Saturday, 31 December 2016

लोकबन्धु राज नारायण


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राजनारायण का कलेजा शेर जैसा व आचरण महात्मा गांधी सरीखा है----डा राम मनोहर लोहिया 




'राज नारायण ' कितना साधारण सा लगता है ये एक आम भारतीय का नाम . लेकिन इस एक आम आदमी के असाधारण कारनामे सुन कर पैरो के नीचे से जमीन खिसक जाती है .जी हा ये वही लोकबन्धु राजनारायण है जिन्हें आज पूरा देश लगभग भूल चूका है. लोकबन्धु राजनारायण एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने अजेय समझी जाने वाली पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को भी रायबरेली के आम चुनाव में होने वाले भ्रष्टाचार पर कोर्ट के द्वारा  मात दी थी . 1971 में वह रायबरेली से लोकसभा का चुनाव सत्ता के इशारे पर इंदिरा गांधी जी से हार गए थे . जब कि राज नारायण जी को इस चुनाव में अपनी जीत का पूरा भरोसा था . कार्यकर्ताओ से जानकारी करने पर पता चला कि प्रधानमन्त्री के इशारे पर इस चुनाव में खूब धांधली हुई है सो उन्होंने इस चुनाव को रद्द करने के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनाव याचिका दाखिल कर दी , एक अजेय प्रधानमन्त्री के खिलाफ चुनावी हार के बाद अदालत में याचिका ....... लोग उन पर खूब हंसे. लेकिन जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का ऐतिहासिक फैसला आया, तो एक नया इतिहास बन गया. ये बेईमानी का चुनाव रद्द हो गया . दुबारा मतों की गिनती हुई और राजनारायण जी विजयी घोषित हुए . अपनी इस हार पर खीझ कर आयरन लेडी कही जाने वाली इंदिरा गांधी जी ने पुरे देश में आपातकाल लगा दिया .आगे इसी आपातकाल के फैसले के बाद लोकनायक जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में ऐसा जबर्दस्त उबाल आया कि देश में भूचाल आ गया था और लोकतंत्र ने तानाशाही को परास्त किया था .


ऐसे स्वभाव के फक्कड़ लोकबन्धु जी का जन्म २३ नवम्बर १९१७ को वाराणसी की मोतिकोट गाव में एक भूमिहार ब्राह्मण जमीदार परिवार में हुआ था व महाराजा चेत सिंह व बलवंत सिंह उनके वशंज थे जो त्यागी भूमिहार थे. उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एमए एलएलबी पास किया. परिवार के लोग उन्हें सरकारी अदालत में देखना चाहते थे पर राजनारायण जी को जनता की अदालत पसंद थी .एक जमीदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी वह जमीदारी सामंतशाही के सख्त खिलाफ थे .शिछा लेने के बाद उन्होंने आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. भारत छोड़ों आंदोलन में उनकी सक्रियता को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने उन पर 5 हजार रुपए का इनाम घोषित किया था. आजादी के बाद वे आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया की समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. 


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कुछ लोगो के अनुसार वह एक कबीरपंथी थे . सही मायने में वह एक समाजवादी नेता थे . क्रांतिकारी होने के साथ साथ वह एक महान समाज सुधारक भी थे . हरिजनों के मंदिरों में प्रवेश करने हेतु उन्होंने मुखर संघर्ष किया . राजनारायण जी के अनुसार भगवान् सबके है ,वह केवल ब्राह्मनो के ही नहीं है .काशी के विश्वनाथ मंदिर में पंडो के घोर विरोध के बावजूद उन्होंने जुलुस निकाल कर हरिजनों को मंदिर में प्रवेश दिलाया .हालांकि इस संघर्ष में काफी मार- पीट हुई थी . राजनारायण जी के दाढ़ी के बालो को भी पंडो द्वारा नोचा गया किन्तु राजनारायण जी जिस उद्देश्य को ठान लेते थे उसे पूरा कर के ही दम लेते थे . वे छुआ छुत जैसी कुप्रथाओं से समाज को मुक्त कराना चाहते थे . सही मायने में वे एक अछुतोद्धारक भी थे . 




१९४२ में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजी सरकार ने उनके ऊपर ५०००/- रूपये का इनाम घोषित कर दिया था .इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त वह कितने मुखर और प्रभावशाली क्रांतिकारी रहे होंगे. राजनारायण जी ने डा लोहिया की पार्टी " सोशलिस्ट पार्टी " से अपना नाता जोड़ा और समाजवादी आन्दोलन के प्रचार के लिए अपने साथियों के साथ पुरे देश में भ्रमण किया . वह मुम्बई भी गये . वहा रह रहे उत्तर भारतीयों को उन्होंने समझाया की छः एकड़ से कम के किसानो की लगान कांग्रेस सरकार से अगर माफ़ करवानी है तो इसे वोट न दे और समाजवादी पार्टी को वोट दे. उनका आन्दोलन जबरदस्त था .मुम्बई में समाजवादी पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली थी .असल में वह एक समता मूलक समाज की स्थापना चाहते थे . अन्याय से लड़ने को सदैव तत्पर रहते थे .वह समाजवाद के लिए पूर्णतया समर्पित थे और कहते थे कि जिसे अपना घर फुकना हो वो हमारे साथ आये यानी घर के नाम पर कोई बहाना नहीं चलेगा . वह अपने साथ गुड- चना रखते थे और जब भोजन का समय नहीं मिलता तो उसी गुड चने से ही अपना काम चलाते थे .उनके अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज्बा देख कर भ्रष्ट सरकारी अफसर भी उनसे कापते थे .


