स्वामी राम क्रष्ण परमहंस को संतो की उस श्रेणी में रखा जा सकता है जो असाधारण होते हुए भी समाज के सबसे साधारण व्यक्ति बन कर जिए . ऐसे संतो को उनके प्रतिभाशाली शिष्यों ने देश -दुनिया को बताया अन्यथा उन्हें खुद को प्रसिद्धि दिलाने की कोई चाहत तक नही थी . मसलन सुकरात को प्लेटो , रामानन्द को कबीर और इसी तरह राम क्रष्ण को स्वामी विवेकानन्द जैसे शिष्यों के कारण दुनिया ने बेहतर तरीके से समझा .
राम क्रष्ण ने धर्म के छेत्र में अनेक प्रयोग किये थे .वह ईश्वर को देखना और महसूस करना चाहते थे . जिसके लिए उन्होंने हिन्दू , मुस्लिम और ईसाई सभी धर्मो के मन्दिर मस्जिद चर्च में जाकर पूजा -अर्चना की . यहाँ तक उन्होंने ईश्वर की एकरूपता को मानकर कभी 5 वक्त की नमाज भी पढ़ी .
ईश्वर को जानने के लिए उनका व्यवहार पागलपन तक पहुच जाता था . जिन्दा रहते ईश्वर प्राप्ति के लिए ही एक बार उन्होंने जन्म से ब्राह्मण होने के अपने अहंकार को नष्ट करने के लिए भी एक प्रयोग किया. वह तत्कालीन समाज में कथित अछूत माने जानेवाले एक परिवार में पहुंचे और उनके घर दासों की तरह सारा काम करने की आज्ञा मांगने लगे. उस परिवार ने भारी पाप लगने के डर से उन्हें ऐसा नहीं करने दिया. लेकिन जब उस परिवार के लोग रात को सो जाते, तो रामकृष्ण उनके घर में घुस जाते और अपने बड़े-बड़े बालों से ही सारा घर झाड़-बुहार डालते थे .
अपनी साधना और तपस्या से रामकृष्ण को वेदांत के माध्यम से यह समझ में आया कि सारे जीव आत्मतत्व हैं और आत्मा के बीच लिंग का कोई भेद नहीं है. अर्थात स्त्री-पुरुष का भेद तो केवल शरीर के स्तर पर ही है, आत्मा के स्तर पर नहीं. लेकिन यह भी अजीब बात है कि ईश्वर की कल्पना और बाद में उसकी अनुभूति रामकृष्ण ने महिला के रूप में ही की थी . उनके मुंह से जगदम्बा और मां जैसे संबोधन ही निकलते थे. कहते है अपनी पत्नी सारदामणि को भी वे मां ही कहा करते थे. इन दोनों का जब विवाह हुआ था तो रामकृष्ण 22 साल के थे और सारदामणि 5 साल कीं. यानी रामकृष्ण से 17 वर्ष छोटी थी .
रामकृष्ण के सबसे प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद ने न्यूयॉर्क की एक सभा में अपने गुरु के बारे में एक ओजपूर्ण व्याख्यान दिया था, जो बाद में ‘मेरे गुरुदेव’ के नाम से प्रकाशित भी हुआ था . विवेकानंद ने इसमें कहा था- ‘एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक सत्य जो मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने भी धर्म हैं वे कोई परस्परविरोधी और वैरभावात्मक नहीं हैं- वे केवल एक ही चिरन्तन शाश्वत धर्म के भिन्न-भिन्न भाव मात्र हैं. ...इसलिए हमें सभी धर्मों को मान देना चाहिए और जहां तक हो उनके तत्वों में अपना विश्वास रखना चाहिए.’
इसी सभा में विवेकानंद ने आगे कहा- ‘श्रीरामकृष्ण का संदेश आधुनिक संसार को यही है— मतवादों, आचारों, पंथों तथा गिरजाघरों और मंदिरों की अपेक्षा ही मत करो. प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सार वस्तु अर्थात् ‘धर्म’ विद्यमान है इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं. पहले इस धर्मधन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत ढूंढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पंथ अच्छे हैं. अपने जीवन के द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम, न संप्रदाय, बल्कि इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति. ...जब तुम दुनिया के सभी धर्मों में सामंजस्य देख पाओगे, तब तुम्हें प्रतीत होगा कि आपस में झगड़े की कोई आवश्यकता नहीं है और तभी तुम समग्र मानवजाति की सेवा के लिए तैयार हो सकोगे. इस बात को स्पष्ट कर देने के लिए कि सब धर्मों में मूल तत्व एक ही है, मेरे गुरुदेव का अवतार हुआ था.’
स्वयं स्वामी रामकृष्ण ने एक बार कहा था- ‘सांप्रदायिक भ्रातृप्रेम के बारे में बातचीत बिल्कुल न करो, बल्कि अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ.’ भारत जैसे अनेक धर्मो वालो इस देश को स्वामी रामक्रष्ण परमहंस के दर्शन और व्यवहार की सख्त जरूरत है .
(स्वामी रामक्रष्ण परमहंस अपने प्रमुख शिष्यों विवेकान्द समेत महा समाधि के पश्चात )