डा अम्बेडकर के बाद दलित जनसमूह में सबसे बडा राजनैतिक कद यदि किसी अन्य राजनेता का है तो वह और कोई दूसरा शख्स नही बल्कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक काशीराम जी का है. कहा जाता है काशीराम जी ने अपना घर त्यागने से पहले परिवार के लिए एक चिट्ठी छोड़ दी थी जिसमे उन्होंने लिखा था, ‘अब कभी वापस नहीं लौटूंगा’, और वे सच में वापस कभी अपने घर नहीं लौटे. परिवार के सदस्यों की मृत्यु पर भी वे अपने घर नहीं गए. परिवार के लोग कभी लेने आए भी तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. इससे उनके काफी द्रढ़ निश्चयी होने का भी पता चलता है .
काशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पिर्थीपुर बुंगा ग्राम, खवसपुर,जिला रूपनगर पंजाब में हुआ था . 1958 ई में स्नातक की पढाई करने के बाद काशीराम जी ने डीआरडीओ से बतौर सहायक वैज्ञानिक के रूप में अपना कैरियर प्रारम्भ किया . यहा नौकरी करते हुए डा अंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुट्टी को लेकर हुए विवाद ने नौकरी से उनका मोह भंग कर दिया .इसके बाद कांशीराम जी ने अपनी नौकरी छोड़कर ख़ुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक देने का मन बना लिया . इसके संकल्प हेतु उन्होंने नौकरियों में लगे अनुसूचित जातियों -जनजातियों, पिछड़े वर्ग और धर्मांतरित अल्पसंख्यकों के साथ मिलकर 'बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लायीज फेडरेशन' (बामसेफ़) की स्थापना की.
कांशीराम दलितों के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव से काफी आहत थे . इसलिए वह दलित बिरादरी को डा अम्बेडकर और डा राम मनोहर लोहिया की सामाजिक समानता की विचारधारा तक लाना चाहते थे . वह दलितों के साथ होने वाले अपमान और शोषण बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. कहा जाता है कि एक बार कांशीराम रोपड़ जिले के एक ढाबे में गए थे . वहां उन्होंने खाना खा रहे कुछ ज़मींदारों को अपनी शेख़ी बघारते हुए सुना कि किस तरह उन्होंने खेतों में काम कर रहे दलितों को सबक सिखाने के लिए उनकी जम कर पिटाई की है. ये सुन कर कांशीराम का ख़ून खौल उठा और वो इतने गुस्से में आ गये कि उन्होंने एक कुर्सी उठाकर उसी से उन ज़मीदारों की पिटाई करनी शुरू कर दी .
समय के साथ -साथ राजनीति के अनुभवो से सीख लेते हुए सन 1981 में कांशीराम जी ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की शुरुआत की जिसे आज डीएस4 के नाम से भी जाना जाता है. इसी राह पर चलते हुए उन्होंने सन 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गठन कर दिया . कांशीराम कहते थे कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों की संख्या भारत की जनसंख्या की 85 फ़ीसदी है, लेकिन उनके ऊपर 15 फ़ीसदी सवर्ण जातियाँ सदियों से शासन कर रही हैं. इसलिए वह देश में बहुजन समाज को सत्ता में लाना चाहते थे . उन्हें पता था यह काम काफी मुश्किल है लेकिन असम्भव भी नही है . उनका मानना था कि लोकतंत्र में जिनकी संख्या ज़्यादा होती है उनको शासक होना चाहिए. इसीलिए उन्होंने एक नारा लगाया था 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी.' इसी तरह बहुजन की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने एक और नारा दिया था 'जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा'."
