(ओशो, अष्टावक्र: महागीता, भाग-1, प्रवचन-12)
मैंने सुना है, एक किसान परमात्मा से बहुत परेशान हो गया. कभी ज्यादा वर्षा हो जाए कभी ओले गिर जाएं, कभी पाला पड़ जाए कभी वर्षा न हो, कभी धूप हो जाए फसलें खराब होती चली जाएं, कभी बाढ़ आ जाए और कभी सूखा पड़ जाए . आखिर उसने कहा कि सुनो जी, तुम्हें कुछ किसानी की अक्ल नहीं, हमसे पूछो! परमात्मा कुछ मौज में रहा होगा उस दिन. उसने कहा, अच्छा, तुम्हारा क्या खयाल है? उसने कहा कि एक साल मुझे मौका दो, जैसा मैं चाहूं वैसा मौसम हो. देखो, कैसा दुनिया को सुख से भर दूं धन—धान्य से भर दूं!
परमात्मा ने कहा, ठीक है, एक साल तेरी मर्जी होगी, मैं दूर रहूंगा. स्वभावत: किसान को जानकारी थी. काश, जानकारी ही सब कुछ होती! किसान ने जब धूप चाही तब धूप मिली, जब जल चाहा तब जल मिला, बूंद भर कम—ज्यादा नहीं, जितना चाहा उतना मिला. कभी धूप, कभी छाया, कभी जल—ऐसा किसान मांगता रहा और बड़ा प्रसन्न होता रहा; क्योंकि गेहूं की बालें आदमी के ऊपर उठने लगीं. ऐसी तो फसल कभी न हुई थी. कहने लगा, अब पता चलेगा परमात्मा को! न मालूम कितने जमाने से आदमियों को नाहक परेशान करते रहे. किसी भी किसान से पूछ लेते, हल हो जाता मामला. अब पता चलेगा.
गेहूं की बालें ऐसी हो गईं, जैसे बड़े—बड़े वृक्ष हों. खूब गेहूं लगे. किसान बड़ा प्रसन्न था. लेकिन जब फसल काटी, तो छाती पर हाथ रख कर बैठ गया. गेहूं तो भीतर थे ही नहीं, बालें ही बालें थीं. भीतर सब खाली था. वह तो चिल्लाया कि हे परमात्मा, यह क्या हुआ? परमात्मा ने कहा, अब तू ही सोच, क्योंकि संघर्ष का तो तूने कोई मौका ही न दिया. ओले तूने कभी मांगे ही नहीं. तूफान कभी तुमने उठने न दिया. आंधी कभी तूने चाही नहीं. तो आंधी , अंधड़, तूफान, गड़गड़ाहट बादलों की, बिजलियों की चमचमाहट. तो इनके प्राण संगृहीत न हो सके. ये बड़े तो हो गए लेकिन पोचे हैं.
संघर्ष आदमी को केंद्र देता है. नहीं तो आदमी पोचा रह जाता है. इसलिए तो धनपतियों के बेटे पोचे मालूम होते हैं. जब धूप चाही धूप मिल गई, जब पानी चाहा पानी; न कोई अंधड़, न कोई तूफान. तुम धनपतियों के घर में कभी बहुत प्रतिभाशाली लोगों को पैदा होते न देखोगे—पोचे! गेहूं की बाल ही बाल होती है, गेहूं भीतर होता नहीं. थोड़ा संघर्ष चाहिए. थोड़ी चुनौती चाहिए.
*ओशो, अष्टावक्र: महागीता, भाग-1, प्रवचन-12*
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