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देश को आजादी मिलने के बाद भी बनारस के बनिया बाग़ में ब्रिटेन की महारानी की मूर्ति स्थापित थी जो की देश की गुलामी की प्रतीक थी . उस मूर्ति को हटाने की बात से राजनारायण जी भी सहमत थे किन्तु सरकारी पुलिस से कौन भिड़ता . राजनारायण जी ने खुद इसे अंजाम देने का संकल्प किया . भारी पुलिस सुरछा के बावजूद वह जुलुस के साथ उस मूर्ति को तोड़ने निकले . पुलिस को चकमा देकर वे मूर्ति के पास पहुच ही गए . पुलिस उनके पीछे उन्हें पकड़ने की कोशिश जब तक करती तब तक लोकबन्धु जी ने धक्का मार कर पराधीनता की प्रतीक बनी उस मूर्ति को मिटटी में मिला दिया . लोकबन्धु जी गिरफ्तार हुए पुलिस ने डंडे भी चलाए पर इस क्रांतिकारी ने तो अपना आन्दोलन पूरा कर ही लिया था . बनारस में इसी स्थान को " लोकबन्धु राजनारायण पार्क " के नाम से जाना जाता है . 


भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में भ्रष्टाचार और अनियमितता का मुद्दा होने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर करने वाला वाक्या तो हर कोई जानता ही है . मुख्य न्यायधीश जगमोहन सिन्हा ने चुनावी भ्रष्टाचार में इंदिरा गाँधी को दोषी करार दिया था . इस मुकदमे में इंदिरा जी की हार हुई थी और राजनारायण जी की जीत .इसी हार से खीझ कर इंदिरा जी ने पुरे देश में आपात काल लगा दिया था . १९७५ में आपात काल में जेल से रिहा होने के बाद १९७७ में रायबरेली से ही राजनारायण जी ने भारी मतों से चुनाव जीता .


राजनारायण जी के व्यक्तित्व में हनुमान जी के समान तेज था. डा लोहिया के जीवित रहते उन्होंने कई ऐतिहासिक सत्याग्रह व आंदोलन किए थे. उदाहरण के लिए 956 में काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजन प्रवेश आंदोलन, अंग्रेजी हुकूमत की महारानी विक्टोरिया की काशी में लगी मूर्ति का भंजन आंदोलन, गरीबों को रोटी दिलाने के लिए विधानसभा में सत्याग्रह, जो जमीन को जोते-बोए, उसको जमीन का मालिक बनाने के लिए सत्याग्रह इत्यादि . डा लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी में लोकबन्धु जी प्रमुख नेता बन कर उभरे . मधु लिमये और मामा बालेश्वर जी के साथ इनकी अच्छी खासी जमती थी . जनता पार्टी की सरकार में लोकबन्धु को 'स्वास्थ्य मंत्री ' का कार्यभार सौपा गया . जिसे उन्होंने बड़ी ईमानदारी से निभाया . राजनारायण जी काफी सम्पन्न घराने से थे और उनके पास 800 बीघा जमीन थी लेकिन उसे भी उन्होंने दलितों में बांट दिया था .



लोकबन्धु बहुत ही संकल्पवान और गंभीर शक्शियत वाले थे .लखनऊ में एक बार एक सभा जिसमे डा लोहिया के साथ कई वरिष्ठ समाजवादी थे उसका संचालन करते हुए उनके लिए एक शोक संदेश आया , जो की उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपाल जी के निधन का था , तार में उनसे अविलम्ब घर आने को लिखा हुआ था . किन्तु वह दुखद सन्देश उन्हें देने की हिम्मत कोई नही कर पा रहा था . ये बात डा लोहिया को बतायी गयी . डा लोहिया ने वह तार उन्हें दिखाया और बनारस तु्रनत जाने को कहा . पर ये क्या ......लोकबन्धु जी ने वह तार अपनी जेब में रख लिया और सभा का संचालन करते रहे . कार्यवाही में कोई बाधा नहीं आने दी और न ही वे तनिक भी विचलित हुए . सभा विसर्जन के बाद उनसे लोगो ने शिकायत की ,आप गए क्यों नहीं ? ये सुन कर लोकबन्धु बोले ,” देश में रोज हजारो बच्चे मर रहे है ...कुछ भूख से ..कुछ बिमारी से मर रहे है ..उनकी म्रत्यु पर आप लोग तनिक भी दुःख नहीं करते ,मेरे लड़के के निधन पर आप लोग क्यों इतना दुखित हो रहे है ? क्या गरीबो के बच्चे ,बच्चे नहीं होते ? ये सुन कर लोग अवाक हो गए . वास्तव में लोकबन्धु एक लोह्पुरुष ही थे और जनमानस के बीच रमे हुए थे .वह डा लोहिया के बहुत ही नजदीक थे . डा लोहिया उन्हें शेर दिल और गाँधी जी की नीतियों पर चलने वाला शख्स कहते थे .वह लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में रहे . १९७७ से १९८० तक मोरार जी की सरकार में वह स्वास्थ्य मंत्री भी रहे .

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लोकबन्धु राजनारायण जी अपने सम्पूर्ण ६९ वर्ष के जीवनकाल में ८० बार जेल गए .उन्होंने कुल १७ वर्ष जेल में बिताए जिसमे से तीन वर्ष अंग्रेजी राज में और १४ वर्ष कांग्रेस राज में . राजनारायण आम जनता के नायक थे . वह समाजवाद को मानने वाले एक महान व्यक्तित्व थे . ३१ दिसम्बर १९८८ को डा राम मनोहर लोहिया अस्पताल ,नई दिल्ली में २३:५५ मिनट पर जब उन्होंने अपना शरीर त्यागा तो ये दुखद समाचार आग की तरह पुरे देश में फ़ैल गया . देश में शोक लहर व्याप्त हो गयी .किसान ,शिछ्क ,मजदुर ,वकील सभी अपना काम धंधा छोड़ कर वाराणसी उनकी शव यात्रा में पहुच गये . लगभग पूरा वाराणसी ही शव यात्रा में शामिल हुआ . जब ‘ मणिकारणिका घाट ‘ पर उनका अंतिम संस्कार हुआ तो चारो और ‘लोकबन्धु राजनारायण अमर रहे ‘ के नारे गूंज उठे .समाजवादी आन्दोलन के इस योधा की कहानी मिडिया बताये या न बताए पर उनकी चर्चा गावो में खेतो के खलिहानों ,चौपालों में ,आम जनमानस में लोक कथाओं की तरह सुनी सुनाई जाती है . राजनारायण जी के पीछे उनके तीन पुत्र श्री राधेमोहन जी , श्री जयप्रकाश जी ,श्री ओमप्रकाश जी है . 


