सत्रहवी लोकसभा चुनाव के चौकाने वाले परिणाम आ चुके है . ये चुनाव परिणाम इतने विचित्र है कि सम्भवतः सत्ता और विपछ दोनों को ही ऐसे परिणामो की उम्मीद बिलकुल नही रही होगी . यह चुनाव परिणाम लगभग एकतरफा है जिनका झुकाव पूरी तरह से सत्ता पछ की तरफ है . सीटो के लिहाज से देश के लोकतंत्र में आज के जैसा कमजोर विपछ शायद कभी नहीं रहा होगा . बेहद महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश के लोकतंत्र में सत्ता पछ के साथ -साथ विपछ की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है अन्यथा सत्ता की निरंकुशता देश के लोकतंत्र का ही विनाश कर डालेगी . दुनिया के तमाम देशो में जहा कही भी अलोकतांत्रिक तानाशाही व्यवस्था ने राज किया है ,वहा सबसे पहले उसने विपछ को कमजोर किया है या फिर उसे पूरी तरह से समाप्त ही कर दिया है . सही मायनों में सत्ता और एक मजबूत विपछ दोनों ही किसी स्वस्थ लोकतंत्र की असली पहचान होते है . इसलिए एक जनप्रिय सरकार चुनने के साथ -साथ देश की जनता को एक मजबूत विपछ की भूमिका का भी सदैव ख्याल रखना चाहिए . आज भारत का लोकतंत्र दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र है . इसलिए यहाँ जब कभी आम चुनाव होते है तो पूरी दुनिया की नजर बनी रहती है और पूरी दुनिया के लोकतंत्रिक देशो में लोकतंत्र के प्रति एक अच्छा सकारात्मक संदेश देना हमारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है
लोकसभा चुनाव परिणामो से पूर्व मोदी सरकार के कई विवादास्पद फैसलो और जनता के बीच उसकी हिंसक छवि के कारण नरेंद्र मोदी जी के दुबारा प्रधानमन्त्री बनने की काफी कम सम्भावनाये बन रही थी . यहाँ तक कि उनकी पार्टी समेत समस्त विपछ भी नए प्रधानमन्त्री को चुनने की बात अक्सर कहता रहा था . किन्तु कड़े प्रतिरोधो के बावजूद भी नरेंद्र मोदी अपने दम पर दुबारा प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुचने में कामयाब रहे है और यह हैरतंगेज सफलता उनके और पार्टी के लिहाज से काफी अविस्मरणीय रहेगी . किन्तु उनकी पार्टी की इस एकतरफा जीत से देश के लोकतंत्र पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा , या इस जीत के क्या दूरगामी परिणाम होंगे ,इन मुद्दों पर भी बहस प्रारम्भ हो गयी है . वही संगठित विपछ के प्रयासों में आखिर कहा कमी रह गयी जो उसे देश की जनता ने इतनी बुरी तरह से नकार दिया है , ये सवाल भी अब पूछे जा रहे है .
मोदी सरकार की कार्यशैली
नरेंद्र मोदी गुजरात के 2002 के दंगो से अचानक चर्चा में आये थे जिसके बाद उन्हें कट्टर हिन्दू वादी भाजपा नेता के रूप में जाना गया . मुख्यमंत्री रहते हुए दंगो में उनकी कथित संलिप्तता से वह काफी विवादों में रहे . साल 2014 के लोकसभा चुनाव आते -आते वह राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के सहयोग से भाजपा की तरफ से प्रधानमन्त्री के सबसे बड़े दावेदार हो गये . अपनी कट्टर हिंदुत्व की छवि के कारण उन्होंने देश के हिन्दू जनमानस का विश्वास जीत लिया . तब दुनिया भर में चल रहा मुस्लिम आतंकवाद और देश के सेक्युलर नेताओ का ढुलमुल रवैया नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में चार चाँद लगा गया . अपने पूर्व प्रचारक को आगे बढाने में संघ ने अप्रत्यछ रुप से पर्दे के पीछे रह कर भरपूर सहयोग किया . उनकी पार्टी ने दिल्ली की कुर्सी तक पहुचने के लिए अनेक बड़े -बड़े लोक- लुभावन वादे जनता से किये . अनेक संस्थाओ ने दिन- रात प्रचार कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का दावेदार साबित कर दिया . इस प्रकार पुरे देश में एक मोदी लहर बन गयी और लोक सभा चुनाव के बाद मोदी देश के प्रधानमन्त्री भी बन गये . अपनी सरकार बनने के बाद उन्होंने सर्वप्रथम विदेश नीति पर ध्यान दिया और विदेश यात्राओ का सिलसिला शुरू किया . विदेशो से सम्बन्ध बनाने के चक्कर में वह लगे रहे और देश के भीतर की समस्याओ पर अपेछ्कृत कम ध्यान दिए . आलोचना होने पर उन्होंने स्वच्छ भारत जैसे बड़े कामो की शुरुआत की . 