संत रविदास जी के जन्म के विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है इसलिए उनके जन्मदिन के समय को विवादग्रस्त माना जा सकता है किन्तु फिर भी कई विद्वानों ने 1377 AD में वाराणसी के सीर गोवर्धनपुर नामक स्थान में उनके जन्म की बात को स्वीकार किया है .
हिंदी साहित्य के स्वर्णकाल माने जाने वाले भक्तिकाल में विभिन्न मतों का निर्धारण निर्गुण और सगुण नामक 2 प्रमुख विचारधाराओ में हुआ था . निर्गुणमत के अनुयायी पुनह आगे दो उपशाखाएँ में विभाजित हो गये : ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी. इसी प्रकार सगुणमत के अनुयायी भी दो उपशाखाएँ में विभाजित थे : रामभक्ति और कृष्णभक्ति. ज्ञानाश्रयी शाखा के अनुयायी निर्गुणवादी थे और ये मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे. संत रविदास जी (रैदास) इसी ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि थे.
संत रविदास की माता कालसा देवी और पिता बाबा संतोख दास जी थे . रविदास के पिता मल साम्राज्य में एक सरपंच थे और खुद जूतों का व्यापार और उसकी मरम्मत का कार्य करते थे. शिछा प्राप्त करने के लिए रविदास पंडित शारदा नंद जी की पाठशाला गये किन्तु ऊंच -नीच के भेदभाव के कारण कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा उन्हें पाठशाला जाने से रोक दिया गया. किन्तु इसके बावजूद भी पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दे दिया . पंडित शारदा नंद को शीघ्र ही ये आभाष हो गया था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में दुनिया भर में जाने जायेंगे .
इसी पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गये थे . एक दिन दोनों मित्र एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुयी. अगली बार, रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से दोनों मित्र खेल को पूरा नहीं कर सके और इसे अगले दिन सुबह जारी रखने का फैसला किया. अगली सुबह रविदास जी तो आये लेकिन उनका प्रिय मित्र नहीं आया . वह काफी देर तक इंतजार करने के बाद आखिरकार अपने मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र के माता-पिता और परिवारीजन रो रहे थे. अपने मित्र के मृत शरीर को देखकर वह हक्का-बक्का रह गये. किन्तु थोड़ी देर में संभलते हुए रविदास ने अपने मित्र से कहा ,' उठो मित्र ,ये सोने का समय नहीं है , ये तो लुका-छिपी खेलने का समय है. रविदास के ये शब्द सुनते ही उनके मित्र फिर से जी उठे. इस आश्चर्यजनक पल को देखने के बाद उनके माता-पिता और पड़ोसी चकित रह गये. कहा जाता है कि रविदास जी बचपन से ही अद्रश्य शक्तियों से युक्त थे.
बचपन से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे. उन्हें दूसरों की सहायता करने में संतुष्टि मिलती थी . वह साधु-सन्तों को तो अक्सर निःशुल्क जूते भेंट कर दिया करते थे. किन्तु उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे. अपने पारिवारिक व्यवसाय से अच्छी तरह जुड़ने के लिये इनके माता-पिता ने इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिससे रविदास जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी. इनके पुत्र का नाम विजयदास था .
पारिवारिक व्यवसाय में संतोषजनक कार्य न होने के कारण इनके पिता ने रविदास तथा इनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया. अब रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग कुटिया बनाकर मेहनत और लगन से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे.
वह लोगों को समानता का संदेश देते थे और कहते थे कि “ ईश्वर ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने ईश्वर बनाया है” अर्थात इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है इसलिए सभी के अधिकार समान है. वह लोगो को भाईचारे और सच्चाई की राह पर चलने के लिए कहते रहते थे .उस समय समाज में ऊंच -नीच , अप्रश्यता , पाखंड और भेदभाव अपने चरम पर था . रविदास जी सबको समझाते कि कोई भी इंसान अपने जाती और धर्म से महान नही होता है बल्कि वह अपने कर्मो से ही इस दुनिया में अपनी पहिचान बनाता है . रविदास जी समाज के निम्न वर्गो को मन्दिरों में प्रवेश नही दिए जाने से काफी दुखी रहते थे . उन्होंने उस समय समाज में व्याप्त हर तरह की बुराई के बारे में लोगो को जागरूक करने का प्रयत्न किया .
वह एक आम इंसान थे लेकिन उनके विचार संत -महात्माओ की श्रेणी के थे . अनेक राजा-रानिया और समृद्ध लोग उनके बड़े अनुयायी थे लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकार करते थे. एक किंवदन्ती के अनुसार एक बार भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया. एक साधू रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में एक आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये पत्थर किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता है. साधू ने रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये काफी प्रेरित किया और उनके साधारण झोपड़े की जगह एक बड़े महल बनाने की बात भी कही . लेकिन फिर भी रविदास ने पत्थर को लेने से बिलकुल मना कर दिया. उस साधू ने फिर से पत्थर को रखने के लिये रविदास पर दबाव डाला और कहा कि अच्छा मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा तब तक इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रख लीजिये . रविदास जी ने उसकी ये बात मान ली. जब वह साधू कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है. रविदास जी की ऐसी ईमानदारी और सत्यता पर साधू बहुत प्रसन्न हुए और उस कीमती पत्थर को लेकर वह वहाँ से गायब हो गये. रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को भी सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो.
उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी. संत रविदास समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी. उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था. अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया. वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और आत्मा पवित्र होती है.
संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिये . राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और उनके सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे. राजा बहुत शर्मिंदा था और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी. संत रविदास जी जी ने सभी को माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है. उन्होंने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया.
रविदास समाज में व्याप्त ऊँच -नीच के सख्त खिलाफ थे .एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश द्वारा दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया . संत रविदास राजा के दरबार में प्रस्तुत हुए . वहा पर रविदास जी और ब्राह्मण पुजारी को फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया. राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो ही सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा. दोनों लोग गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे. ब्राह्मण पुजारी हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लाया था वहीं संत रविदास जी 40 कि.ग्रा की चौकोर आकार की भारी मूर्ती लाये थे . राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये काफी भीड़ आई थी. पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी में प्रवाहित किया लेकिन उनकी मूर्ति तो गहरे पानी में डूब गयी. दूसरा मौका संत रविदास का मिला , उन्होंने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और विनम्रता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगी . इस घटना के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और रविदास सच्चे भक्त थे. इस घटना से दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग लोग रविदास जी के पाँव को स्पर्श करने लगे. तब से, काशी नरेश और कुछ दूसरे लोग जो कि रविदास जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे.
संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिये . राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और उनके सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे. राजा बहुत शर्मिंदा था और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी. संत रविदास जी जी ने सभी को माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है. उन्होंने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया.
रविदास समाज में व्याप्त ऊँच -नीच के सख्त खिलाफ थे .एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश द्वारा दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया . संत रविदास राजा के दरबार में प्रस्तुत हुए . वहा पर रविदास जी और ब्राह्मण पुजारी को फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया. राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो ही सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा. दोनों लोग गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे. ब्राह्मण पुजारी हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लाया था वहीं संत रविदास जी 40 कि.ग्रा की चौकोर आकार की भारी मूर्ती लाये थे . राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये काफी भीड़ आई थी. पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी में प्रवाहित किया लेकिन उनकी मूर्ति तो गहरे पानी में डूब गयी. दूसरा मौका संत रविदास का मिला , उन्होंने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और विनम्रता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगी . इस घटना के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और रविदास सच्चे भक्त थे. इस घटना से दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग लोग रविदास जी के पाँव को स्पर्श करने लगे. तब से, काशी नरेश और कुछ दूसरे लोग जो कि रविदास जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे.
एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार एक बार पंडित गंगा राम रविदास जी से मिले . वह हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे . रविदास जी ने पंडित जी से कहा , आप गंगा माता को ये सिक्का दे दीजीयेगा अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें. पंडित जी ने बड़ी सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये. वह वहाँ पर नहाये और बगैर सिक्का दिए वापस अपने घर लौटने लगे . थोडा थक जाने पर वह रास्ते में ही बैठ गये और महसूस किया कि वह कुछ भूल रहे हैं, वह दुबारा से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए हे गंगा माता ! . इस पर गंगा माँ पानी से बाहर निकली और उनके हाथ से सिक्के को स्वीकार कर लिया . माँ गंगा ने भी संत रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे. पंडित गंगा राम घर वापस आये किन्तु वह कँगन रविदास जी के बजाय अपनी पत्नी को दे दिया. एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी. सोनार ने इन अद्भुत कँगन को राजा और राजा ने रानी को दिखाने का फैसला किया. रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और एक और लाने को कहा. राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कँगन नहीं रखेगा .अब पंडित अपने किये पर बहुत शर्मिंदा थे क्योंकि उसने रविदास जी को धोखा दिया था. वह रविदास जी से मिला और उनसे माफी के लिये निवेदन किया. रविदास जी ने उससे कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” . ये लो दूसरे कँगन , जो पानी से भरे जल में मिट्टी के बर्तन में गंगा के रुप में यहाँ बह रही है. रविदास जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर गंगा राम भी रविदासजी का भक्त बन गया.
इतिहास के अनुसार बाबर भी संत रविदास की दैवीय शक्तियों से परिचित था और एक दिन वह हुमायुँ के साथ रविदास जी से मिला . रविदास जी के पास पहुचकर उसने पैर छूए किन्तु रविदास जी ने उसे आशीर्वाद देने के बजाय इंसानियत और राजा के कर्तव्यो के बारे में समझाया . इससे बाबर बहुत प्रभावित हुआ और वह दिल्ली और आगरा के गरीबों की सेवा के द्वारा समाज सेवा करने लगा.
समाज में भाईचारा , बन्धुत्व , समानता और खुशहाली के साथ -साथ सभी भगवान एक है, का पाठ पढाते हुए संत रविदास जी के अनुयायीयों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी. दूसरी तरफ, कुछ ब्राह्मण और समाज विरोधी चाटुकार संत रविदास जी को जान से मारने के लिए साजिश भी रच रहे थे . इनके जन्म की तरह इनकी म्रत्यु पर भी विवाद है . हालाँकि, इनके कुछ भक्तों का मानना है कि रविदास जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120 या 126 साल में हो गयी थी,और कुछ का मानना है कि उनका निधन वाराणसी में 1540 AD में हुआ था.
संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में भी जाना जाता है . मीरा बाई राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी. वह संत रविदास से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी.
दोहे
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जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
मन चंगा तो कठौती में गंगा ||
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन!!