डा राम मनोहर लोहिया उनके आदर्श व प्रेरणा, दोनों ही थे. उनके प्रखर समाजवादी विचारों को साकार करने में लोकबन्धु जीवनर्पयंत लगे रहे.  डा लोहया को अपना सब कुछ मानने वाले राजनीति के इस फक्कड संत लोकबन्धु के पास भी अपनी म्रत्यु के समय बैंक खाते में मात्र 1450 रुपए ही थे. देश में स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद भी राजनारायण धन -दौलत की जगह जनता के सेवक थे . लोकबन्धु का सम्पूर्ण जीवन लोकतंत्र की एक किताब है .लोकबन्धु जी के बारे में डा. लोहिया ने एक बार कहा था- उनका कलेजा शेर जैसा व आचरण महात्मा गांधी सरीखा है. अगर इस देश में 3-4 और राजनारायण मिल जाएं तो यहां कभी तानाशाही लागू ही नहीं हो सकती है.डा लोहिया कहते थे कि जब तक राजनारायण जिन्दा है तब तक इस देश में लोकतंत्र मर नही सकता है .


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राजनारायण बनाम इंदिरा गाँधी 
लोकबन्धु के बारे में मुलायम सिह जी के विचार

Saturday, 26 November 2016

आरती संग्रह

आरती श्री गणेश जी की 



जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ।
माता जा की पार्वती, पिता महादेवा ॥ जय गणेश देवा...

एकदन्त दयावन्त चार भुजाधारी
माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी ।।

अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया ।। जय गणेश देवा...

पान चढ़े फल चढ़े और चढ़े मेवा
लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा ॥

'सूर' श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ॥


आरती कुँज बिहारी की



आरती कुँज बिहारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥
गले में वैजन्ती माला। माला।
बजावे मुरली मधुर बाला। बाला।
श्रवण में कुण्डल झलकाला। झलकाला।
नन्द के नन्द। श्री आनन्द कन्द। मोहन बृज चन्द।
राधिका रमण बिहारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥ आरती कुँज…..
गगन सम अंग कान्ति काली। काली।
राधिका चमक रही आली। आली।
लसन में ठाड़े वनमाली। वनमाली।
भ्रमर सी अलक। कस्तूरी तिलक। चन्द्र सी झलक।
ललित छवि श्यामा प्यारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥ आरती कुँज…..
जहाँ से प्रगट भयी गंगा। गंगा।
कलुष कलि हारिणी श्री गंगा। गंगा।
स्मरण से होत मोह भंगा। भंगा।
बसी शिव शीश। जटा के बीच। हरे अघ कीच।
चरण छवि श्री बनवारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥ आरती कुँज…..
कनकमय मोर मुकुट बिलसै। बिलसै।
देवता दरसन को तरसै। तरसै।
गगन सों सुमन राशि बरसै। बरसै।
बजे मुरचन। मधुर मृदंग। मालिनि संग।
अतुल रति गोप कुमारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥ आरती कुँज…..

चमकती उज्ज्वल तट रेणु। रेणु।
बज रही बृन्दावन वेणु। वेणु।
चहुँ दिसि गोपि काल धेनु। धेनु।
कसक मृद मंग। चाँदनी चन्द। खटक भव भन्ज।
टेर सुन दीन भिखारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥ आरती कुँज…..

आरती जय अम्बे गौरी



जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुम को निस दिन ध्यावत, (मैयाजी को निस दिन ध्यावत)
हरि ब्रह्मा शिवजी। बोलो जय अम्बे गौरी
माँग सिन्दूर विराजत, टीको मृग मद को।
(मैया टीको मृगमद को)
उज्ज्वल से दो नैना, चन्द्रवदन नीको॥
बोलो जय अम्बे गौरी
कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर साजे।
(मैया रक्ताम्बर साजे)
रक्त पुष्प गले माला, कण्ठ हार साजे॥
बोलो जय अम्बे गौरी
केहरि वाहन राजत खड्ग कृपाण धारी।
(मैया खड्ग कृपाण धारी)
सुर नर मुनि जन सेवत, तिनके दुख हारी॥
बोलो जय अम्बे गौरी
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
(मैया नासाग्रे मोती)
कोटिक चन्द्र दिवाकर, सम राजत ज्योति॥
बोलो जय अम्बे गौरी
शम्भु निशम्भु बिडारे, महिषासुर धाती।
(मैया महिषासुर धाती)
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती॥
बोलो जय अम्बे गौरी
चण्ड मुण्ड विनाशिनी, शोणित बीज हरे।
(मैया शोणित बीज हरे)
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे॥
बोलो जय अम्बे गौरी
ब्रह्माणी रुद्राणी, तुम कमला रानी।
(मैया तुम कमला रानी)
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी॥
बोलो जय अम्बे गौरी
चौंसठ योगिन गावत, नृत्य करत भैरों।
(मैया नृत्य करत भैरों)
बाजत ताल मृदंग, और बाजत डमरू॥
बोलो जय अम्बे गौरी
तुम हो जग की माता, तुम ही हो भर्ता।
(मैया तुम ही हो भर्ता)
भक्तन की दुख हर्ता, सुख सम्पति कर्ता॥
बोलो जय अम्बे गौरी
भुजा चार अति शोभित, वर मुद्रा धारी।
(मैया वर मुद्रा धारी)
मन वाँछित फल पावत, देवता नर नारी॥
बोलो जय अम्बे गौरी
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती।
(मैया अगर कपूर बाती)
माल केतु में राजत, कोटि रतन ज्योती॥
बोलो जय अम्बे गौरी
माँ अम्बे (जी) की आरती, जो कोई नर गावे।
(मैया जो कोई नर गावे)
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पति पावे॥
बोलो जय अम्बे गौरी