15 लाख देने के अपने वादे को जुमला बता कर बैंको में खाता खुलवाने का कार्य भी शुरू हुआ लेकिन तभी अचानक नोट बंदी का अदूरदर्शी फैसला बिना किसी तैयारी के ले लिया गया . जिससे जनता में गहरा असंतोष व्याप्त हो गया . इसके बाद मोब लिंचिंग , सीमा पर आतंकवाद , GST , बैंको का विलय , रेल दुर्घटनाए . रेल स्टेशनों का निजीकरण , लालकिले समेत कुछ ऐतिहासिक इमारतों को ठेके पर देना , बेरोजगारी , महंगाई , मिडिया पर अंकुश ,सर्जिकल स्ट्राइक , जम्मू -काश्मीर में बढ़ता आतंकवाद , कोर्पोरेट हस्तियों का देश के बैंको को चुना लगाना , अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण न होना , कश्मीर में पंडितो की घर वापसी न होना , राफेल विवाद आदि तमाम मुद्दों के कारण मोदी सरकार आलोचनाओं के केंद्र में आ गयी . लोकतंत्र की परिभाषा में ये सभी मुद्दे जनविरोधी साबित हुए और इससे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता दिनों दिन काफी कम होती गयी . उनकी पार्टी और मात् सन्गठन संघ द्वारा भी करवाए गये तमाम सर्वे से यह बाते मिडिया में लीक हुई थी. किन्तु इसके बावजूद प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और उनके भरोसेमंद पार्टी अध्यछ अमित शाह 2019 में पुनह अपनी सरकार बनाने के लिए जी -जान से लगे रहे . वास्तव में अपने कार्यकाल में उनकी पार्टी और सरकार देश भर में अपनी पार्टी की सरकार ही बनाने पर केन्द्रित रहे . उनकी सत्ता के प्रति इसी लोलुपता को देखते हुए विपछ को चुनावों में ख़ास तौर पर EVM में हेर -फेर का अंदेशा हो गया जिससे समस्त विपछ ने लोकसभा चुनाव बैलेट पेपर से करवाने की मांग की किन्तु इसे चुनाव आयोग द्वारा खारिज कर दिया गया . इसे सत्ता का दुरुपयोग ही कहना चाहिए कि मोदी सरकार के कार्यकाल में अनेक संवैधानिक संस्थाओ के साथ -साथ चुनाव आयोग की निष्पछ छवि भी धूमिल हुई .
विपछ की रणनीति
नरेंद्र मोदी के नेत्रत्व में सत्ता चला रहे NDA के खिलाफ अधिकांश विपछी दल UPA के साथ खड़े होने लगे थे . कुछ छेत्रीय दल अपने -अपने प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस के साथ गठ्बन्धन कर लोकसभा चुनाव को तैयार हुए . जिसमे उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा और बिहार में राजद -कांग्रेस के गठ्बन्धन काफी महत्वपूर्ण थे . सपा से अखिलेश यादव और बसपा से मायावती ने अपने -अपने परम्परागत दलित और पिछड़े वोटबैंक को एकजुट कर सामूहिक चुनौती दी तो बिहार में तेजस्वी यादव ने अपने पिता लालू यादव की विरासत को मजबूत किया . सही मायने में यह चुनाव हिंदुत्व बनाम सेक्युलर विचारधारा की लड़ाई भी थी . एक तरफ अहिंसा और सत्य के मसीहा महात्मा गांधी की विचारधारा थी तो दूसरी तरफ गोडसे को पूजने वाले तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा थी . इसी दौरान जेल में बंद लालू यादव को चुनाव के दौरान भी जमानत नही दी गयी . इसलिए कई मायनों में लालू यादव को 1975 का आपातकाल का दौर पुनह याद आ गया होगा . लेकिन सम्भवतः लालू के जेल में रहने से कुछ अन्य छेत्रीय दल के नेता भी भाजपा के दबाव में आ गये और उसके खिलाफ आक्रामक चुनाव प्रचार बिलकुल नही कर पाए . यह बात भाजपा के लिए काफी फायदेमंद साबित हुई . हालांकि प् बंगाल में ममता बनर्जी बिलकुल भी केंद्र के दबाव में नही आई और उनका टकराव वोट डालने तक जारी ही रहा .