Wednesday, 31 January 2018

संत रविदास (रैदास )





संत रविदास जी के जन्म के विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है इसलिए उनके जन्मदिन के समय को विवादग्रस्त माना जा सकता है किन्तु फिर भी कई विद्वानों ने 1377 AD में वाराणसी के सीर गोवर्धनपुर नामक स्थान में उनके जन्म की बात को स्वीकार किया है . 

हिंदी साहित्य के स्वर्णकाल माने जाने वाले भक्तिकाल में विभिन्न मतों का निर्धारण निर्गुण और सगुण नामक 2 प्रमुख विचारधाराओ में हुआ था . निर्गुणमत के अनुयायी पुनह आगे दो उपशाखाएँ में विभाजित हो गये : ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी. इसी प्रकार सगुणमत के अनुयायी भी दो उपशाखाएँ में विभाजित थे : रामभक्ति और कृष्णभक्ति. ज्ञानाश्रयी शाखा के अनुयायी निर्गुणवादी थे और ये मिथ्या आडंबरों और रूढियों का विरोध करते थे. संत रविदास जी (रैदास) इसी ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि थे. 

संत रविदास की माता कालसा देवी और पिता बाबा संतोख दास जी थे . रविदास के पिता मल साम्राज्य में एक सरपंच थे और खुद जूतों का व्यापार और उसकी मरम्मत का कार्य करते थे. शिछा प्राप्त करने के लिए रविदास पंडित शारदा नंद जी की पाठशाला गये किन्तु ऊंच -नीच के भेदभाव के कारण कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा उन्हें पाठशाला जाने से रोक दिया गया. किन्तु इसके बावजूद भी पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दे दिया . पंडित शारदा नंद को शीघ्र ही ये आभाष हो गया था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में दुनिया भर में जाने जायेंगे . 

इसी पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गये थे . एक दिन दोनों मित्र एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुयी. अगली बार, रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से दोनों मित्र खेल को पूरा नहीं कर सके और इसे अगले दिन सुबह जारी रखने का फैसला किया. अगली सुबह रविदास जी तो आये लेकिन उनका प्रिय मित्र नहीं आया . वह काफी देर तक इंतजार करने के बाद आखिरकार अपने मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र के माता-पिता और परिवारीजन रो रहे थे. अपने मित्र के मृत शरीर को देखकर वह हक्का-बक्का रह गये. किन्तु थोड़ी देर में संभलते हुए रविदास ने अपने मित्र से कहा ,' उठो मित्र ,ये सोने का समय नहीं है , ये तो लुका-छिपी खेलने का समय है. रविदास के ये शब्द सुनते ही उनके मित्र फिर से जी उठे. इस आश्चर्यजनक पल को देखने के बाद उनके माता-पिता और पड़ोसी चकित रह गये. कहा जाता है कि रविदास जी बचपन से ही अद्रश्य शक्तियों से युक्त थे.

बचपन से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे. उन्हें दूसरों की सहायता करने में संतुष्टि मिलती थी . वह साधु-सन्तों को तो अक्सर निःशुल्क जूते भेंट कर दिया करते थे. किन्तु उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे. अपने पारिवारिक व्यवसाय से अच्छी तरह जुड़ने के लिये इनके माता-पिता ने इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिससे रविदास जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी. इनके पुत्र का नाम विजयदास था .

पारिवारिक व्यवसाय में संतोषजनक कार्य न होने के कारण इनके पिता ने रविदास तथा इनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया. अब रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग कुटिया बनाकर मेहनत और लगन से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे.