श्री शिवजी की आरती



जय शिव ओंकारा, भज हर शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धाङ्गी धारा॥ जय शिव…..
एकानन, चतुरानन, पञ्चानन राजॆ।
हंसासन, गरुड़ासन, वृषवाहन साजॆ॥ जय शिव…..
दो भुज, चार चतुर्भुज, दशभुज अति सोहॆ।
तीनों रूप निरखते, त्रिभुवन मन मोहॆ॥ जय शिव…..
अक्षमाला, वनमाला, मुण्डमाला धारी।
चन्दन, मृगमद, चन्दा सोहॆ त्रिपुरारी॥ जय शिव…..
श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, ब्रह्मादिक, भूतादिक संगे॥ जय शिव…..
कर के मध्ये कमण्डलु, चक्र त्रिशूलधारी।
सुखकारी, दुःखहारी, जगपालन कारी॥ जय शिव…..
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित, ये तीनों एका॥ जय शिव…..
त्रिगुण शिवजी की आरती, जो कोई नर गावॆ।
कहत शिवानन्द स्वामी, मन वांछित फल पावॆ॥ जय

आरती ॐ जय जगदीश हरे



ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥ ॐ जय जगदीश
जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय जगदीश
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी॥ ॐ जय जगदीश
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥ ॐ जय जगदीश
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय जगदीश
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय जगदीश
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे।
करुणा हाथ बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय जगदीश
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय जगदीश


हनुमान जी की आरती



आरती कीजे हनुमान लला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरिवर काँपे। रोग-दोष जाके निकट न झाँके
अंजनि पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीरा रघुनाथ पठोये। लंका जारि सीय सुधि लाये॥
लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सँवारे॥
लक्ष्मन मूर्छित पड़े सकारे। आनि सजीवन प्रान उबारे॥
पैठि पताल तोरि जम-कारे। अहिरावन की भुजा उखारे॥
बायें भुजा असुर दल मारे। दहिने भुजा संतजन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारे। जै जै जै हनुमान उचारे॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई॥
जो हनुमान जी की आरति गावे। बसि बैकुंठ परमपद पावे

॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥


आरती श्री रामायण जी की 



आरती श्री रामायण जी की । कीरति कलित ललित सिय पी की ।।
गावत ब्रहमादिक मुनि नारद । बाल्मीकि बिग्यान बिसारद ।।शुक सनकादिक शेष अरु शारद । बरनि पवनसुत कीरति नीकी ।।1आरती श्री रामायण जी की........।।
गावत बेद पुरान अष्टदस । छओं शास्त्र सब ग्रंथन को रस ।।मुनि जन धन संतान को सरबस । सार अंश सम्मत सब ही की ।।2आरती श्री रामायण जी की........।।
गावत संतत शंभु भवानी । अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी ।।ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी । कागभुशुंडि गरुड़ के ही की ।।3आरती श्री रामायण जी की........।।
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी । सुभग सिंगार भगति जुबती की ।।दलनि रोग भव मूरि अमी की । तात मातु सब बिधि तुलसी की ।।4आरती श्री रामायण जी की........।।



आरती शनि देव जी की 






जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय..

श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय..

क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय..

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय..

देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥ जय..








Friday, 25 November 2016

जाति की चक्की - डा राम मनोहर लोहिया

जाति और योनि के वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं है।एक चीज खराब यह है कि नीची जाति वाला जब उठता है तो वह ऊँची जाति वाले की नकल करके उन्हीं के जैसा बनना चाहता है।छोटी जाति को उठाने के लिए सहारा देना पड़ेगा। जैसे हाथ लुंज हो जाने पर सहारा देते है और तब हाथ काम करने लगता है, उसी तरह इन नब्बे फीसदी दबे हुए लोगों को सहारा देना होगा, उस समय तक जब तक बराबरी में न आ जाए। इसीलिए, सोशलिस्ट पार्टी कहती है कि 100 में 60 ऊँची जगहें इनको दो जिनमें हरिजन, शूद्र, आदिवासी, जुलाहा, अनसार धुनिया, औरत बगैरह हैं। हिन्दुस्तान में हुकुमरानों और रियाया के बीच, वर्ग और जनता के बीच एकसानियत का लगभग पूरा अभाव है। हिन्दुस्तान की बुराइयों की जड़ में यही है। आज समूचे हिन्दुस्तान का सारा सामाजिक और आर्थिक जीवन जाति के ऊपर संगठित है। एक वृहद बीमा कम्पनी है-जाति प्रथा। जो निचली जातियां है, उनको मौका दो, गद्दी पर आने दो। जो भी हो जाति प्रथा को और विषम वास्तविकताओं को जिन पर यह प्रथा आधारित है, दोनों को नष्ट करने पर ही विश्वशान्ति स्थापित की जा रही है।


जाति को डा राम मनोहर लोहिया भारत को पीछे ले जाने वाले सबसे बडे उपादानों में मानते हैं और वे इस‍के लिये वे हिंदुस्‍तान के माहौल को ही एक हद तक दोषी मानते हैं. वह लिखते हैं -' हिंदुस्‍तान की हवा में यह सिफत है कि जब किसी उन्‍नतिशील चीज को सामने देखो, तो पहले उससे बहस करो फिर जब बहस में हार जाओ, तो फिर ऐसी सामाजिक अवस्‍था पैदा कर दो कि जीभ से सब कहें कि विधवा विवाह होना चाहिए, लेकिन दरअसल विधवा विवाह कोई करे नहीं. जीभ से सभी कहें कि जाति-पांति टूटनी चाहिए, लेकिन दरअसल जाति-पांत को तोडने का काम कोई करते नहीं.
जन्‍म - मरण, शादी - व्‍याह, भोज आदि की रस्‍में जाति के चौखटे में ही होती हैं. अंतरजातीय विवाहों का तमाशा भी बस उंची जातियों के मध्‍य देखने को आता है. विदेशी हमलों में भारत की लगातार पराजय को वे जाति व्‍यवस्‍था के परिणाम के रूप में देखते हैं. जाति ने भारत की नब्‍बे फीसदी आबादी को दर्शक बनाकर छोड दिया है, यहां आप तुलसी की पंक्तियां याद कर सकते हैं - कोउ नृप होंहि हमें का हानि. लोहिया लिखते हैं -' ... जो छोटी जातियां हैं उनका तो राजनीति से, हमले से स्‍वतंत्रता से मतलब ही नहीं रहा है. ... पलटनें आपस में लडती रहती हैं, लेकिन हिंदुस्‍तान का किसान तो अपना खेत जोतता रहता है.'