दछिन के कई नेताओ ने तीसरे मोर्चे को जिंदा करने का प्रयत्न भी किया किन्तु विपछ के ज्यादातर नेता चुनाव परिणामो के बाद ही किसी गठ्बन्धन के फैसले पर पहुचना चाहते थे . इसके पीछे सम्भवतः उनकी कुछ महात्वाकान्छाये भी रही होंगी . लेकिन सही मायने में विपछ ने चुनाव पूर्व ही हथियार डाल दिए थे . ऐसा नही था कि जनता मोदी सरकार के खिलाफ आक्रोश में नही थी किन्तु समस्त विपछ सत्ता के खिलाफ आक्रामक ही नही दिखा और न ही उसने सत्ता को कभी उसके किसी जनविरोधी फैसले पर घेरने की कोशिश की . जबकि किसानो की आत्महत्या और कर्जमाफी समेत अनेक गरमा -गर्म मुद्दे ऐसे थे जिन पर पुरे देश में आपातकाल जैसा आन्दोलन भी खड़ा हो सकता था .
चुनावी प्रक्रिया
सात चरणों का यह लोकसभा चुनाव काफी लम्बा खिचने वाला चुनाव था . EVM के स्थान पर बैलेट पेपर से चुनाव की विपछ की मांग पर VVPAT का झुनझुना पकड़ा दिया गया . चुनाव के दौरान EVM मशीनों में कमल यानी भाजपा को ही वोट देने के सैकड़ो मामले पाए गये जिससे चुनाव प्रक्रिया सैकड़ो जगह बाधित हुई और आयोग की निष्पछता भी संदिग्ध हो गयी. चुनावी आचार संहिता के मध्य सत्ता पछ द्वारा उसका अनेक क्रिया-कलापों द्वारा बारम्बार विखंडन किया गया . इसके बावजूद चुनाव आयोग सत्ता के दबाव में ही नजर आया . वही एक चुनाव आयुक्त द्वारा आयोग में ही अपनी बात न सुने जाने का आरोप भी लगाया गया जिससे चुनाव आयोग से जनता और विपछ का विशवास भी कम हो गया . जनता को निष्पछ चुनाव के बजाय उस पर सरकारी मशीनरी का भेदभाव नजर आया जिसका सीधा असर मतदान का प्रतिशत पर पड़ा और वह कम हो गया . मतदान कम होने का नुक्सान विपछ को उठाना पड़ता है क्योकि अक्सर यह माना जाता है कि ज्यादा मतदान तभी होता है जब सत्ता के परिवर्तन हेतु जनादेश होता है .
चुनाव परिणाम
चुनाव परिणाम से पूर्व एक्जिट पोल जब मीडिया में आये तो उसमे भाजपा को अभूतपूर्व सफलता दिखाई गयी . लगभग सभी मीडीया चैनेलो ने भाजपा के नेत्रत्व वाले गठ्बन्धन को 350 सीटो के आस -पास दिखाया . विपछ के साथ -साथ 5 साल से आक्रोशित जनता को ये एक्जिट पोल बिलकुल हजम नही हुए , उन्होंने इसे मीडिया पर सत्ता पछ का दबाव बताया . दरअसल विपछ को सत्ता के प्रति जनता में व्याप्त असंतोष पर काफी यकीन था . उसे यह भरोसा था कि नोट बंदी और बेरोजगारी से जूझ रही देश की जनता उनके पछ में वोटिंग जरुर करेगी . विपछ को जनता से यह पूरी उम्मीद थी कि वह जुमलो की बाते करने वाले लोगो को सबक जरुर सिखाएगी . किन्तु 23 मई के रुझान आते ही विपछ की यह गलतफहमी दूर हो गयी . चुनाव के परिणाम ठीक वैसे ही थे जैसे मिडिया के चैनेलो ने एक्जिट पोल में दिखाया था . ऐसे चुनाव परिणामो से पूरा विपछ ही नहीं देश की करोड़ो जनता भी अवाक रह गयी .चुनाव परिणामो में शायद पहली बार ऐसा हुआ कि बिहार में लालू यादव जी की राजद और काश्मीर में महबूबा की पार्टी पी ड़ी पी को एक भी सीट नहीं प्राप्त हुई . आखिर ऐसा क्या हुआ जो देश की जनता ने पुनह नरेंद्र मोदी के पछ में प्रचंड जनादेश कर दिया . क्या उसके जुमले वाले अच्छे दिन आ गये थे ? नही बिलकुल नही . फिर ?