कांशीराम जी ने 1988 में इलाहाबाद से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा था .लेकिन इस उपचुनाव में उनकी हार हुई . किन्तु वह उस समय के कद्दावर नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे मज़बूत प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ़ 68000 से अधिक वोट करने में सफल रहे. राजनीति के माहोल में उन दिनों उन्ही की तरह इटावा से डा राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले और किसानो के नेता मुलायम सिह यादव भी काफी दिनों से संघर्षरत थे . समान विचारों और पिछडो का राजनैतिक वजूद बनाने की इच्छा ने दोनों नेताओ को 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सुनहरा अवसर प्रदान किया . काशीराम जी की बसपा ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन कर लिया . इस गठजोड़ ने इन दोनों पार्टियों को उत्तर प्रदेश में एक राजनैतिक जीवन प्रदान किया . उत्तर प्रदेश में समाजवादी नेता मुलायम सिह यादव बसपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपनी लोकसभा सीट इटावा से काशीराम को जिता कर पहली बार संसद तक पहुचाया .
काशीराम अपने सहयोगी मायावती को अपना उत्तराधिकारी मानते थे . इसलिए बसपा की कमान भी उन्होंने मायावती को दे दी . मायावती सख्त स्वभाव की मानी जाती है . काशीराम के साथ उनके रिश्तो पर काफी संशय बना रहा . मायावती के स्वभाव के कारण सपा और बसपा का साथ ज्यादा दिनों तक नही चला . फिर जिस मनुवाद के खिलाफ काशीराम आजीवन लड़ाई लड़ते रहे , उन्ही मनुवादी शक्तियों के गोद में बसपा बैठती रही . कभी दलितों और पिछडो की लड़ाई को अपना आराध्य मानने वाली बसपा मायावती की जिद के कारण मनुवादी कही जाने वाली भाजपा की सरकार ही बनवाती रही . अपनी खुद की पार्टी में काशीराम मूक दर्शक ही बने रहे .
एक बार प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने काशीराम जी से राष्ट्पति बनने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वह राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री बनना पसंद करेंगे. उनका मतलब स्पष्ट था कि राष्ट्रपति बन कर वह चुपचाप नहीं बैठना चाहते है .वह सत्ता का बंटवारा चाहते थे. जिसके लिए वह पंजाबी के गुरुकिल्ली शब्द का इस्तेमाल करते थे, जिसका अर्थ था सत्ता की कुंजी. उनका मानना था कि ताकत पाने के लिए सत्ता पर कब्ज़ा ज़रूरी है.
एक बार प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने काशीराम जी से राष्ट्पति बनने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वह राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री बनना पसंद करेंगे. उनका मतलब स्पष्ट था कि राष्ट्रपति बन कर वह चुपचाप नहीं बैठना चाहते है .वह सत्ता का बंटवारा चाहते थे. जिसके लिए वह पंजाबी के गुरुकिल्ली शब्द का इस्तेमाल करते थे, जिसका अर्थ था सत्ता की कुंजी. उनका मानना था कि ताकत पाने के लिए सत्ता पर कब्ज़ा ज़रूरी है.
साल 2003 में कांशीराम जी गंभीर रूप से बीमार हो गए. उस समय उनकी उत्तराधिकारी मायावती ने उनका ख़्याल रखा हालांकि इस पर काफी विवाद भी हुआ जब उन्होंने कांशीराम के परिवार वालों को उनसे मिलने नहीं दिया. उनके आखिरी दिन काफी बुरे रहे . एक बार जब वह ट्रेन से कही जा रहे थे तभी उनका ब्रेन हैमरेज हो गया. जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उन्हें स्मृतिलोप हो चुका था. वह लोगों को पहचान नही सकते थे. मायावती उन्हें अपने घर ले गईं. जिसका कांशीराम के भाइयों ने काफी विरोध किया और वो एक बड़ी लड़ाई में फंस गए. मायावती उन्हें अपने यहां रखना चाहती थीं और उनके परिवार वाले उन्हें अपने यहां ले जाना चाहते थे. बीमारी से जूझते हुए 9 अक्टूबर 2006 को वह इस संसार से विदा हो गये .
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