लोहिया आर्श्‍चय करते हैं कि ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता कि जब हार-जीत का फैसला हो रहा हो तब आबादी का अधिकांश वैरागी की तरह नाटक देखता हो. इसकी जड़ में वे जाति प्रथा को देखते हैं. वे लिखते हैं -' स्थिति बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है कि जाति-प्रथा एक कारण रहा है जिससे हिंदुस्‍तान की आबादी की बडी संख्‍या राजनीति से वैरागी रही है और वह लडी वगैरह नहीं.' कोई भी आकर हमें लूट जाए क्‍या मतलब. लोहिया लिखते हैं कि – ‘ कि जाति की आवश्‍यकताएं राष्‍ट की आवश्‍यकताओं से भिड जाती हैं. इस भिडंत में जाति जीत जाती है , क्‍योंकि विपत्ति में अथवा रोजमर्रा की तकलीफों में व्‍यक्ति की यही एकमात्र विश्‍वसनीय सुरक्षा है.लोहिया पाते हैं कि जाति ने कर्तव्‍य की भावना को ही नष्‍ट कर दिया है. और यह तबतक नहीं आएगी जब तक अधिकार की भावना नहीं आएगी.

जाति को एक माने में लोहिया विश्‍वव्‍यापी तत्‍व मानते हैं. पर भारत में वह जम गयी है जबकि अन्‍य जगह वह गतिशील है. उंची जातियां सुसंस्‍कृत पर कपटी हैं और छोटी जातियां थमी हुई और बेजान. और जिसे हम विदवता पुकारते हैं वह ज्ञान के सार की अपेक्षा बोली और व्‍याकरण की एक शैली मात्र है. 



नेहरू का उदाहरण देकर लोहिया बतलाते हैं कि जातिगत बाधाएं लोकप्रिय व्‍यक्ति को भी काम नहीं करने देतीं. क्‍योंकि जातिगत दबावों में वह कोई जोखिम नहीं उठा पाता. इस मामले में वे गांधी को याद करते हैं कि उनमें अपनी लोकप्रियता को जोखिम में डालने का माददा था. गांधी ने जाखिम उठाने को कई कम किए. गाय के बछडे को मौत की सूई दिलवा दी, एक बंदर को बंदूक से मरवा दिया, हरिजनों को मंदिर में ले गये, वे उन्‍हें शादियों में जाते थे जो अंतरजातिय होती थीं. उन्‍होंने तलाक को माना. हिन्‍दू उन्‍हें देशद्रोही मानते रहे पर उन्‍होंने पचपन करोड की रकम उन्‍हें दिलवा दी. वे संपत्ति के विरूदध सिर्फ बोलते ही नहीं थे बल्कि काम भी करते थे. लोहिया लिखते हैं कि गांधी – ‘ ऐसे किसी काम को करने से नहीं चूके जो कि देश में नई जान डालता, चाहे उस काम से उनको खतरा और अपयश ही क्‍यों न हो.लोहिया मानते हैं कि कुछ लोगों को नाराज किए बिना कभी कोई बडा काम नहीं होता.

यूं छोटी जातियों के पिछलग्‍गूपन से भी लोहिया परेशान रहते थे. उनका राजनैतिक आचरण उन्‍हें विचित्र लगता था. उनकी समझ में नहीं आता था कि वे अपने ही खिलाफ साजिश में उंची जातियों का साथ क्‍यों देते हैं. इसका एक साफ कारण वे यह बतलाते हैं कि –' उंची जाति को जाति से जितनी सुरक्षा मिलती है, उससे ज्‍यादा छोटी जाति को मिलती है पर, नि:संदेह जानवर से भी बदतर स्‍तर की. ' मतलब जातिवाद की जडें नीची जातियों में भी उसी तरह गहरी हैं. वे पाते हैं कि नीची जातियों के पास ऐसी ढेरों कहानियां हैं जो उनकी उस गिरी हालत की भी ओजस्‍वी और त्‍यागपूर्ण व्‍याख्‍या करती हैं. इस तरह की व्‍याखाएं हम डॉ.अंबेडकर तक में देख सकते हैं. इन कहानियों में उनका गौरवपूर्ण काल्‍पनिक अतीत होता है जिसमें कभी वे क्षत्रियों से भी ज्‍यादा बलशाली थे और अगर उन्‍हें क्षत्रिय धोखा नहीं देते तो आज वे इस हालत को नहीं प्राप्‍त होते.

लोहिया लिखते हैं - ' सैदधांतिक आधिपत्‍य की लंबी परंपरा ने छोटी जातियों को निश्‍चल बना दिया है, उनका राजनैतिक आचरण कुछ कम समझ में आता लगता है. यह धारणा बिल्‍कुल सही है. ...बुरे दिनों में भी जाति से चिपके रहना, पूजा दवारा अच्‍छे जीवन की कामना करना, रसम-रिवाज और सामन्‍य नम्रता उनमें सदियों से कूट-कूटकर भरी गई है. यह बदल सकता है. वास्‍तव में इसे बदलना चाहिए. जाति से विद्रोह में हिंदुस्‍तान की मुक्ति है....'

विदेशी शासन ने भी जातीय विभेद को बढाया ही. ब्रिटिश राज ने ' जाति के तत्‍व को उसी तरह इस्‍तेमाल किया जैसे धर्म के तत्‍व को. चूंकि भिडंत कराने में जाति की शक्ति धर्म के जितनी बडी न थी, इस प्रयत्‍न में उसे सीमित सफलता मिली.' लोहिया मानते हैं कि विदेशी शासन ने निश्चित तौर पर जातीय विभेद को बढाया पर इस विभेद की जमीन पहले से मौजूद थी. अंग्रेजी शासन तो हट गया पर जिन जातीय पार्टियों को उसने पैदा किया वे आज भी चल रही हैं. ' पश्चिम हिंदुस्‍तान की कामगारी, शेतकरी पक्ष और रिपब्लिकन पार्टी,दक्षिण हिंदुस्‍तान का द्रविड मुनेत्र कषगम और पूर्वी हिन्‍दुस्‍तान की झारखंड पार्टी के साथ-साथ गणतंत्र और जनता पार्टियां न सिर्फ क्षेत्रिय पार्टियां हैं बल्कि जातीय पर्टियां भी हैं.'