चुनाव परिणाम से पूर्व एक्जिट पोल जब मीडिया में आये तो उसमे भाजपा को अभूतपूर्व सफलता दिखाई गयी . लगभग सभी मीडीया चैनेलो ने भाजपा के नेत्रत्व वाले गठ्बन्धन को 350 सीटो के आस -पास दिखाया . विपछ के साथ -साथ 5 साल से आक्रोशित जनता को ये एक्जिट पोल बिलकुल हजम नही हुए , उन्होंने इसे मीडिया पर सत्ता पछ का दबाव बताया . दरअसल विपछ को सत्ता के प्रति जनता में व्याप्त असंतोष पर काफी यकीन था . उसे यह भरोसा था कि नोट बंदी और बेरोजगारी से जूझ रही देश की जनता उनके पछ में वोटिंग जरुर करेगी . विपछ को जनता से यह पूरी उम्मीद थी कि वह जुमलो की बाते करने वाले लोगो को सबक जरुर सिखाएगी . किन्तु 23 मई के रुझान आते ही विपछ की यह गलतफहमी दूर हो गयी . चुनाव के परिणाम ठीक वैसे ही थे जैसे मिडिया के चैनेलो ने एक्जिट पोल में दिखाया था . ऐसे चुनाव परिणामो से पूरा विपछ ही नहीं देश की करोड़ो जनता भी अवाक रह गयी .चुनाव परिणामो में शायद पहली बार ऐसा हुआ कि बिहार में लालू यादव जी की राजद और काश्मीर में महबूबा की पार्टी पी ड़ी पी को एक भी सीट नहीं प्राप्त हुई . आखिर ऐसा क्या हुआ जो देश की जनता ने पुनह नरेंद्र मोदी के पछ में प्रचंड जनादेश कर दिया . क्या उसके जुमले वाले अच्छे दिन आ गये थे ? नही बिलकुल नही . फिर ?
जनादेश समीछा
दरअसल जनादेश को समझने से पहले देश की जनता का मूड समझना काफी आवश्यक है . क्या देश की जनता सेक्युलर राजनीति से ऊब चुकी है लेकिन ऐसा तो बिलकुल नही था . इस देश की 'संस्क्रती और सभ्यता' में 'भिन्नता में एकता' का संदेश है . यहाँ के अनेक महापुरुषों ने तो 'वसुधैव कुटुम्बकम' की बात भी कही है . किन्तु वैश्विक आतंकवाद के बढ़ते हुए कदमो ने आज यहाँ भी धर्म पर आधारित विचारधाराओ को पुनर्जीवित कर दिया है . आज सभी धर्मो के ठेकेदार एक -दुसरे से खतरा बता रहे है . हालांकि भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच का टकराव आजादी के समय से ही होता रहा है . इसी टकराव से देश का विभाजन तक हो चूका है और पाकिस्तान का जन्म हुआ था . दरअसल आजादी के बाद खासतौर से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की हत्या के बाद से देश भर में मुख्य रूप से दो विचारधाराए चल रही है . एक महात्मा गांधी के विचारों के समर्थन में तो दूसरी उसके विरोध में . जब तक गांधी के सिद्धांत इस देश के कुछेक नेताओ में मौजूद रहे देश में धर्म निर्पेछ्ता और संविधान का राज चलता रहा . देश के लोकतंत्र को कोई खतरा नही रहा . किन्तु गांधी विरोधी मानसिकता (गोडसे ) इसके विपरीत चलती है . संघ और गोडसे से जुड़े सन्गठन धर्म (हिंदुत्व ) को केंद्र में रखकर ही आगे बढ़ते है .उन्हें भारत को हिन्दू राष्ट्र बना कर ही रहना है .लेकिन इस हिन्दू राष्ट्र बनने के बाद में बाकी धर्मो के लोग और उनके राज्य क्या प्रतिक्रिया देंगे, यह सोचा ही नहीं गया है . बमुश्किल खालिस्तान और उत्तर पूर्व के राज्यों में अलगाववाद की समस्या का हल हुआ है लेकिन काश्मीर का मुद्दा अभी भी एक बड़ी समस्या है . वास्तव में धार्मिक ध्रुवीकरण करना भाजपा की राजनीति का एक अहम हिस्सा है . धार्मिक ध्रुविकरन होते ही ज्यादातर हिन्दू एक हो जाता है जिसका लाभ मतदान में लिया जाता है . धार्मिक