वह लोगों को समानता का संदेश देते थे और कहते थे कि “ ईश्वर ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने ईश्वर बनाया है” अर्थात इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है इसलिए सभी के अधिकार समान है. वह लोगो को भाईचारे और सच्चाई की राह पर चलने के लिए कहते रहते थे .उस समय समाज में ऊंच -नीच , अप्रश्यता , पाखंड और भेदभाव अपने चरम पर था . रविदास जी सबको समझाते कि कोई भी इंसान अपने जाती और धर्म से महान नही होता है बल्कि वह अपने कर्मो से ही इस दुनिया में अपनी पहिचान बनाता है . रविदास जी समाज के निम्न वर्गो को मन्दिरों में प्रवेश नही दिए जाने से काफी दुखी रहते थे . उन्होंने उस समय समाज में व्याप्त हर तरह की बुराई के बारे में लोगो को जागरूक करने का प्रयत्न किया .

वह एक आम इंसान थे लेकिन उनके विचार संत -महात्माओ की श्रेणी के थे . अनेक राजा-रानिया और समृद्ध लोग उनके बड़े अनुयायी थे लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकार करते थे. एक किंवदन्ती के अनुसार एक बार भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया. एक साधू रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में एक आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये पत्थर किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता है. साधू ने रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये काफी प्रेरित किया और उनके साधारण झोपड़े की जगह एक बड़े महल बनाने की बात भी कही . लेकिन फिर भी रविदास ने पत्थर को लेने से बिलकुल मना कर दिया. उस साधू ने फिर से पत्थर को रखने के लिये रविदास पर दबाव डाला और कहा कि अच्छा मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा तब तक इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रख लीजिये . रविदास जी ने उसकी ये बात मान ली. जब वह साधू कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है. रविदास जी की ऐसी ईमानदारी और सत्यता पर साधू बहुत प्रसन्न हुए और उस कीमती पत्थर को लेकर वह वहाँ से गायब हो गये. रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को भी सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो.


उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी. संत रविदास समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी. उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था. अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया. वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और आत्मा पवित्र होती है.

संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिये . राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और उनके सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे. राजा बहुत शर्मिंदा था और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी. संत रविदास जी जी ने सभी को माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है. उन्होंने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया.

रविदास समाज में व्याप्त ऊँच -नीच के सख्त खिलाफ थे .एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश द्वारा दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया . संत रविदास राजा के दरबार में प्रस्तुत हुए . वहा पर रविदास जी और ब्राह्मण पुजारी को फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया. राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो ही सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा. दोनों लोग गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे. ब्राह्मण पुजारी हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लाया था वहीं संत रविदास जी 40 कि.ग्रा की चौकोर आकार की भारी मूर्ती लाये थे . राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये काफी भीड़ आई थी. पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी में प्रवाहित किया लेकिन उनकी मूर्ति तो गहरे पानी में डूब गयी. दूसरा मौका संत रविदास का मिला , उन्होंने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और विनम्रता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगी . इस घटना के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और रविदास सच्चे भक्त थे. इस घटना से दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग लोग रविदास जी के पाँव को स्पर्श करने लगे. तब से, काशी नरेश और कुछ दूसरे लोग जो कि रविदास जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे. 



एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार एक बार पंडित गंगा राम रविदास जी से मिले . वह हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे . रविदास जी ने पंडित जी से कहा , आप गंगा माता को ये सिक्का दे दीजीयेगा अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें. पंडित जी ने बड़ी सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये. वह वहाँ पर नहाये और बगैर सिक्का दिए वापस अपने घर लौटने लगे . थोडा थक जाने पर वह रास्ते में ही बैठ गये और महसूस किया कि वह कुछ भूल रहे हैं, वह दुबारा से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए हे गंगा माता ! . इस पर गंगा माँ पानी से बाहर निकली और उनके हाथ से सिक्के को स्वीकार कर लिया . माँ गंगा ने भी संत रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे. पंडित गंगा राम घर वापस आये किन्तु वह कँगन रविदास जी के बजाय अपनी पत्नी को दे दिया. एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी. सोनार ने इन अद्भुत कँगन को राजा और राजा ने रानी को दिखाने का फैसला किया. रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और एक और लाने को कहा. राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कँगन नहीं रखेगा .अब पंडित अपने किये पर बहुत शर्मिंदा थे क्योंकि उसने रविदास जी को धोखा दिया था. वह रविदास जी से मिला और उनसे माफी के लिये निवेदन किया. रविदास जी ने उससे कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” . ये लो दूसरे कँगन , जो पानी से भरे जल में मिट्टी के बर्तन में गंगा के रुप में यहाँ बह रही है. रविदास जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर गंगा राम भी रविदासजी का भक्त बन गया. 