आदिवासी, महार, मराठा, मुदलियार और क्षत्रिय आदि जातियां इन पार्टियों का प्राण हैं. इस तरह क्षेत्रिय जातियों के दल बनने को लोहिया पसंद नहीं करते थे. चाहे वे जैसा भी क्रांतिकारी मुखौटा लगाकर आएं उनकी तोडने की क्षमता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लोहिया बताते हैं कि जिन मराठा, जस्टिस या अनुसूचित जातियों को अंग्रेज शासकों ने बहुत गंदे ढंग से इस्‍तेमाल किया अपने हित में उनके साथ भारतीय समाज ने दुर्व्‍यवहार किया था. सामान्‍यत: पीडित जातियां का विद्रोह शासक जातियों को रिप्‍लेस कर शांत हो जाता है पर इससे समस्‍या हल नहीं होती बस एक की जगह दूसरी जाति आ जाती है और जातिवाद वैसा का वैसा रह जाता है. लोहिया के शब्‍दों में - ' जाति प्रथा को समूचे भारत में नष्‍ट करने के बजाय, इस या उस जाति को उंचा उठाने के लिए ही दबी जातियों के विद्रोह को हमेशा और बार-बार बेजा इस्‍तेमाल किया गया.'

अपनी जातिविरोधी राजनीति को लोहिया इस तरह चलाना चाहते थे कि उंची जातियों को राजनैतिक सत्‍ता से वंचित किया जाए पर वे उन्‍हें आर्थिक और दूसरे प्रकारों की सत्‍ता से वंचित नहीं करना चाहते थे. वे मानते थे कि द्वेषपूर्ण बातें जाति समस्‍या की ठोस बात को धुंधला और कमजोर बना देती हैं. जाति प्रथा पर मैक्‍स वेबर जैसे प्रख्‍यात समाजशास्‍त्री के वक्‍तव्‍य को सामने रखते लोहिया बताते हैं कि उनके अनुमान पूरी तरह गलत साबित हुए हैं.

उनका कहना था कि योरोप शिक्षित हिंदुस्‍तानी भारत लौटकर जाति को खत्‍म कर देंगे. जबकि उंची जातियों से जाने के कारण इन विलायत पलटों ने जाति को और बढाया ही. विलायत का अर्थ लोहिया सिर्फ इंगलैंड नहीं बल्कि यूरोप लेते हैं. इन विलायत पलटों का आर्थिक आधार पर आकलन करते हुए लोहिया लिखते हैं -' ... अब तक जितने लोग यूरोप पढने गए हैं ...उनमें करीब 80-90 सैकडा ऐसे लोग मिलेंगे, जिनके पास खुद के पैसे हैं. ...पहले से ही उंची जाति और जब विलायत से पास करके लौटकर आते हैं तो उंची जाति में भी एक उंची जाति की सीढी बन जाती है.'

इसी तरह ब्राहमण ब्राहमण में भी लोहिया फर्क करते हुए लिखते हैं -' एक ब्राहमण है जो राज चलाता है , दूसरा शिव महाराज के उपर बेलपत्र चढाता है, दोनों में बडा फर्क है. वह बेलपत्र चढाने वाला सच पूछो तो छोटी जाति का हो गया, और जो नौकरी करता है, वह उंची जाति का हो गया. इसी तरह वे मुसलमान मुसलमान में भी फर्क करते हैं.

जाति समस्‍या का हल लोहिया यह मानते हैं कि समान अवसर की जगह उन्‍हें विशेष अवसर दिए जाएं. हजारों सालों के बडी जातियों के अत्‍याचार ने जो हालत निम्‍न तबकों की कर दी है उसे कुछ दशकों तक विशेष अवसर देकर ही सुधारा जा सकता है. पहले उन्‍हें बडी जगहों पर बिठाइए फिर उनमें योग्‍यता आ जाएगी. अक्‍सरहां लोग तर्क देते हैं कि पहले उन्‍हें योग्‍य बनाओ फिर उंची जगहों पर बिठाओ. लोहिया यहां याद दिलाना चाहते हैं कि -' यही तर्क अंग्रेज लोग दिया करते थे, जो गलत था.

लोहिया कहते हैं कि इस जातिव्‍यवस्‍था के टिके रहने का एक मुख्‍य कारण यह भी है कि उंची जातियों का बहुमत ज्‍यादातर नीची जातियों की पांत में आता है. पर उन्‍हें इसकी जानकारी नहीं और यह अनभिज्ञता ही इसके टिके रहने का करण है. वे बताते हैं कि सचमुच की उंची जाति के लोग मात्र पांच या दस लाख हैं ज‍ब कि झूठी उंची जाति के लोग आठ करोड हैं और नीची जाति के लोग तीस करोड हैं. जिन उंची जातियों की चर्चा लोहिया करते हैं, वे हैं -' बंगाली बडडी, मारवाडी, बनिए, कश्‍मीरी ब्रहमण, जो व्‍यापार अथवा पेशे के नेताओं को उगलते हैं.'

लोहिया बतलाते हैं कि जाति की चक्‍की केवल नीची जातियों को ही नहीं पीसती वह उंची जाति को भी पीसकर सच्‍ची उंची जाति और झूठी उंची जाति को अलग अलग कर देती है. उनके अनुसार सच्‍ची उंची जाति दिल्‍ली और अन्‍य राजधानियों में निवास करने वाले ब्राहमण , बनिए, क्षत्रिय और कायस्‍थ हैं जो कोट,कंठलंगोट, शेरवानी और चूडीदार पायजामा पहनती हैं. बनिया जाति के तेली, जायसवाल और पंसारी आदि को पोंगापंथी लोग शूद्र की कोटि में रखते हैं जबकि अच्‍छा खाता पीता थोक व्‍यापारी वैश्‍य बन गया.

