1962 के भारत -चीन युद्ध ने उस दौरान भारत की सबसे कमजोर सैन्य रणनीति और तत्कालीन अदूरदर्शी राजनैतिक नेत्रत्व का अत्यंत दुखद अहसास करवाया था . तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु का पंचशील और 'हिंदी -चीनी भाई -भाई ' का सिद्धांत धरा का धरा रह गया और धोखेबाज चीन ने मौके का फायदा उठा कर भारत से विश्वासघात कर दिया था .इस विनाशकारी युद्ध के परिणाम देश की सेना ही नहीं वरन प्रधानमन्त्री नेहरु के लिए भी इतने घातक रहे कि वह इस अपमानजनक युद्ध के लगभग 2 साल बाद 1964 में ही परलोक चल बसे . हालाँकि ऐसा नहीं था कि उन्हें चीन से चल रहे सीमा विवाद और चीन की महात्वाकान्छाओ के बारे में किसी राजनेता ने चेताया नहीं था . कहा जाता है कि उस समय विपछ के प्रमुख नेता रहे डा राम मनोहर लोहिया ने भी चीन के नापाक इरादो के बारे में नेहरु जी को कई बार सचेत किया था किन्तु प्रधानमंत्री नेहरु अति आत्मविश्वास और 'हिंदी -चीनी भाई -भाई' की अपनी सोच से बाहर नहीं निकल सके.
लगभग 18000 फीट से ज्यादा की ऊंचाई वाले बर्फीले इलाके वाले इस युद्ध में चीनी सेना ने 20 अक्टूबर 1962 को पूर्व में तवांग एवं पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल स्थित रेजांग-ला पर सैन्य हमला किया था तथा भारी तबाही करने के बाद 20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की गयी थी . चीन की बड़ी सेनाओ (जिनमे 3 रेजिमेंट शामिल थी ) के सामने भारतीय फ़ौज की कम्पनियों की संख्या काफी कम थी . इस युद्ध का एक अहम पहलू यह भी था कि दोनों देशो ने अपनी वायु सेना का प्रयोग इस युद्ध में बिलकुल भी नहीं किया था . जबकि कुछ अमेरिकी सैन्य विश्लेषको के अनुसार भारत को अपनी वायु सेना का प्रयोग इस युद्ध में अवश्य करना चाहिए था .सम्भवतः 1962 के इस युद्ध में भारत की कमजोर स्थिति को भांपकर पाकिस्तान ने भी 1965 में भारत पर एक और आक्रमण करने का दुस्साहस कर डाला लेकिन उसे पहले की तरह ही फिर से मुह की खानी पड़ी थी . सैन्य विश्लेशको के अनुसार पाकिस्तान को इस युद्ध में चीन का परोछ समर्थन भी हासिल था .
1962 के इस बड़े युद्ध में देश को मिली हार के कारणों की जांच हेतु एक समिति बनाई गयी थी जिसका जिम्मा ले. जनरल हेंडरसन ब्रुक्स तथा इंडियन मिलिट्री एकेडमी के तत्कालीन कमानडेंट ब्रिगेडियर प्रेमिन्दर सिंह भगत को प्राप्त हुआ था .लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन ब्रूक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत ने 1962 के इस युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की और 1963 में इस जांच रिपोर्ट को प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ अन्य वरिष्ठ मंत्रियों को सौंप दिया था . किन्तु कहा जाता है कि यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट कभी भी सार्वजनिक नहीं हो पाई क्योंकि इस रिपोर्ट में तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु जी की लापरवाहियो की तरफ भी उंगलिया उठ रही थी . वास्तव में प्रधानमन्त्री नेहरु जी का सम्पूर्ण कार्यकाल कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ 1962 के इस युद्ध के कारण काफी आलोचना का विषय बन चूका है . दरअसल 1962 के इस युद्ध में मिली सैन्य विजय से चीन को भले ही कुछ लाभ हुआ था किन्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि एक विश्वासघाती राष्ट्र के रूप में भी बन गई थी . इससे दुनिया के अनेक देश चीन की सीमा विस्तार और साम्राज्यवादी सोच के प्रति सतर्क हो गये . हालाँकि भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन के खिलाफ इस विश्वासघाती कदम पर कोई बड़ा माहोल नहीं बना सका और चीन द्वारा कब्जाई गयी हजारो वर्ग किलोमीटर की अपनी जमींन को भी वापस नहीं पा सका था . उधर इस युद्ध से चीनी सेनाओ को कितना दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक लाभ हुआ इसका नजारा हाल -फ़िलहाल में तब नजर आया जब कुछ महीने पहले डोकलाम पर ढाई महीनों तक चले गतिरोध के दौरान चीनी सैनिको ने भारतीय सैनिको पर तंज कसा कि लगभग 4 -5 दशक पूर्व 1962 के युद्ध में उन्होंने उनकी क्या दुर्दशा की थी. लेकिन ये चीनी सैनिक तंज कसते हुए 1962 के ही चुशूल स्थित रेजांग ला के उस महत्वपूर्ण युद्ध को बिलकुल ही भूल गए थे जिसमे उनके हजारो सैनिको को 13 कुमायूं रेजिमेंट के 124 भारतीय सैनिको ने किस तरह गाजर –मूली की तरह काट डाला था .