ध्रुवीकरण का दूसरा पहलु यह भी है कि इसके आगे देश की अन्य समस्याए भी एकदम गौण हो जाती है . जनता को बेरोजगारी, आतंकवाद, महंगाई जैसे मुद्दों से कोई सारोकार नही रह जाता है . राष्ट्रवाद के नाम पर जिन लोगो को भडकाया जाता है उन्हें देशभक्ति और राष्ट्रवाद में अंतर भी नहीं मालुम होता है . कुछ इसी प्रकार धर्म की ही तरह जाती का खेल भी यहां खूब चलता है . देश के सांस्क्रतिक जीवन मे मनुवादी विचारधारा का इतना अधिक बोलबाला है कि संविधान को बीच -बचाव में आना पड़ता है . जबकि देश का बाकी काम -काज सामान्य पिछड़ी दलित आदिवासी आदि जातियों में बंट कर ही सम्पन्न होता है .
दरअसल जनादेश को समझने से पहले देश की जनता का मूड समझना काफी आवश्यक है . क्या देश की जनता सेक्युलर राजनीति से ऊब चुकी है लेकिन ऐसा तो बिलकुल नही था . इस देश की 'संस्क्रती और सभ्यता' में 'भिन्नता में एकता' का संदेश है . यहाँ के अनेक महापुरुषों ने तो 'वसुधैव कुटुम्बकम' की बात भी कही है . किन्तु वैश्विक आतंकवाद के बढ़ते हुए कदमो ने आज यहाँ भी धर्म पर आधारित विचारधाराओ को पुनर्जीवित कर दिया है . आज सभी धर्मो के ठेकेदार एक -दुसरे से खतरा बता रहे है . हालांकि भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच का टकराव आजादी के समय से ही होता रहा है . इसी टकराव से देश का विभाजन तक हो चूका है और पाकिस्तान का जन्म हुआ था . दरअसल आजादी के बाद खासतौर से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की हत्या के बाद से देश भर में मुख्य रूप से दो विचारधाराए चल रही है . एक महात्मा गांधी के विचारों के समर्थन में तो दूसरी उसके विरोध में . जब तक गांधी के सिद्धांत इस देश के कुछेक नेताओ में मौजूद रहे देश में धर्म निर्पेछ्ता और संविधान का राज चलता रहा . देश के लोकतंत्र को कोई खतरा नही रहा . किन्तु गांधी विरोधी मानसिकता (गोडसे ) इसके विपरीत चलती है . संघ और गोडसे से जुड़े सन्गठन धर्म (हिंदुत्व ) को केंद्र में रखकर ही आगे बढ़ते है .उन्हें भारत को हिन्दू राष्ट्र बना कर ही रहना है .लेकिन इस हिन्दू राष्ट्र बनने के बाद में बाकी धर्मो के लोग और उनके राज्य क्या प्रतिक्रिया देंगे, यह सोचा ही नहीं गया है . बमुश्किल खालिस्तान और उत्तर पूर्व के राज्यों में अलगाववाद की समस्या का हल हुआ है लेकिन काश्मीर का मुद्दा अभी भी एक बड़ी समस्या है . वास्तव में धार्मिक ध्रुवीकरण करना भाजपा की राजनीति का एक अहम हिस्सा है . धार्मिक ध्रुविकरन होते ही ज्यादातर हिन्दू एक हो जाता है जिसका लाभ मतदान में लिया जाता है . धार्मिक ध्रुवीकरण का दूसरा पहलु यह भी है कि इसके आगे देश की अन्य समस्याए भी एकदम गौण हो जाती है . जनता को बेरोजगारी, आतंकवाद, महंगाई जैसे मुद्दों से कोई सारोकार नही रह जाता है . राष्ट्रवाद के नाम पर जिन लोगो को भडकाया जाता है उन्हें देशभक्ति और राष्ट्रवाद में अंतर भी नहीं मालुम होता है . कुछ इसी प्रकार धर्म की ही तरह जाती का खेल भी यहां खूब चलता है . देश के सांस्क्रतिक जीवन मे मनुवादी विचारधारा का इतना अधिक बोलबाला है कि संविधान को बीच -बचाव में आना पड़ता है . जबकि देश का बाकी काम -काज सामान्य पिछड़ी दलित आदिवासी आदि जातियों में बंट कर ही सम्पन्न होता है .