आप देखें तो भारतीय इतिहास में थोक व्‍यापारी और पुजारी की हमेशा सांठ-गांठ रही है. इस सांठ-गांठ ने उन्‍हें ' द्विज और आधुनिक हिंदू समाज की उत्‍कृष्‍ट उच्‍च जाति बना दिया.' इसे लोहिया खुली धोखेबाजी बताते हुए कहते हैं कि -' पैसे और प्रतिष्‍ठा के जमाव के रूप के अतिरिक्‍त जाति और किसी रूप में प्रकट नहीं होती.' देखा जाए तो जाति पर बात करते हुए लोहिया कहीं भी उसके आर्थिक पहलू को अनदेखा नहीं करते. लोहिया मात्र शास्‍त्रों के आधार पर ही जाति का आकलन नहीं करते बल्कि समय के साथ आर्थिक रूप से ताकतवर हो जाने वाली जातियों को भी वे उंची जाति में गिनते हैं.

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जाति' शीर्षक से अपने लेख में वे लिखते हैं -' उन सभी को उंची जाति वाला मानें , चाहे हिंदू शास्‍त्रों के मुताबिक वे उंची जाति के हों या न हों, जो इस इलाके में कभी राजा रह चुके हैं या जो आज भी राजनीति के पलटाव में फिर से जनतंत्र में राजा बन रहे हैं जैसे रेडडी या वेलमा. वैसे वेलमा राजा नहीं बने हैं , लेकिन कभी रह चुके हैं. कुछ थोडा बहुत अपने धन के कारण कम्‍मा को भी उनमें शामिल किया जा सकता है.... मराठा, मुदलियार वगैरह को उंची जाति में शामिल कर लेता हूं , चाहे धर्म उन्‍हें करता हो न करता हो. यह इसलिये क‍ि उन्‍होंने रूपया पैदा करना शुरू किया या अब वे राजनीति में उंचे आने शुरू हुए हैं.'

आगे अहीर जाति‍ को भी लोहिया इसी में गिनना चाहते हैं पर उनमें वे जाति प्रथा के नाश का रूझान भी पाते हैं. लोहिया के बाद बाकी जातियों की तरह अहीर भी सत्‍तासीन हुए पर जाति के विनाश के उनके सपने के अनुरूप वे भी खरे नहीं उतर सके. इस तरह हम देखते हैं कि लोहिया ने अपने समय की तमाम जातियों के आर्थिक संदर्भों पर भी गौर किया है. ब्राहमणों की तुलना करते वे लिखते हैं -' ... किसके मुकाबले में वह ब्राहमण है. हिंदुस्‍तान का माला, मादीगा और कापू के मुकाबले में वह ब्राहमण है, लेकिन रूस और अमरीका के ब्राहमणों के मुकाबले में वह हरिजन है. वह हमेशा भीख मांगते फिरता है.'

लोहिया इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि शूद्रों की ऐसी जातियां जो तादाद में ज्‍यादा हैं वे लाकतंत्र और बालिग मताधिकार का फायदा उठाकर जब सत्‍ता में आती हैं तो इसका लाभ उंची जातियों की तरह अपने से नीची जातियों को नहीं देतीं. दक्षिण में मुदलियार और रेडडी और पश्चिम में मराठा आदि ऐसी ही जातियां हैं. वे अपने क्षेत्र की राजनैतिक रूप से मालिक हैं. लोहिया को भय है कि इन क्षेत्रों में उंची जातियां अपने सत्‍ता में वापिस आने के षडयंत्र में सफल हो सकती हैं क्‍योंकि 'जाति के विरूद्ध' बडी आबादी वाली नीची जातियों के 'आंदोलन थोथे' हैं. क्‍योंकि -' समाज को ज्‍यादा न्‍यायसंगत, चलायमान और क्रियाशील बनाने के अर्थ में वे समाज को नहीं बदलते'.

लोहिया जनतंत्र को संख्‍या पर आ‍धारित शासन मानते हैं और लिखते हैं -' ... सबसे ज्‍यादा संख्‍या वाले समुदाय राजनैतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्‍त कर ही लेते हैं.' इस तरह एक हद तक जनतंत्र जाति आधारित सत्‍ता को धीरे-धीरे संख्‍या आधारित सत्‍ता में बदल देता है. इस अर्थ में वे गोप और चर्मकार इन दो जातियों को 'वृहत्‍काय' बताते हैं और कहते हैं कि ये वैसे ही हैं जैसे द्विजों में ब्राहमण और क्षत्रिय. वे कहते हैं कि -' कोई भी आंदोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं, उसे थोथा ही मानना चाहिए. ... पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्‍व नहीं.'

रेडिडयों और मराठों की तरह अहीरों और चर्मकारों के आंदोलन की सीमा को इसी संदर्भ में वे देखते हैं. वे लिखते हैं -' संसद और विधायिकाओं के लिए उन्‍हीं के बीच से उम्‍मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं. और , व्‍यापार और नौ‍करियों में अपने हिस्‍से के लिये ये ही सबसे ज्‍यादा शोर मचाते हैं. इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं.' लोहिया देखते हैं कि इन चारों बडी जातियों के हो हल्‍ले में सैकडों नीची जातियां निश्‍चल हो जाती हैं.

उनके अनुसार -' जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्‍नति न कि सिर्फ एक तबके की उन्‍नति.' इसलिये लोहिया जातियों के आधार में परिवर्तन चाहते हैं. वे इस बात पर दुख जताते हैं कि -' उंची जाति पर पहुंचने के बाद , सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि उंची जाति में नहीं होता, बल्कि बिचली उच्‍च जाति में होता है. इसके अलावा उंचे उठने वाली नीची जातियां द्विज की तरह जनेउ पहनने लगती हैं, जिससे वे अब तक वंचित रखे गए, लेकिन जिसे अब सच्‍ची उंची जाति उतारने लगी है.