दरअसल सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान 13 कुमायूं रेजिमेंट की चार्ली कम्पनी को चुशूल क्षेत्र में तैनात किया गया था. चुशूल चीनी सीमा से 15 किलोमीटर दूर हिमालय के पहाडो में लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा सा गाँव है. यह ऊंचे ग्लेशियरों से घिरा हुआ एक सुनसान पहाड़ी इलाका है जहां हर मौसम में लैंडिंग के लिए उपयुक्त एक हवाई पट्टी भी बनी हुई है. चुशूल घाटी के दक्षिण-पूर्व दिशा में कुछ मील की दूरी पर रेजांग ला नामक एक पहाड़ी दर्रा है, जो देश की सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है . 13 कुमायूं रेजिमेंट की अहीर चार्ली कंपनी को यही पर रेजांग ला में तैनात किया गया था जिसके जिम्मे चुशूल की इसी महत्वपूर्ण हवाई पट्टी की सुरछा थी . 13 कुमायू रेजीमेंट की इस अहीर चार्ली कम्पनी का नेत्रत्व मेजर शैतान सिंह कर रहे थे जिसमे मेजर शैतान सिंह और 2-3 जवानो के अतिरिक्त बाकी सभी सैनिक अहीर थे जो मुख्य रूप से हरियाणा और राजस्थान के आस -पास के निवासी थे . दरअसल 'अहीर' शब्द संस्कृत के 'अभीर' शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है "न डरने वाला' अर्थात निडर. इस असाधारण ऊंचाई वाले मोर्चे पर इन अहीर भारतीय सैनिको ने महत्वपूर्ण तरीके से अपनी पोजीसन ले रखी थी. सभी सैनिको ने वहा अच्छे मोर्चे बना लिए थे किन्तु उनके पास चीनी सैनिको को रोकने के लिए न तो कोई बारूदी सुरंग बिछाने का प्रबन्ध था और न ही कमांड पोस्ट की सुरक्षा हेतु उन्नत किस्म के हथियार ही उपलब्ध थे .
