़ित व्यक्ति की कोई बात नही सुनती और उसे अपना पछ भी नही रखने देती है . इस प्रकार यह भीड़ एक प्रकार की अतार्किक और अनैतिक हिंसा को जन्म देती है . देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली में सभी नागरिक देश के संविधान से बंधे हुए है इसलिए उन सभी से यह उम्मीद की जाती है कि वह कानून का पालन भी करेंगे . किन्तु यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया भी है तो उसे अदालत में कानून के अनुसार सजा मिलेगी . ध्यान रहे इस महान देश में प्रत्येक नागरिक को सुचना का अधिकार ही नही वरन अपने विचारो के स्वतन्त्रता की आजादी भी हासिल है . 

भारत में मोब लिंचिंग की पहली घटना नागालैंड के दीमापुर में वर्ष 2015 में बताई जाती है जिसमे एक बलात्कार के आरोपी को भीड़ द्वारा मार डाला गया था . किन्तु गौ -रछा के नाम पर मोब लिंचिंग तो अब काफी आम हो गयी है . एक रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2014 से लेकर 2018 तक लगभग 45 लोग मोब लिंचिंग के कारण अपनी जान से हाथ धो चुके है . वास्तव में, इस देश में इससे पूर्व भी भीड़ द्वारा सामूहिक होकर दलितों और पिछडो पर अत्याचार करने की सैकडो घटनाये हो चुकी है . अत : मोब लिचिंग जाती ,धर्म और नस्ल विभिन्न स्तरों पर अवसर देख कर करवाई जाती है और यह तो एक घोर विडम्बना ही है कि आज इक्कसवी सदी में भी देश के अंदर मात्र कुछ अफवाहों पर ही मोब लिचिंग की घटनाओं को अंजाम दे दिया जाता है . इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे पर सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने हेतु एक सशक्त कानून बनाने का निर्देश दिया है .


















Saturday, 21 July 2018

आर्य समाज और दयानन्द सरस्वती


आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूलशंकर ) ने 1875 में बंबई में की थी. दयानन्द जी की जन्मभूमि गुजरात थी . कहा जाता है आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील. इसलिए आर्य समाज को श्रेष्ठ और प्रगतिशील विचारधारा का समाज कहा जा सकता है . 


मूलशंकर जी के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गम्भीरता से सोचने पर विवश कर दिया . एक बार उनके बचपन में शिवरात्रि की एक घटना है. शिवरात्रि के दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर गया हुआ था. वहा सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वह जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे. किन्तु उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं. यह देख कर वह बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए.

इसी तरह अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वह  जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे. तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वह सत्य की खोज में निकल पड़े. फाल्गुन कृष्ण संवत्1875 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में एक नया मोड़ आया और उन्हें नया बोध प्राप्त हुआ . वह घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे. गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग आदि का विस्तृत अध्ययन कराया. इसके बाद दयानन्द जी ने देश भर में अनेक स्थानों की यात्रा की. उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई व अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ भी किए. दयानन्द तत्कालीन प्रचलित सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन करते थे , चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो. कहा जाता है कि दयानन्द 'स्वराज्य' के प्रथम सन्देशवाहक थे और 1857 की लड़ाई की प्रेरणा स्रोत भी . लोकमान्य तिलक और लाला लाजपत राय उनके मुख्य अनुयायी माने जाते है .








दयानन्द जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे संदेह होता है कि इसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार या कुछ हिन्दू चरमपंथियो की सांठ-गाँठ रही होगी . दयानन्द जी की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी. मान्यता है कि उन दिनों वह जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे. वहां उनके नित्य प्रवचन होते थे और यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह जी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुनते थे . एक बार दयानन्द जी राज महल में गए, वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक एक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप महाराज जसवन्त सिंह पर देखा. उन्हें यह उपयुक्त नही लगा अत: उन्होंने महाराज को उनके राजधर्म के बारे में समझाया . जिस पर महाराज ने भी बड़ी विनम्रता से उनकी यह बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए. इससे नन्हीं, दयानन्द जी के खिलाफ हो गई और उसने उनके रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया. किन्तु थोड़ी ही देर बाद दयानन्द जी के पास आकर उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और क्षमा मांगने लगी . उदार-हृदय दयानन्द जी ने उसे छमा कर राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए 500 रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न कर सके . इसके बाद जब दयानन्द जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में आ गया . उस चिकित्सक पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर दयानन्द जी को हल्का विष पिलाता रहा जिससे बाद में जब दयानन्द जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के एक अस्पताल में लाया गया किन्तु तब तक काफी विलम्ब हो चुका था और दयानन्द जी को बचाया नहीं जा सका. 


दयानन्द जी के सभी अनुयायी आर्य समाजी व शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे. आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढ़ंत एवं वेद विरुद्ध हैं. आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है. उसका ध्यान घर में किसी भी एकांत में हो सकता है. आर्य समाज ने छुआछूत व जातिगत भेदभाव का भी विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था. कहा जाता है 24 घंटे में 18 घंटे समाधि में रहने वाले योगिराज दयानंद ने लगभग 8 हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना की थी .अपने इस महाग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में दयानन्द जी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया था .


कहा जाता है कि भारत के 80 प्रतिशत स्वतन्त्रता सेनानी आर्य समाज को मानते थे . श्रेष्ठ और प्रगतिशील विचारो से युक्त होने के कारण शिरोल नामक एक अंग्रेज ने आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश को ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला करार दे दिया था . वास्तव में आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नयी चेतना का आरंभ किया था और समाज सुधार की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण रोल भी अदा किया था .

आर्य समाज के कमजोर होते ही देश में पाखंड ,झूठ और आडम्बरो का बोलबाला बढ़ता गया जिससे धर्म की आड़ में भ्रष्टाचार भी काफी फलता -फूलता गया . आज के दौर में दुनिया के सभी धर्म खुद को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने में लगे हुए है जिससे धार्मिक भ्रष्टाचार भी चरम पर है . धर्मो की इस प्रतिस्पर्धा ने उन्हें हिंसक होने को भी विवश कर दिया है . इन वैश्विक घटनाचक्रो से भारत भी अब अलग नही रहा . आज देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति उन सभी झूठी परम्पराओ को भी पाल -पोष रही है जिनके विरुद्ध दयानन्द के आर्य समाज ने अपनी आवाज बुलंद की थी . किन्तु अब तो हालत कुछ ऐसी हो गयी है कि आर्य समाजी स्वयम ही कट्टरपंथी हिंसक भीड़ के शिकार बन रहे है . समाज में भाईचारा समाप्त होता जा रहा है  और कभी देश के स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने वाले इन समाज सुधारक आर्य समाजियों के बलिदान और स्वराज के सपने भी धुंधले होते जा रहे है .