आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूलशंकर ) ने 1875 में बंबई में की थी. दयानन्द जी की जन्मभूमि गुजरात थी . कहा जाता है आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील. इसलिए आर्य समाज को श्रेष्ठ और प्रगतिशील विचारधारा का समाज कहा जा सकता है .
मूलशंकर जी के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गम्भीरता से सोचने पर विवश कर दिया . एक बार उनके बचपन में शिवरात्रि की एक घटना है. शिवरात्रि के दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर गया हुआ था. वहा सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वह जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे. किन्तु उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं. यह देख कर वह बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए.
इसी तरह अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वह जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे. तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वह सत्य की खोज में निकल पड़े. फाल्गुन कृष्ण संवत्1875 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में एक नया मोड़ आया और उन्हें नया बोध प्राप्त हुआ . वह घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे. गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग आदि का विस्तृत अध्ययन कराया. इसके बाद दयानन्द जी ने देश भर में अनेक स्थानों की यात्रा की. उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई व अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ भी किए. दयानन्द तत्कालीन प्रचलित सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन करते थे , चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो या ईसाई धर्म हो. कहा जाता है कि दयानन्द 'स्वराज्य' के प्रथम सन्देशवाहक थे और 1857 की लड़ाई की प्रेरणा स्रोत भी . लोकमान्य तिलक और लाला लाजपत राय उनके मुख्य अनुयायी माने जाते है .
दयानन्द जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे संदेह होता है कि इसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार या कुछ हिन्दू चरमपंथियो की सांठ-गाँठ रही होगी . दयानन्द जी की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी. मान्यता है कि उन दिनों वह जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे. वहां उनके नित्य प्रवचन होते थे और यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह जी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुनते थे . एक बार दयानन्द जी राज महल में गए, वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक एक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप महाराज जसवन्त सिंह पर देखा. उन्हें यह उपयुक्त नही लगा अत: उन्होंने महाराज को उनके राजधर्म के बारे में समझाया . जिस पर महाराज ने भी बड़ी विनम्रता से उनकी यह बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए. इससे नन्हीं, दयानन्द जी के खिलाफ हो गई और उसने उनके रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया. किन्तु थोड़ी ही देर बाद दयानन्द जी के पास आकर उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और क्षमा मांगने लगी . उदार-हृदय दयानन्द जी ने उसे छमा कर राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए 500 रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न कर सके . इसके बाद जब दयानन्द जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में आ गया . उस चिकित्सक पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर दयानन्द जी को हल्का विष पिलाता रहा जिससे बाद में जब दयानन्द जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के एक अस्पताल में लाया गया किन्तु तब तक काफी विलम्ब हो चुका था और दयानन्द जी को बचाया नहीं जा सका.
दयानन्द जी के सभी अनुयायी आर्य समाजी व शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे. आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढ़ंत एवं वेद विरुद्ध हैं. आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है. उसका ध्यान घर में किसी भी एकांत में हो सकता है. आर्य समाज ने छुआछूत व जातिगत भेदभाव का भी विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था. कहा जाता है 24 घंटे में 18 घंटे समाधि में रहने वाले योगिराज दयानंद ने लगभग 8 हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना की थी .अपने इस महाग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में दयानन्द जी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया था .
कहा जाता है कि भारत के 80 प्रतिशत स्वतन्त्रता सेनानी आर्य समाज को मानते थे . श्रेष्ठ और प्रगतिशील विचारो से युक्त होने के कारण शिरोल नामक एक अंग्रेज ने आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश को ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला करार दे दिया था . वास्तव में आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नयी चेतना का आरंभ किया था और समाज सुधार की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण रोल भी अदा किया था .
आर्य समाज के कमजोर होते ही देश में पाखंड ,झूठ और आडम्बरो का बोलबाला बढ़ता गया जिससे धर्म की आड़ में भ्रष्टाचार भी काफी फलता -फूलता गया . आज के दौर में दुनिया के सभी धर्म खुद को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने में लगे हुए है जिससे धार्मिक भ्रष्टाचार भी चरम पर है . धर्मो की इस प्रतिस्पर्धा ने उन्हें हिंसक होने को भी विवश कर दिया है . इन वैश्विक घटनाचक्रो से भारत भी अब अलग नही रहा . आज देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति उन सभी झूठी परम्पराओ को भी पाल -पोष रही है जिनके विरुद्ध दयानन्द के आर्य समाज ने अपनी आवाज बुलंद की थी . किन्तु अब तो हालत कुछ ऐसी हो गयी है कि आर्य समाजी स्वयम ही कट्टरपंथी हिंसक भीड़ के शिकार बन रहे है . समाज में भाईचारा समाप्त होता जा रहा है और कभी देश के स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने वाले इन समाज सुधारक आर्य समाजियों के बलिदान और स्वराज के सपने भी धुंधले होते जा रहे है .
No comments:
Post a Comment