आखिरकार 17 -18 नवम्बर की वह रात्रि आ ही गई जब वहां का तापमान शून्य से 15 डिग्री सेल्सियस नीचे था. यह असाधारण एवं खून जमा देने वाली कड़ाके की ठण्ड थी. इसी दौरान रात्रि 10 बजे तेज बर्फीला तूफान आया जो लगभग 2 घंटे तक चलता रहा . इससे ठंड और ज्यादा बढ़ गयी . हमारे सभी भारतीय सैनिक मैदानी क्षेत्र से लाकर वहां तैनात किये गए थे जाहिर है वे सब इस तरह की बर्फीली ठण्ड में रहने के अभ्यस्त भी नहीं थे. इससे भी बड़ी समस्या यह थी कि इनके पास पहाड़ी-ठण्ड से बचने के लिए उपयुक्त वर्दी भी नहीं थी. 18 नवम्बर 1962 को रविवार का दिन था और देश में दीपावली का त्योहार भी मनाया जा रहा था . सारा देश जहा दीपावली का जश्न मना रहा था तब 13 कुमायु रेजिमेंट के अहीर चार्ली कम्पनी के ये मुट्ठी भर भारतीय सैनिक विषम परिस्थियों में प्राणों की बाजी लगाकर मातृभूमि की रक्षा के लिए खून की होली खेल रहे थे. अंततः सुबह 5 बजे पौ फटने से पहले चीनी सैनिको ने रेजांग ला की चौकी पर भीषण हमला कर दिया लेकिन वीर भारतीय सैनिको ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करते हुए उस हमले को विफल कर दिया. यह जबरदस्त लड़ाई कई घंटों तक चली और इसमें चीनी सैनिको को काफी नुक्सान हुआ था . उनके सैकड़ो सैनिक मारे गये और बहुत से घायल भी हुए थे . कहा जाता है कि भारतीय सैनिको की गोलीबारी से इस रणछेत्र की नालियाँ चीनी सैनिको की लाशों से भर गईं थी . इस हमले के विफल हो जाने पर थोड़ी देर बाद चीनी फ़ौज़ ने पुनह एक और जबरदस्त हमला किया, लेकिन इस बार भी उनका वही हश्र हुआ . इन 124 वीर भारतीय सैनिको ने चीन के इस हमले को भी विफ़ल कर दिया था .
अब तक दो बार मुह की खाने के बाद चीनी सेना ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और चारो ओर से भारी मशीन गन, मोर्टार, ग्रेनेड आदि के साथ भारतीय सैनिको पर भीषण हमला बोल दिया. किन्तु चीनी सेना को आगे बढ़ते हुए पिछले दो प्रयासों के दौरान मारे गये अपने ही सैकड़ो चीनी सैनिकों की लाशो पर से गुजरना पड़ा .भारतीय सैनिक चीनियों की अपेक्षा जहाँ संख्या में बहुत कम थे वहीं उनके हथियार और गोला बारूद भी अपेक्षाकृत कम उन्नत थे फ़िर भी वे बड़ी वीरता के साथ डट कर लडे. गोला बारूद समाप्त हो जाने पर भी भारतीय जांबाजो ने हार नहीं मानी . ये अपने मोर्चे और चौकियो से बाहर निकल आये तथा निहत्थे ही चीनी सैनिकों पर टूट पड़े. चीनी फ़ौज़ का जो भी सैनिक मिला उसे पकड़ लिया और चट्टान पर पटक - पटक कर मार डाला गया . इस प्रकार विषम परिस्थितियों मे प्राकृतिक बाधाओं के खिलाफ रेजांग-ला की इस लडाई मे भारतीय वीर जवान आखिरी गोली, खून की आखिरी बूँद और आखिरी सांस तक लडते रहे. युद्ध में इन वीरो की कंपनी के 124 में से 114 अहीर जवान शहीद हो गये थे . किन्तु इस लड़ाई में चीन की सेना का भी बहुत ज्यादा नुक्सान हुआ था.कहा जाता है कि इस लड़ाई में 114 वीर अहीर सैनिको ने अपने प्राणों की आहुति देते हुए चीनी सेना के लगभग 1300 सैनिको को मौत की नीद सुला दिया था .