हार -जीत
यह बड़ी मशहूर सी बात है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है . इसलिए यहाँ की 80 सीटो में अपना परचम लहराने वाला ही देश के लोकतंत्र को चलाता है . उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा गठ्बन्धन को मात्र 5 और 10 सीटे प्राप्त हुई है जबकि उम्मीद यह थी कि इन्हें 55 - 60 सीटे मिलेंगी . लेकिन ऐसा नही हुआ . बड़ी अजीब बात है कि जिस गठ्बन्धन से उपचुनाव में उन्हें जीत मिली उसी गठ्बन्धन से उन्हें लोकसभा में एक बड़ी हार भी मिली . हालांकि अबकी बार कांग्रेस उनके साथ नही थी किन्तु कांग्रेस का कोई बड़ा जनाधार भी तो नही था . दरअसल सपा पिछले कई सालो से अपने अंदर की लड़ाई लड़ रही है . पार्टी ने राज्य में सत्ता में आने पर समाजवादी नायक डा राम मनोहर लोहिया के सिद्धांतो पर चलकर अनेक लोकप्रिय योजनाओं से जन कल्याण के कार्य भी किये है किन्तु फिर भी उसका प्रमुख वोटबैंक यादव ,मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग ही मुख्य तौर पर है . पिछडो में यादवो के राजनीति में उभरने से बाकी पिछडो में भी राजनैतिक जागरूकता हुई और एक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ . जो कि डा राम मनोहर लोहिया का महत्वपूर्ण स्वप्न था . अब थोड़े खाते -पीते पिछड़े लोग भी मुलायम सिंह यादव ,कल्याण सिंह या काशीराम के पदचिन्हों पर चलने को तैयार हुए . उनकी देखा -देखि उनके समुदाय के छोटे -मोटे लोगो ने भी की . लेकिन इसका दुखद पहलु यह भी रहा कि ये लोग मंडल कमिशन (आरछ्न ) का लाभ लेने के बजाय नेताओ के पीछे जिन्दाबाद -जिंदाबाद करने तक ही सीमित रह गये . लेकिन पिछड़े और दलित वर्ग की इस राजनीति ने बड़ी पार्टियों को कई सालो तक देश की मुख्य राजनैतिक धारा से काफी दूर कर दिया . अब बहुमत के बजाय गठ्बन्धन की परम्परा का जन्म हुआ . जिसके कारण उन्हें भी पिछडो को अपनी पार्टियों में लेना पड़ा . लेकिन ये पिछड़ा वर्ग भिन्न -भिन्न पार्टियों में जाकर अपने व्यक्तिगत लाभों को ध्यान में रखकर सामुदायिक विकास से पूरा दूर हो गया . इस प्रकार पिछडो और दलितों के वोट बैंको का बिखराव हो गया . वही दलितों में एक बात विशेष रूप से यह देखने को मिली कि उनका झुकाव संघ की मनुवादी विचारधारा की तरफ भी काफी ज्यादा हो गया . सम्भवतः ये लोग ऐसा संघ के गांधी विरोधी होने की मानसिकता के कारण वहा अपनी वैचारिक समानता देखते होंगे क्यों कि आज भी देश का एक बड़ा दलित वर्ग डा अम्बेडकर के खिलाफ महात्मा गाँधी के पूना पैक्ट का हवाला देकर उनसे नफरत रखता है . इधर आज की कांग्रेस , सपा और बसपा जैसी कई पार्टियों में जनता से जमीनी सम्पर्क का अभाव दिखता है . उनके पास मीडिया और सोशल मिडिया में अपने खिलाफ होने वाले दुष्प्रचार को रोकने का भी कोई माध्यम मौजूद नही है . इस लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की पार्टी की बड़ी जीत हुई है और समस्त विपछ के लिए वह अजेय से बन चुके है हालांकि उनकी इस जीत में अनेक लोकतान्त्रिक मूल्यों की हार भी हुई है . सही मायनों में देश में अब लोकतंत्र के चुनाव ने एक ऐसे युद्ध का रूप धारण कर लिया है जहा जीत के लिए सब कुछ जायज है .