लोहिया, कोई भी जाति विनाशक आंदोलन जाति के नाश के लिए चाहते हैं न कि ब्राहमण और कायस्‍थ की बराबरी के लिये, उनके जैसा ही हो जाने के लिए. लोहिया लिखते हैं कि -' ऐसे थोथे आंदोलनों को रोकने का अब समय है.' लोहिया के आंदोलन का लक्ष्‍य है औरत, शूद्र, हरिजन, मुसलमान और आदिवासी. इन पांच समुदायों की योग्‍यता को नजरंदाज कर फिलहाल वे उन्‍हें नेतृत्‍व के स्‍थानों पर बिठाना चाहते हैं. यहां औरत में वे द्विज औरतों को भी शामिल किया जाना उचित मानते हैं.

लोहिया के अनुसार -' दबे हुए समुदायों को उंचा उठाने के धर्मयुद्ध से उंची जाति भी पुनरजीवित होगी और उससे सारे चौखट और मूल्‍य, जो आज बिगड गए हैं, ठीक हो जाएंगे.' लोहिया मानते हैं कि आज जैसे राजनीतिक दल वोट फंसाने के लिए नीची जाति के पंद्रह-बीस लोगों को जोड लेते हैं उससे काम नहीं चलने का आज सैकडों और हजारों लोगों को जोडने की जरूरत है. अपनी इस नी‍ती का मूल्‍यांकन करते हुए लोहिया कहते हैं इस प्रक्रिया में कई बाधाएं आएंगी और हो सकता है कि इससे एक ओर द्विज तो नाराज हो जाएं और शूद्र को प्रभावित होने में समय लगे. इसमें धैर्य और तालमेल की जरूरत होगी. नहीं तो आंदोलन की जरा सी भी असफलता को लेकर द्विज आंदोलनकर्ताओं पर बदनामी मढ सकते हैं और यह भी हो सकता है कि वृहत्‍काय अहीर, चर्मकार जैसी जातियां इस नीति के फल को नीची जातियों में बांटे बिना खुद ही चट कर जा सकती हैं. जिसका मतलब होगा कि ब्राहमण और चमार तो अपनी जगह बदल लेंगे पर जाति वैसी ही बनी रहेगी. ... नीची जातियों के स्‍वार्थी लोग अपनी निज की उन्‍नति करने के लिये इस नीति का अनुचति इस्‍तेमाल कर सकते हैं और वे लडाने-भिडाने और जाति के जलन के हथियारों का भी इस्‍तेमाल कर सकते हैं.' लोहिया इस मामले में सचेत हैं कि इस आंदोलन की आड में आर्थिक और राजनैति‍क समस्‍याओं को पृष्‍ठभूमि में ना ढकेल दिया जाए. कि -' अपने स्‍वार्थ साधन के लिये नीची जातियों के प्रतिक्रियावादी तत्‍व जाति-विरोधी नीति का बेजा इस्‍तेमाल कर सकते हैं..

मिसाल के लिए, पिछडी जाति आयोग की रपट ने, नीची जाति जिसकी दुहाई देती रहती है, जनता की बडी समस्‍याओं से कन्‍नी काट ली है,... उनकी ठोस सिफारिशों की संख्‍यां कुल दो है जिनमें एक अच्‍छी है और दूसरी खराब. पिछडी जातियों के लिये नौकरियों में सुरक्षा की उसने सिफारिश की है और यह सुरक्षा इस आयोग की ईच्‍छा से बढकर न्‍यायसंगत रूप में अनुपातहीन हो सकती है. लेकिन शिक्षा में भी ऐसी ही सिफारिश करके उसने गलती की है. स्‍कूलों और कालेजों में , अगर जरूरत हो तो, पिछडी जातियां दो या तीन पालियों कीं मांग कर सकती हैं, लेकिन हिंदुस्‍तान के किसी भी बच्‍चे को किसी शैक्षणिक संस्‍था के दरवाजे में घुसने न देने की मांग नहीं करनी चाहिए.'

लोहिया चेतावनी देते हैं कि आंदोलन की नीति ऐसे जहर उगल सकती है और इस मामले में अगर हम सचेत होकर लगातार काम करें तो ' हिंदुस्‍तान अपने इतिहास की सबसे ज्‍यादा स्‍फूर्तिदायक क्रांति से अवगत होगा.' लोहिया लिखते हैं -' कार्ल मार्क्‍स ने वर्ग को नाश करने का प्रयत्‍न किया. जाति में परिवर्तित हो जाने की उसकी क्षमता से वे अनभिज्ञ थे, लाजमी तौर पर हिंदुस्‍तान की जाति के सींकचों जैसे नहीं पर अचल वर्ग तो हैं ही. इस मार्ग को अपनाने पर पहली बार वर्ग और जाति को एक साथ नाश करने का एक तजुरबा होगा.'

इस जाति विरोधी आंदोलन को लोहिया किसी जाति को लाभ पहुचाने वाला आंदोलन ना मानकर राष्‍ट्र के नवोत्‍थान का आंदोलन बनाना चाहते हैं और उंची जाति के युवकों से आहवान करते हैं कि वे इस आंदोलन में छोटी जातियों के लिये ' खाद बन ' कर नयी रौशनी को फैलाने में सहायक बनें. लोहिया कहते हैं कि -' उन्‍हें उंची जातियों की सभी परंपराओं और शिष्‍टाचारों का स्‍वांग नहीं रचना है, उन्‍हें शारीरिक श्रम से कतराना नहीं है, व्‍यक्ति की स्‍वार्थोन्‍नति नहीं करनी है, तीखी जलन में नहीं पडना है, बल्कि यह समझकर कि वे कोई पवित्र काम कर रहे हैं, उन्‍हें राष्‍ट्र के नेतृत्‍व का भार वहन करना है.


डॉ॰ राममनोहर लोहिया (जन्म - मार्च २३, इ.स. १९१० - मृत्यु - १२ अक्टूबर, इ.स. १९६७) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी, प्रखर चिन्तक तथा समाजवादी राजनेता थे।)