13 कुमायूं रेजिमेंट की इस बहादुर कंपनी के इन 114 वीरों की याद में चुशूल से 12 किलोमीटर की दूरी पर एक स्मारक बनाया गया जिसमे सभी वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं जिसे 'अहीर धाम' के नाम से भी जाना जाता है . वास्तव में 1962 की इस लड़ाई में चीन के साथ युद्ध में भारतीय सेना को जहां कई मोर्चो पर हार का सामना करना पड़ा, वहीं लद्दाख के चुशूल सेक्टर में उसने ऐसा इतिहास रचा कि भारी प्रयासों के बाद भी चीनी सैनिक रेजांगला पर कब्जा नहीं कर पाए. प्रसिद्ध कवि प्रदीप और स्वर कोकिला लता मंगेशकर के गाये गीत ‘ए मेरे वतन के लोगो’ की पंक्ति ‘जब देश में थी दिवाली, वो खेल रहे थे होली, जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली’ रेजांगला के इन्ही वीर अहीर शहीदों को समर्पित कर लिखा गया था. किन्तु इस गीत की पंक्तियों में 'कोई सिख कोई जाट मराठा कोई गोरखा कोई मद्रासी' में इन वीर अहीरों का जिक्र कही नही हुआ, इससे अहीर समुदाय को काफी ठेस पहुची और वे अपने स्वाभिमान और वीरता की पहिचान के लिए सेना में 'अहीर रेजिमेंट' की मांग कर बैठे . दरअसल अंग्रेजो के समय से ही भारतीय थल सेना की लगभग सभी भर्तिया जाति /क्षेत्र और धर्म के आधार पर होती है .जैसे गढ़वाल रेजिमेंट में सिर्फ गढ़वाली ही भर्ती किये जातें हैं, डोगरा रेजिमेंट में सिर्फ डोगरा भर्ती किये जाते हैं , सिख रेजिमेंट में सिर्फ सिख भर्ती किये जाते हैं . इसी प्रकार जाट , राजपूत , महार , सिख लाइट इन्फेंट्री , मराठा , डोगरा नाम की रेजिमेंट जाति आधारित और राजपुताना राइफल्स, गढ़वाल राइफल्स , कुमाऊ , मद्रास आदि क्षेत्र आधारित रेजिमेंट हैं . एक प्रकार से यह भी जाती और धर्म आधारित आरक्षण ही है जबकि भारतीय सविंधान या किसी न्यायालय से सेना में ऐसे आरक्षण का कोई प्राविधान नहीं है . फिर भी यदि जाति आधारित यह व्यवस्था चल ही रही है तो इसमें अहीर समुदाय को समुचित प्रतिनिधित्व न दिया जाना इस बिरादरी के शहीदों और उनकी शहादत का भी घोर अपमान है . हरियाणा का अहिरवाल छेत्र तो सदियों से अहीरों की वीरता के किस्सों के लिए मशहूर रहा है . महाभारत के समय में भी यदुकुल शिरोमणि श्री क्रष्ण भगवान की नारायणी सेना ने युद्ध में अपने महान शौर्य का प्रदर्शन किया था . कहा तो यह भी जाता है कि अहीरों की वीरता के कारण प्राचीन समय में कई राज्यों के सेनापतियो का पद सिर्फ अहीरों के लिए ही आरक्षित रहता था . वर्तमान समय में अहीर रेजिमेंट की मांग दिनोदिन तेज होती जा रही है . अहीर समुदाय के अनेक नेताओ और सामाजिक कार्यकर्ताओ ने अपनी इस मांग को महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक पहुचाया हुआ है . जिसमे मुख्य रूप से राष्ट्रीय यादव संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंगलेश यादव भी शामिल है . इस मुद्दे की प्रासंगिकता के कारण अब कुछ राजनैतिक पार्टिया भी इसे अपने राजनैतिक एजेंडे में शामिल करती नजर आ रही है . 1962 का चीन युद्ध हालांकि देश के लिए एक बड़ी हार ही है किन्तु जिस प्रकार रेजांगला के इन 114 वीर सैनिको ने अपनी जान पर खेलकर चीन के हजारो सैनिको को मौत की नीद सुला दिया था , यह भारत के इतिहास में वीरता की एक अनुपम मिशाल भी है . चीन से लगती सीमा पर आज भी विवाद होता ही रहता है ऐसे समय में रेजांगला की यह शौर्य गाथा चीन के लिए एक सबक भी होनी चाहिए . 1962 के युद्ध के इन सभी वीर शहीदों के लिए साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहा जा सकता है कि , हजार बर्फ गिरे लाख आंधिया उड़े वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले है .
13 कुमाऊं रेजीमेंट के शौर्य व पराक्रम पर लिखा गया गीत ‘वो झेल रहे थे गोली’