Thursday, 13 April 2017

बाबा साहेब डा भीमराव (सकपाल )अम्बेडकर

बाबा साहब को हमारा देश सविधान निर्माता के रूप में भलीभांति जानता है . संविधान निर्माता डा. भीम राव अंबेडकर जी का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था. अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में जन्में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे. इसके कारण अम्बेडकर को बचपन से ही सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का शिकार होना पड़ा . कहा जाता है कि अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था.

डा अम्बेडकर प्रतिभाशाली छात्र थे किन्तु अस्पृश्यता के कारण उन्हें अनेक प्रकार की कठिनाइयो का सामना करना पड़ा . सन १९१३ में गायकवाड शासक ने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय मे जाकर अध्ययन के लिये भीमराव आंबेडकर का चयन किया एवं इसके साथ ही उन्हें ११.५ डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की. न्यूयार्क शहर में आने के बाद, डॉ॰ भीमराव आंबेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश मिल गया. यहां शयनशाला मे कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब मे रहने चले गए और फिर यहाँ उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया. १९१६ में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पीएच.डी. से सम्मानित किया गया.  इस शोध को अंततः उन्होंने 'इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया'  के रूप में एक पुस्तक में प्रकाशित किया. हालाँकि उनका पहला प्रकाशित कार्य , एक लेख जिसका शीर्षक, भारत में जाति : उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास है.  अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर अम्बेडकर सन १९१६ में लन्दन चले गये जहाँ उन्होने ग्रेज् इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया. अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर बीच मे ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ . बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये होने वाले भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आंबेडकर दुखी हो गये और अपनी ये  नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे.  उन्हें अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी. आखिरकार सन १९२०  में कोल्हापुर के महाराजा, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये. सन १९२३ में उन्होंने अपना शोध प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी (रुपये की समस्यायें) को पूरा कर लिया. इसके बाद उन्हें लन्दन विश्वविद्यालय से "डॉक्टर ऑफ साईंस" की उपाधि प्रदान की गयी और फिर कानून का अध्ययन पूरा होने के, साथ ही साथ उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश भी मिल गया.  भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा.  


बाबा साहेब अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये प्रथक निर्वाचिका  अर्थात  (separate electorates) और आरक्षण देने की भी वकालत की. दलितों और पिछडो के एक और मसीहा डा राम मनोहर लोहिया ने भी सदियों से समाज के इस कमजोर तबके को ऊपर उठाने हेतु आरछ्न देने की वकालत की .  समाजवादी नेता और बढ़ -चढ़ कर आजादी की लड़ाई लड़ने वाले डा लोहिया कहते थे , "छोटी जाति को उठाने के लिए सहारा देना पड़ेगा.  जैसे हाथ लुंज हो जाने पर सहारा देते है और तब हाथ काम करने लगता है, उसी तरह इन नब्बे फीसदी दबे हुए लोगों को सहारा देना होगा, उस समय तक जब तक बराबरी में न आ जाए.  इसीलिए, सोशलिस्ट पार्टी कहती है कि 100 में 60 ऊँची जगहें इनको दो जिनमें हरिजन, शूद्र, आदिवासी, पिछड़े , जुलाहा, अनसार धुनिया, औरत बगैरह हैं. हिन्दुस्तान में हुकुमरानों और रियाया के बीच, वर्ग और जनता के बीच एकसानियत का लगभग पूरा अभाव है और हिन्दुस्तान की बुराइयों की जड़ में यही सबसे प्रमुख है." डा अम्बेडकर ने सन १९२० ई में, बंबई से साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की.  यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया था . उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया,और  जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया. अब तक डा अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली थी और 'बहिष्कृत  हितकारिणी' नामक एक सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था. सन्  १९२६ में, उन्हें बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . उसके बाद सन १९२७ में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया.  उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया.  उन्होंने अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये आन्दोलन चलाया.


 डा अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया जहा पर महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये गये . इसी वक्त १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका 'बहिष्कृत भारत' शुरू की . 


