Thursday, 14 February 2019

कुम्भ

























भाषा में कलश को ही कुंभ कहा जाता है और कुंभ का अर्थ होता है घड़ा. कहा जाता है कि पवित्र नदियों के किनारे लगने वाले इस कुम्भ का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा हुआ है. प्रचलित कथाओ के अनुसार जब देवता-असुर अमृत कलश को एक- दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की 3 नदियों में गिरी थीं. इसलिए ऐसी मान्यता है कि जहां पर ये बूंदें गिरी थी उन्ही स्थानों पर ही कुंभ का आयोजन होता है.और इन 3 नदियों के नाम है:- गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा.

इन्ही धार्मिक कथाओ के अनुसार ही अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार 12 दिन तक युद्ध हुआ था. जिसे मनुष्यों के 12 वर्षो के समान बताया जाता हैं. इस गणित को आधार मानकर कुंभ भी 12 माने जाते हैं. जिसमे से 4 कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और 8 कुंभ देवलोक में होते हैं. अब देवलोक में तो वही स्नान कर पायेगा जो देवलोक जाने के लायक होगा . इसलिए बाकी के 8 कुम्भ हर किसी के बस में तो नहीं ही होंगे .

धर्मिक और आध्यात्मिक मान्यताओ से जुड़े इस कुम्भ ने एक मेले के रूप में अपना स्थान कब बना लिया ,यह कहना मुश्किल है .किन्तु इतिहासकारों के अनुसार इस मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का प्रसंगवश वर्णन किया गया है. हालाँकि समुद्र मंथन के काल और सम्राट हर्षवर्धन के काल के मध्य कुम्भ का वर्णन कही और क्यों नही है ,यह प्रश्न इतिहासकारों के शोध का विषय भी अवश्य होना चाहिए था .

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