सामान्यतौर पर व्रत और उपवास को एक ही अर्थ हेतु प्रयुक्त किया जाता है किन्तु आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से व्रत और उपवास में अंतर है . व्रत के बारे में धारणा है कि इंसान द्वारा किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु दिनभर के लिए निराहार अर्थात अन्न या जल या अन्य भोजन का त्याग व्रत कहलाता है. दुसरे शब्दों में किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है अथवा संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को भी व्रत कहा जाता है . वास्तव में उपवास करना व्रत का ही एक अंश है और इसे व्रत का एक संछिप्त रूप माना जाता है . प्रचलित मान्यताओ और आध्यात्मिक साहित्यों के अनुसार व्रत 3 प्रकार के होते है -नित्य, नैमित्तिक और काम्य.
जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी होता है उसे नित्यव्रत कहा जाता है. जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना आदि नित्यव्रत माने जाते हैं. इसी प्रकार किसी प्रकार के पातक (नरक में गिरानेवाला पाप ) के हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण (चंद्रमा की कलाओं के हिसाब से आहार को घटाने-बढ़ाने का व्रत ) स्वरूप जो व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत कहलाते हैं. तीसरा व्रत काम्य व्रत है जो किसी प्रकार की कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर संपन्न किए जाते हैं जैसे - पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने जो गोव्रत किया था वह काम्य व्रत है. हिन्दू धर्म में पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए पृथक् व्रतों का नियम भी देखने को मिलता है हालाँकि कुछेक व्रत दोनों के लिए समान है.
यदि व्रत के आचरण और तौर -तरीको की बात करे तो प्रत्येक व्रत के एक निश्चित समय भी निर्धारित किया गया है उदाहरणस्वरूप सत्य और अहिंसा व्रत का पालन करने का समय यावज्जीवन अर्थात जीवन भर माना गया है . उसी प्रकार कुछ अन्य व्रतों के लिए भी समय निर्धारित है. महाव्रत जैसे व्रत 16 वर्षों में पूर्ण होते हैं. वेदव्रत और ध्वजव्रत की समाप्ति 12 वर्षों में होती है. पंचमहाभूतव्रत, संतानाष्टमीव्रत, शक्रव्रत और शीलावाप्तिव्रत 1 वर्ष तक किया जाता है. अरुंधती व्रत वसंत ऋतु में होता है. चैत्रमास में वत्सराधिव्रत, वैशाख मास में स्कंदषष्ठीव्रत, ज्येठ मास में निर्जला एकादशी व्रत, आषाढ़ मास में हरिशयनव्रत, श्रावण मास में उपाकर्मव्रत, भाद्रपद मास में स्त्रियों के लिए हरितालिकव्रत, आश्विन मास में नवरात्रव्रत, कार्तिक मास में गोपाष्टमीव्रत, मार्गशीर्ष मास में भैरवाष्टमीव्रत, पौष मास में मार्तंडव्रत, माघ मास में षट्तिलाव्रत और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रि के व्रत प्रमुख हैं. तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, वार पर आश्रित व्रतों में रविवार को सूर्यव्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिवव्रत प्रमुख है .भक्ति और श्रद्धा की इच्छनुसार कभी भी किए जानेवाले व्रतों में सत्यनारायण व्रत प्रमुख है.
व्रत रखने का औचित्य मुख्य रूप से आध्यात्मिक ही है . प्राचीन काल में अक्सर ऋषि -मुनि ईश्वर साधना हेतु कठिन तप और व्रत रखते थे . इस दौरान वह निराहार रहते थे . कालान्तर में ईश्वर से पुन्य या इच्छा प्राप्ति हेतु की जाने वाली साधना व्रत के रूप में परिवर्तित हो गयी होगी . समय के साथ इसके तौर -तरीको में बदलाव आता रहा है . मसलन जब लोगो ने व्रत और उपवास हेतु निराहार रहने के स्थान पर कुछ खाने का विकल्प तलाशा होगा तो पुरोहितो ने फल -फूल का मार्ग बता दिया होगा . फल -फूल के पीछे सात्विक्क भोजन ग्रहण करने का उद्देश्य रहा होगा क्यों कि तामसी भोजन ग्रहण करने के पश्चात सात्विक विचारो का लोप हो सकता है . इसलिए हमारे भोजन का सम्बन्ध कही न कही हमारे विचारो और स्वभाव से अवश्य होता है . हालांकि आजकल तो किसी व्रत के लिए भोजन के रूप में अनेक प्रकार के फल से लेकर तमाम मिठाइया और कुट्टू या सिंघाड़े के आटे से बने व्यंजन भी उपलब्ध है .आज बहुत से लोग व्रत में साधारण नमक के स्थान पर सेंधा नमक का प्रयोग भी कर लेते है किन्तु कुछ साधक व्रत के कड़े नियमो का पालन करते हुए किसी भी नमक का प्रयोग अनुचित मानते है .ऐसे में प्रश्न उठता है कि कौन सही है और कौन गलत है ? क्या वास्तव में किसी व्रत से किसी प्रकार के भोजन का कोई सम्बन्ध होता है ? इसके उत्तर में एक घटना का सन्दर्भ इस प्रकार से लिया जा सकता है .
गौतम बुद्ध के जीवन पर लिखी एक किताब में उनके कठिन उपवास का जिक्र किया गया है. बुद्ध ने संबोधि पाने के लिए सालों तक कुछ नहीं खाया. इस प्रक्रिया के तहत उन्होंने शुरू में अन्न कम किया, फिर कुछ दिन फल खाए और उसके बाद वे भी छोड़ दिए. ऐसा उपवास करने से उनके पैर बांस जैसे पतले हो गए, रीढ़ की हड्डी रस्सी की तरह दिखाई देने लगी, सीना ऐसा हो गया जैसे किसी मकान की अधूरी छत हो और आंखें ऐसी धंस गई जैसे कुएं में पत्थर खो जाता है. कुल मिलाकर वे एक चलता-फिरता कंकाल बन चुके थे. फिर भी उन्हें वह ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ जिसकी तलाश थी. यह एक उदाहरण है जो बताता है कि सिर्फ खाना-पीना छोड़ देने से न भगवान मिलते हैं, न ज्ञान.
कुछ डाक्टरों के अनुसार भी भोजन का त्याग करने से शरीर में बीमारियों का जन्म हो सकता है , वही दूसरी तरफ कहा जाता है कि व्रत के दौरान भोजन त्यागने से शरीर के अंदर के हानिकारक पदार्थ बाहर निकल जाते है और शारीरिक अंगो को थोडा आराम मिलता है . जो भी हो आज व्रत और उपवास के स्वरूपों में काफी बदलाव आ चूका है . आज यह आध्यात्मिक कम और भौतिक ज्यादा नजर आते है . व्रत और उपवास करने वाले इन भक्तो की इस कमजोरी का फायदा बाजार और उनके मालिको ने भी खूब उठाया है जिसके कारण फलाहारी पिज्जा और बर्गर भी परोस दिए गये हैं. जाहिर है अब व्रत में श्रद्धा और संकल्प के स्थान पर खानापूर्ति और व्यवसाय भी चल रहे है .
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