डा अम्बेडकर ने अपने बचपन में ही तत्कालीन जाति का दंश झेला था . उन्हें स्कुल में अपनी क्लास के बाहर ही बैठना पड़ता था और पानी भी दूर से ही पिलाया जाता था . इसलिए निम्न जाति का भेदभाव उन्हें कचोटता रहता था . अत : उन्होंने उस वक्त मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की.  शायद इसीलिए वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गाँधी जी के आलोचक बन गये .  डा अम्बेडकर की भाँती समाजवादी महानायक डा राम मनोहर लोहिया भी समाज में प्रत्येक भेदभाव के खिलाफ थे . लोहिया समानता की बाते करते थे . उन्होंने पिछडो और अनुसूचित जातियों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव की तीव्र निंदा की .  डा लोहिया कहते थे जाति और योनि के वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं है.जाति की चक्की बड़ी निर्दयता से चलती है. अगर वह छोटी जातियों के करोड़ों को पीस देती है, तो ऊँची जाति को भी पीसकर सच्ची ऊँची जाति और झूठी ऊँची जाति में विभक्त कर देती है.  डा अम्बेडकर ने महात्मा गांधी पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया. हालांकि महात्मा गांधी ने भी सदैव भेदभाव समाप्त करने की ही बाते कही थी किन्तु डा अम्बेडकर महात्मा गांधी के नजरिये से असहमत ही दिखे . उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो.  उन्होंने कहा कि 'हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है. उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है.' इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की भी आलोचना की . उनकी आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उनको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया . डॉ॰ भीमराव आंबेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको तीनों गोलमेज सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया   उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई.   जब सवर्ण हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा तो डा अम्बेडकर का इस मुद्दे पर महात्मा गांधी के साथ विरोधाभाष न्यायोचित साबित हुआ .





डा अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया और इसके चलते अंबेडकर बंबई में ही बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं. इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई. रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी थी . अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही. भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया था . उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला. 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की. उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया. उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया .


डा अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो १९३७ में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें भी जीती. उन्होंने अपनी पुस्तक 'जाति के विनाश' भी प्रकाशित की, इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की है .

उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं. 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को कुछ यू लताड़ा......

हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा. एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?

देश के विभाजन के मुद्दे पर उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था. उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये. कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते. उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा. विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी. 

अपने क्रांतिकारी और समानतावादी विचारों के कारण डा अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था . 29 अगस्त 1947 को, डा अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया.  अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की काफी प्रशंसा अर्जित की.  अम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है. 
डा अम्बेडकर द्वारा तैयार किये गये संविधान ने संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया. डा अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की . 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया. अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, डा अम्बेडकर ने कहा :

'मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके. वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था.'

1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी. हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी. डा अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये.  मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे. 
सन् 1950 के दशक में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए सीलोन गये. पुणे के पास एक नया बौद्ध  विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे. 1955 में उन्होने 'भारतीय बौद्ध महासभा' या 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की. उन्होंने अपने अंतिम महान ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया. यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ था .  14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया.  डॉ॰ अम्बेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया . इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार पहले दिन लगभग 5,00,000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया. अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे सदैव के लिए त्याग दिया. उन्होंने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को नागपूर में अपने 2,00,000 अनुयायीओं को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, फिर तीसरे दिन 16 अक्टूबर को उन्होंने 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी.  इस तरह केवल तीन दिन में ही डा अम्बेडकर ने 10 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया.  


डॉ॰ भीमराव आंबेडकर द्वारा 10,00,000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था, उन्होंने 22 शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके. डा अम्बेडकर की ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं.  इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म, जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है. 

डा अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे. जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से भी ग्रस्त रहे . राजनीतिक मुद्दों से परेशान डा अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया. अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया. 7 दिसम्बर को डा अम्बेडकर का मुंबई में बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया. उनके अंतिम संस्कार के समय उन्हें साक्षी रखकर उनके करीब 10,00,000 अनुयायीओं ने एक साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, सम्भवतः ऐसा विश्व इतिहास में पहिली बार हुआ होगा . मृत्युपरांत अम्बेडकर के परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर रह गयी थीं जो, जन्म से ब्राह्मण थीं पर उनके साथ ही वो भी धर्म परिवर्तित कर बौद्ध बन गयी थीं. विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ॰ शारदा कबीर था. डॉ॰ सविता अम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में सन 2002 में मृत्यु हो गई, 1990 में डा अम्बेडकर को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया .






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