Tuesday, 31 December 2019

नया वर्ष और धरती की सुरछा






दुनिया के इनवायरमेंट वैज्ञानिको ने वर्ष 2030 को प्रथ्वी के बिगड़ते वातावरण को दुरुस्त करने हेतु अंतिम समय सीमा निर्धारित की है . अर्थात 2030 के बाद धरती के वातावरण को की गयी हानि फिर कभी दुरस्त नही हो सकेगी . जिसके लिए कम से कम 2010 से प्रयास किये जाने चाहिए थे . किन्तु अफ़सोस दुनिया भर में इन 10 वर्षो में कागजी खाना पूरी के सिवाय कुछ नही किया गया . 

अब 2020 आने को है और ये आने वाले 10 साल हमारे लिए अंतिम अवसर है . प्रथ्वी के वातावरण के बिगड़ने का ही दुष्प्रभाव है कि आज मौसम की चाल -ढाल बदल रही है . असहय गर्मी और असहय ठंड के कारण तमाम जीवधारियो की जान निकल रही है . विकास के नाम पर चल रहा प्राक्रतिक दोहन और वैश्विक बाजार का कचरा धरती की सत्ता को चुनौती दे रहा है .

धरती पर रहने वाले प्राणियों किसी गफलत में मत रहिये , समय रहते यदि प्रथ्वी और पर्यावरण को सुरछित नही किया गया तो सबका अंत निकट है . नए साल की खुशियों में अपनी सामाजिक और प्राक्रतिक जिम्मेदारियों को भी याद रखिये . धन्यवाद .

सभी साथियों और शुभचिंतको को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाये .

Wednesday, 18 December 2019

प्रमुख राजनैतिक विचारक



























देश के राजनैतिक चिंतन और दर्शन में महात्मा गाँधी जी के बाद डा राम मनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का भी विशिष्ट योगदान माना जा सकता है .

गाँधी जी के सिद्धांत सत्य ,अहिंसा और विशवास थे . वे जिस कांग्रेस के नेत्रत्व कर्ता थे उसका सम्बन्ध आजादी के आंदोलन से जुड़ा रहा . वह इस कांग्रेस को राजनैतिक दल के रूप में देखने के विरुद्ध थे . किन्तु प्रधानमंत्री नेहरु ने राजनैतिक कांग्रेस को खड़ा किया और यह राजनैतिक कांग्रेस लगभग 70 साल तक सत्ता से जुडी रही . इन 70 सालो में कांग्रेस के क्रिया कलापों और महात्मा गाँधी जी की उपर्युक्त सोच पर आज एक व्यापक चिन्तन किया जा सकता है .

देश के दुसरे राजनैतिक चिंतक डा राम मनोहर लोहिया जी की बात करे तो वह आज भी इस देश के आधे से ज्यादा लोगो के लिए अनजान व्यक्तित्व है . किन्तु डा लोहिया इस देश के सर्वश्रेष्ठ मौलिक चिंतक , साहित्यकार ,दार्शनिक , इतिहासकार ,स्वप्नद्रष्टा , स्वतन्त्रता सेनानी और राजनैतिक चिंतक थे . वास्तव में वह राजनीति से आगे सामाजिक और आर्थिक मामलो के भी गूढ़ विशेषग्य थे . वह समस्त भेदभाव के खिलाफ थे और देश काल की सीमाओ से परे विश्व नागरिकता के द्रष्टा थे . उन्होंने महात्मा गाँधी और मार्क्स के विचारो का संगम करते हुए भारत के सन्दर्भ में समाजवाद की अवधारणा प्रस्तुत की . डा लोहिया देश के लिए एक नई संस्क्रति और सभ्यता के जन्मदाता थे किन्तु उनके विचार इतने प्रखर और मौलिक है कि सम्भवतः देश के लोग उन्हें आत्मसात नही कर पाए .कांग्रेस को राजनैतिक दल बनाने की जिस मुहीम का महात्मा गाँधी ने शांतिपूर्ण विरोध किया था , डा लोहिया उसी कांग्रेस शासित सरकार की गांधीवाद की व्यावहारिकता पर सवाल उठाते नजर आये . इसमें कोई संदेह नही कि उनके विचारो ने देश के लोकतंत्र को काफी वक्त तक संजीवनी दी .

तीसरे राजनैतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने चिन्तन में एकात्मवाद का विचार प्रस्तुत किया था . एकात्मता अर्थात अनेक विषमताओ पर समदर्शी विचार .उनका मानना था कि समाज और व्यक्ति में परस्पर संघर्ष पतन का कारण है और इससे संस्क्रति का हास होता है . एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटे को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी थी .

उनके अनुसार संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहते हैं कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है.दीनदयाल जी का मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा . भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी. उनके अनुसार विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं.

किन्तु 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय पंडित दीनदयाल जी की दुखद हत्या कर दी गयी .जिसकी गुत्थी आज भी अल्सुल्झी हुई है .

फिलहाल देश की राजनीति की दिशा आज जिस तरफ जा रही है , उस सन्दर्भ में इन तीनो महापुरुषों के प्रमुख विचारो को जानना बेहद आवश्यक हो गया है .