इतिहास के अनुसार बाबर भी संत रविदास की दैवीय शक्तियों से परिचित था और एक दिन वह हुमायुँ के साथ रविदास जी से मिला . रविदास जी के पास पहुचकर उसने पैर छूए किन्तु रविदास जी ने उसे आशीर्वाद देने के बजाय इंसानियत और राजा के कर्तव्यो के बारे में समझाया . इससे बाबर बहुत प्रभावित हुआ और वह दिल्ली और आगरा के गरीबों की सेवा के द्वारा समाज सेवा करने लगा. 


समाज में भाईचारा , बन्धुत्व , समानता और खुशहाली के साथ -साथ सभी भगवान एक है, का पाठ पढाते हुए संत रविदास जी के अनुयायीयों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी. दूसरी तरफ, कुछ ब्राह्मण और समाज विरोधी चाटुकार संत रविदास जी को जान से मारने के लिए साजिश भी रच रहे थे . इनके जन्म की तरह इनकी म्रत्यु पर भी विवाद है . हालाँकि, इनके कुछ भक्तों का मानना है कि रविदास जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120 या 126 साल में हो गयी थी,और कुछ का मानना है कि उनका निधन वाराणसी में 1540 AD में हुआ था.


संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में भी जाना जाता है . मीरा बाई राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी. वह संत रविदास से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी. 


दोहे 
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जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

मन चंगा तो कठौती में गंगा ||

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन!!













Tuesday, 30 January 2018

30 जनवरी












बिरला हाउस में नित्य होने वाली प्रार्थना सभा की और बढ़ते हुए महात्मा गांधी ने अपने साथ चल रही आभा और मनुबेन से हंसी -मजाक के एक प्रसंग पर कहा प्रार्थना सभा में एक मिनट की देरी से भी मुझे चिढ़ है. यह बात करते-करते गांधी प्रार्थना स्थल तक पहुँच चुके थे. प्रार्थना स्थल पहुचते ही गांधी ने लोगों के अभिवादन के जवाब में अपने हाथो को जोड़ लिया. इसी वक्त बाईं तरफ से नाथूराम गोडसे गांधी जी की तरफ झुका तब मनु बहन को लगा कि वह(गोडसे ) गांधी जी के पैर छूने की कोशिश कर रहा है. इस पर आभा ने चिढ़कर कहा कि उन्हें पहले ही देर हो चुकी है, उनके रास्ते में व्यवधान न उत्पन्न किया जाए. लेकिन गोडसे ने मनु को भी धक्का दे दिया इससे उनके हाथ से माला और पुस्तक नीचे गिर गई. फिर जैसे ही मनु उन्हें उठाने के लिए नीचे झुकीं तभी गोडसे ने पिस्टल निकाल ली और एक के बाद एक 3 गोलियां गांधीजी के सीने और पेट में उतार दीं. 

अहिंसा और सत्य के पथ पर चलने वाले इस महामानव के मुंह से जो आखरी शब्द निकले , "राम.....रा.....म." और उनका प्राणविहीन शरीर नीचे की तरफ़ गिरने लगा जिसे आभा ने गिरते हुए उनके सिर को अपने हाथों का सहारा दिया. महामानव इस धरती से विदा हो गया . चारो तरफ हर कोई स्तब्ध था . ये क्या हो गया . 

