समाजवादी नायको की श्रंखला में एक प्रमुख नायक के रूप में श्री कर्पूरी ठाकुर जी का नाम जाना जाता है . कर्पूरी साहब का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहा जन्मतिथि लिख कर नही रखी जाती थी. कदाचित स्कुल के नामांकन में उनकी जन्मतिथि २४ जनवरी १९२४ अंकित होने के कारण उनका जन्मदिवस २४ जनवरी को ही माना जाता है . कर्पूरी जी का व्यक्तित्व समाजवादी नेताओं की भाँती बहुत ही सहज था . जनता की मदद के लिए वह सदैव हाजिर रहते थे . वह कर्मठ एवं महान कर्मयोगी थे .पिछडो , गरीबो , शोषितों , आदिवासियों , महिलाओं की लड़ाई लड़ने की शुरुआत उन्होंने १९४२ के असहयोग आन्दोलन में कूद कर की थी . वह देशभक्त स्वतन्त्रता सेनानी और समाजवादी क्रांतिकारी थे जिसके कारण उन्हें आजादी से पहले 2 बार और आजादी मिलने के बाद 18 बार जेल भी जाना पड़ा था .
कर्पूरी जी की ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में काफी चर्चित हैं. कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर जी काफी गंभीर हो गए. उसके बाद उन्होंने अपनी जेब से 50 रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, जाइए, उस्तरा आदि ख़रीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा शुरू कर लीजिये. इसी तरह , कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूलते थे . इस ख़त में क्या था, इसके बारे में उनके पुत्र रामनाथ कहते हैं, पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना. मेरी बदनामी होगी. रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया. हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने एक संस्मरण में लिखा था , “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल जी ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे 5-10 हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा. बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा किन्तु हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं है. इससे स्पष्ट है कि कर्पूरी जी बेहद ईमानदार और सिद्धांतवादी नेताओ की श्रेणी में आते है .
1948 में आचार्य नरेंद्रदेव एवं श्री जयप्रकाश नारायण के समाजवादी दल में प्रादेशिक मंत्री भी बनने का सौभाग्य जननायक कर्पूरी जी को प्राप्त हुआ. सन् 1967 के आम चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संसोपा संयुक्त विधायक दल बड़ी ताकत के रूप में उभरी. 1967 के आम चुनाव में डा राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया था . इस चुनाव में कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. डा लोहिया की विचारधारा के अनुरूप सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी. कर्पूरी जी इस सरकार में उप मुख्यमंत्री बनाये गये .
1970 में वह पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने . उसके बाद 1973-77 में वह लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन से जुडे. 1977 में वह काफी समय तक बिहार की राजनीति में समाजवादी विचारों के प्रेरणा पुंज बने रहे . 1977 में वह समस्तीपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से सांसद बने. एक बार फिर वह 24 जून, 1977 को मुख्यमंत्री के पद पर काबिज हुए . तत्पश्चात 1980 में मध्यावधि चुनाव हुआ तो कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में लोक दल बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरा और कर्पूरी ठाकुर जी उसके मुख्य नेता बने.
1977 के चुनाव में पहली बार सत्ता में पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंतण्र नहीं था. इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी थी .तब कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया.
1978 में बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए जब उन्होंने पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो उन्हें काफी अपमान झेलना पड़ा . लोग उनकी मां-बहन-बेटी-बहू का नाम लेकर भद्दी गालियां देते थे . अभिजात्य वर्ग के लोग उन पर तंज कसते हुए कहते - कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तरा. यह तंज इसलिए कि कर्पूरी ठाकुर नाई समुदाय से ताल्लुक रखते थे. 1978 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने सिंचाई विभाग में 17000 पदों के लिए आवेदन मंगाए थे . लेकिन इसके हफ्ता भर बीतते ही उनकी सरकार गिर गई. लोग इन दोनों बातों का आपस में संबंध मानते हैं. लोगो के अनुसार पहले होता यह था कि बैक डोर से अस्थायी बहाली कर दी जाती थी, बाद में उसी को नियमित कर दिया जाता था. किन्तु एक साथ इतने लोग खुली भर्ती के ज़रिये नौकरी पाएं, यह सरकारी व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे एक वर्ग को मंजूर नहीं था इसलिए कर्पूरी ठाकुर को कुर्सी से जाना पड़ा था .
इसी प्रकार 1974 में कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ. पर वे बीमार पड़ गए. दिल्ली के राममनोहर लोहिया हास्पिटल में भर्ती थे. हार्ट की सर्जरी होनी थी. इंदिरा गांधी को जैसे ही पता चला, एक राज्यसभा सांसद को वहां भेजा और उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया . इंदिरा जी ख़ुद भी दो बार मिलने गईं. उन्होंने सरकारी खर्च पर इलाज के लिए अमेरिका भेजने की पेशकश की. किन्तु कर्पूरी ठाकुर को जब पता चला तो उन्होंने कहा कि वह मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे. बाद में जयप्रकाश जी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज़ कराया.
एक बार प्रधानमंत्री चरण सिंह जब उनके घर गए तो घर का दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई. तब पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाली खांटी शैली में चरण सिंह जी ने कहा, ‘कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ.’ तो कर्पूरी जी ने कहा ‘जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?’
64 साल की उम्र में 17 फरवरी 1988 को कर्पूरी ठाकुर का निधन दिल का दौरा पड़ने से हो गया .कर्पूरी ठाकुर जी दलित, शोषित,पिछड़े और वंचित वर्ग के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे और संघर्ष करते रहे. उनका सादा जीवन सरल स्वभाव और अदम्य इच्छाशक्ति उनके विराट व्यक्तित्व की पहिचान थी . कर्पूरी जी के सहज और असाधारण कार्यो वाले व्यक्तित्व को किसी किताब या लेख में कैद करना सम्भव नही है . आज पिछड़े समाज के लोगो को खुद नही मालुम कि ये कर्पूरी ठाकुर कौन थे . त्याग और समाजसेवा से जुड़े जननायक कर्पूरी जी को आज इस देश का जनमानस ही नहीं बल्कि उनका नाई समाज भी भुला बैठा है .
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