यह बड़ी मशहूर सी बात है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है . इसलिए यहाँ की 80 सीटो में अपना परचम लहराने वाला ही देश के लोकतंत्र को चलाता है . उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा गठ्बन्धन को मात्र 5 और 10 सीटे प्राप्त हुई है जबकि उम्मीद यह थी कि इन्हें 55 - 60 सीटे मिलेंगी . लेकिन ऐसा नही हुआ . बड़ी अजीब बात है कि जिस गठ्बन्धन से उपचुनाव में उन्हें जीत मिली उसी गठ्बन्धन से उन्हें लोकसभा में एक बड़ी हार भी मिली . हालांकि अबकी बार कांग्रेस उनके साथ नही थी किन्तु कांग्रेस का कोई बड़ा जनाधार भी तो नही था . दरअसल सपा पिछले कई सालो से अपने अंदर की लड़ाई लड़ रही है . पार्टी ने राज्य में सत्ता में आने पर समाजवादी नायक डा राम मनोहर लोहिया के सिद्धांतो पर चलकर अनेक लोकप्रिय योजनाओं से जन कल्याण के कार्य भी किये है किन्तु फिर भी उसका प्रमुख वोटबैंक यादव ,मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग ही मुख्य तौर पर है . पिछडो में यादवो के राजनीति में उभरने से बाकी पिछडो में भी राजनैतिक जागरूकता हुई और एक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ . जो कि डा राम मनोहर लोहिया का महत्वपूर्ण स्वप्न था . अब थोड़े खाते -पीते पिछड़े लोग भी मुलायम सिंह यादव ,कल्याण सिंह या काशीराम के पदचिन्हों पर चलने को तैयार हुए . उनकी देखा -देखि उनके समुदाय के छोटे -मोटे लोगो ने भी की . लेकिन इसका दुखद पहलु यह भी रहा कि ये लोग मंडल कमिशन (आरछ्न ) का लाभ लेने के बजाय नेताओ के पीछे जिन्दाबाद -जिंदाबाद करने तक ही सीमित रह गये . लेकिन पिछड़े और दलित वर्ग की इस राजनीति ने बड़ी पार्टियों को कई सालो तक देश की मुख्य राजनैतिक धारा से काफी दूर कर दिया . अब बहुमत के बजाय गठ्बन्धन की परम्परा का जन्म हुआ . जिसके कारण उन्हें भी पिछडो को अपनी पार्टियों में लेना पड़ा . लेकिन ये पिछड़ा वर्ग भिन्न -भिन्न पार्टियों में जाकर अपने व्यक्तिगत लाभों को ध्यान में रखकर सामुदायिक विकास से पूरा दूर हो गया . इस प्रकार पिछडो और दलितों के वोट बैंको का बिखराव हो गया . वही दलितों में एक बात विशेष रूप से यह देखने को मिली कि उनका झुकाव संघ की मनुवादी विचारधारा की तरफ भी काफी ज्यादा हो गया . सम्भवतः ये लोग ऐसा संघ के गांधी विरोधी होने की मानसिकता के कारण वहा अपनी वैचारिक समानता देखते होंगे क्यों कि आज भी देश का एक बड़ा दलित वर्ग डा अम्बेडकर के खिलाफ महात्मा गाँधी के पूना पैक्ट का हवाला देकर उनसे नफरत रखता है . इधर आज की कांग्रेस , सपा और बसपा जैसी कई पार्टियों में जनता से जमीनी सम्पर्क का अभाव दिखता है . उनके पास मीडिया और सोशल मिडिया में अपने खिलाफ होने वाले दुष्प्रचार को रोकने का भी कोई माध्यम मौजूद नही है . इस लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की पार्टी की बड़ी जीत हुई है और समस्त विपछ के लिए वह अजेय से बन चुके है हालांकि उनकी इस जीत में अनेक लोकतान्त्रिक मूल्यों की हार भी हुई है . सही मायनों में देश में अब लोकतंत्र के चुनाव ने एक ऐसे युद्ध का रूप धारण कर लिया है जहा जीत के लिए सब कुछ जायज है .
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