नाथूराम को जैसे ही पकड़ा गया वहाँ मौजूद माली रघुनाथ ने अपने खुरपे से नाथूराम के सिर पर वार किया जिससे उसके सिर से ख़ून निकलने लगा. उधर गांधी जी की हत्या के कुछ मिनटों के भीतर वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन वहां पहुंच गए. किसी ने गांधी का स्टील रिम का चश्मा उतार दिया था. मोमबत्ती की रोशनी में गांधी के निष्प्राण शरीर को बिना चश्मे के देख माउंटबेटन उन्हें पहचान ही नहीं पाए. तब किसी ने माउंटबेटन के हाथों में गुलाब की कुछ पंखुड़ियाँ पकड़ा दीं. लगभग शून्य में ताकते हुए माउंटबेटन ने वो पंखुड़ियां गांधी के पार्थिव शरीर पर गिरा दीं. यह भारत के आख़िरी वायसराय की उस व्यक्ति को अंतिम श्रद्धांजलि थी जिसने उनकी परदादी के साम्राज्य का अपने सत्य और अहिंसा के सिद्धांत से पूरी तरह अंत कर दिया था. 

पूरी दुनिया के मानवता प्रेमी हस्तियों के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था . बर्नाड शॉ ने महात्मा गांधी जी की इस दुखद म्रत्यु पर कहा, ''यह दिखाता है कि अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है.'' 

इससे पहले 29 जनवरी शाम को बापू ने डॉ राम मनोहर लोहिया को अपने पास बुलाया था और कहा था कि आज रात तुम हमारे साथ रहोगे , ' कुछ आवश्यक बाते करनी है . डॉ लोहिया जब पहुंचे तो बापू लोंगो से मिलने में व्यस्त थे , किन्तु लोहिया को देखते ही बोले - तुम मेरे कमरे में चलो हम आते हैं . 

30 जनवरी की सुबह जब डॉ लोहिया सोकर उठे तो बापू बरामदे में बैठ कर खतों का जवाब लिख रहे थे. डॉ लोहिया ने पूछा - कल आपने बात करने के लिए बुलाया था ? बापू ने कहा - जब हम कमरे में गए तो तुम बिल्कुल शांत भाव से सो गए थे , इसलिए जगाया नही . चलो आज बात करेंगे . ' 

30 जनवरी को जब डॉ लोहिया बिरला भवन पहुंचे तब तक बापू इस दुनिया से सदा के लिए प्रस्थान कर चुके थे . ' नाथू राम गोडसे ने उनकी दुखद हत्या कर दी थी . बापू की हत्या से आहत और द्रवित डा लोहिया ने देश के विभाजन पर एक पुस्तक लिखी , 'विभाजन के गुनाहगार ' . इस पुस्तक में देश के विभाजन से जुड़े कारणों और उसके गुनाहगारो की तरफ इशारा किया गया है . 

साबरमती के संत और देश की आजादी के सबसे बड़े महानायक को उनकी पुण्यतिथि पर शत -शत नमन . 



Thursday, 18 January 2018

कुंदन लाल (के एल) सहगल (11 अप्रैल, 1904 - 18 जनवरी, 1947)


कुंदन लाल सहगल हिंदुस्तानी पार्श्वगायन मतलब प्लेबैक सिंगिंग के सम्भवतः सबसे पहले जाने-माने चेहरे थे. वह अपनी मौलिक आवाज के दम पर अभिनय के अलावा गायकी के भी पहले सुपरस्टार कहलाए थे . लाख कोशिशों के बावजूद भी उनके वक्त के दूसरे पार्श्वगायक उनकी बराबरी न कर सके और कहा जाता है कि अगली पीढ़ी के गायक मुकेश, किशोर और रफी आदि भी शुरुआत में उनकी ही नकल करके स्थापित हुए थे .

