दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.
अपने आखरी वक्त में अपने वतन यानि हिंदुस्तान की दो गज जमीन की चाह रखने वाला यह शख्स अबू जफर उर्फ़ बहादुर शाह जफर था . बहादुर शाह जफर मुग़ल वंश का आखरी शासक था . 11 मई 1857 का वह ऐतिहासिक दिन जब दिल्ली में तमाम विद्रोहियों ने लगभग 80 साल के हो चुके बहादुर शाह जफर से हिंदुस्तान का बादशाह बन कर अंग्रेजो को चुनौती देने की दरख्वास्त की तब वह उम्र के ऐसे पड़ाव में था कि उसके लिए यह फैसला लेना काफी कठिन रहा होगा . लेकिन फिर भी जफर ने विद्रोहियों की दरखास्त कबुल की और विद्रोहियों का लीडर बन गया . अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का नेत्रत्व लेते ही विद्रोह की क्रांति चारो तरफ आग सी फ़ैल गयी . इस विद्रोह में न मालुम कितने अंग्रेजो को मौत की नीद सुला दिया गया लेकिन यह लड़ाई इतनी आसान तो नही थी . बूढ़े शहंशाह जफर ने जान लिया कि ताकतवर अंग्रेजो के खिलाफ यह लड़ाई ज्यादा दिनों तक नही चल सकेगी .
अंततः वही हुआ , 19 सितम्बर 1857 को अंग्रेजी फ़ौज दिल्ली के लाल किले में पहुच गयी . कितनी अजीब विडम्बना थी कि इस अंग्रेज फ़ौज में सिख इन्फैंट्री के जवान थे .इन सिक्खों को देखकर बूढ़े शहंशाह को यह जरुर याद आया होगा कि ये वही सिक्ख है जिनके पुरखो गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्दसिंह के परिवार और उनके समर्थको को उसके खुद के पुरखो औरंगजेब वगैरह ने इस्लाम नही स्वीकारने के कारण मौत के घाट उतार दिया था . तो अब इन सिक्खों से क्या छमा याचना की जाए . इसलिए किसी प्रकार वह परिवार सहित लाल किले से बाहर निकल गया . इधर किले में घुसते ही अंग्रेज और सिक्ख सैनिको ने धुंआधार मार -काट कर डाली . लाल किले में शहंशाह बहादुर शाह जफर के नही मिलने से अंग्रेज अफसर हडसन ने आस -पास के इलाको की भी नाकेबंदी कर दी . जिसके बाद हुमांयू के मकबरे में परिवार सहित छिपे जफर को घेर लिया गया . दोनों तरफ से शर्ते रखी गयी और अंततः इस शर्त पर कि अंग्रेज बहादुर शाह जफर और उसके परिवार को अपमानित नही करेंगे , हिंदुस्तान के इस आखरी शहंशाह ने खुद को अंग्रेजो के हवाले कर दिया . लेकिन अंग्रेजो की जुबान कभी खरी नहीं थी सो बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया और उसके बेटो को अपमानित कर गोली मार दी गयी .
जफर पर अंग्रेजो ने मुकदमा चलाया . अदालत और जज दोनों अंग्रेजी थे सो फैसला भी अंग्रेजो के हक़ में होना था . अदालत में कहा गया कि बहादुर शाह जफर जो कि हिंदुस्तान का मुसलमान है , उसने दुनिया के अन्य मुसलमानों से मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत की है . इस तरह से बूढ़े जफर को दोषी करार दिया गया . अंग्रेज चाहते तो जफर को तुरंत गोली मारने की सजा दे सकते थे लेकिन उन्हें बाकी विद्रोहियों में भी खौफ भरना था . इसलिए उन्होंने एक बूढ़े शहंशाह को उसके वतन से दूर जेल में कैद रखने की सजा सुना दी . 7 अक्तूबर 1858 को यह खबर बूढ़े शहंशाह को सुना दी गयी लेकिन यह नही बताया गया कि कहा ले जाया जायेगा . इसके बाद उसे कलकत्ता होते हुए रंगून ले जाया गया जहा की एक कोठरी नुमा जेल में उसे कैद कर दिया गया .
यही कोठरी मुग़ल वंश के अंतिम शहंशाह और हिंदुस्तान की 1857 की क्रांति के लीडर रहे बहादुरशाह जफर की आखरी मंजिल साबित हुई . इस काली कोठरी में अपने जख्मो को याद कर बूढ़े जफर की आँखों का पानी सुख गया . असल में हिंदुस्तान के इस आखरी ट्रेजडी किंग को अपने आखरी वक्त में साथ देने के लिए कोई न मिला . अपने गमो को वह जेल की दीवारों पर अपने नाखुनो से लिखता गया और अपनी आखरी इच्छा को पूरा किये बगैर आज के दिन 07 नवम्बर 1862 को इस दुनिया से चला गया . अपने वतन की मिटटी में दफन होने के लिए दो गज जमींन की उसकी चाह अधूरी ही रह गयी . शायद दुनिया के इतिहास में ये पहला वाकया होगा जब एक शहंशाह को मौत के बाद उसके ही वतन की दो गज जमीन भी न मिल सकी . शंहशाह बहादुर शाह जफर को उसकी मौत के बाद रंगून में ही जेल की उसी कोठरी के पीछे दफना दिया गया , जहा वह अपने आखरी वक्त तक कैद था . आजादी के बाद आज भी उसकी कब्र हिंदुस्तान में अपने पुरखो की कब्र के बगल में दो गज जमींन मिलने से महरूम है .
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