उनके गायन के प्रति समर्पण की एक तस्वीर ‘स्ट्रीट सिंगर’ (1938) नामक फिल्म की शूटिंग के वक्त देखी जा सकती है. इस फिल्म में वे नायक भी थे और अपने गीतों को हमेशा की तरह अपनी आवाज दे रहे थे. ‘स्ट्रीट सिंगर’ में सहगल साहब की भूमिका सड़क पर गाने वाले एक गवइये की थी, इसलिए इस गीत को उन्होंने सड़क पर चलते हुए ‘लाइव’ गाया था.

सहगल साहब को यह महान लोकप्रियता सिर्फ उनकी अलग तरह की आवाज की वजह से नहीं हासिल हुई बल्कि वे जिन गीतों को गाते, उनमें पूरी तरह खुद को डुबो देते थे . चाहे ‘नुक्ताचीन है गमे-दिल’ जैसी गजल हो या ‘देवदास’ फिल्म का ‘दुख के अब दिन बीतत नाहीं’, हिंदी फिल्म संगीत में दिल से गीत गाने वाले वह सबसे पहले पार्श्वगायक थे. कहा जाता है कि एक तवायफ से सीखी हुई थोड़ी-बहुत संगीत से जब वे आलाप चढ़ाते थे, तो शास्त्रीय संगीत के कई दिग्गज भी हैरान रह जाया करते थे.


एक गीत था अवध के नवाब वाजिद अली शाह की 1856 के आसपास लिखी ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’, जो उन्होंने अंग्रेजों द्वारा लखनऊ निकाला दिए जाने के बाद अपने घर के बिछोह में लिखी और गाई थी. सहगल साहब के बाद इसे मशहूर शास्त्रीय गायक भीमसेन जोशी , किशोरी अमोनकर और गाजल सम्राट जगजीत सिह तक ने अपने अंदाज में गाया, लेकिन सहगल साहब ने जिस नायाब तरीके से इसे गाया था वैसा कमाल कोई और नही कर पाया .




















Saturday, 13 January 2018

लोहड़ी




सुंदर मुंदरिए- हो

तेरा कौन विचारा-हो

दुल्ला भट्टी वाला-हो

आखिर ये

दुल्ला भट्टी वाला कौन है ? 




अब्दुल्ला भट्टी के जिक्र से जुड़ी लोहड़ी की एक कहानी पंजाब और आसपास के क्षेत्र में काफी प्रचलित है. इसके मुताबिक उस दौर में पंजाब में एक ब्राह्मण हुआ करता था. उसकी दो बेटियां थीं - सुंदरी और मुंदरी. इन दोनों की शादी तय हो चुकी थी कि इस बीच मुगलिया सल्तनत के एक अफसर की नजर इन पर पड़ गई. इससे इनका पिता बड़ा परेशान हुआ और उसने लड़कियों की ससुराल पक्ष से दरख्वास्त की कि वे शादी तय तारीख से पहले करने को तैयार हो जाएं. लेकिन सल्तनत के अफसर का डर उनको भी था, सो उन्होंने इसके लिए न कर दी. कहते हैं कि जब यह बात दुल्ला भट्टी को पता चली तो उसने लोहड़ी के दिन दोनों पक्षों को बुलाकर लड़कियों की शादी करवा दी और तब से लोहड़ी का यह गीत लोकप्रिय हुआ जिसमें दुल्ला भट्टी का जिक्र है.

हालाँकि अब इसे लेकर यह झूठ फैलाया जा रहा है कि दुल्ला भट्टी एक सिख था जिसने हिंदुओं को बचाने के लिए अकबर से दुश्मनी मोल ली थी . ऊपर मौजूद चित्र की भाषा धार्मिक पूर्वाग्रहों से भरी है. ऐसे झूठ कौन फैला रहा है? कहने की ज़रूरत नहीं कि ये वही लोग हैं जिन्हें इतिहास को नए रंग से लिखना है. जिनके लिए मुसलमान बाहर से आए आक्रांताओं की संतानें हैं और ऐसे में उनके बीच से कोई नायक कैसे हो सकता है?