Thursday, 18 January 2018

कुंदन लाल (के एल) सहगल (11 अप्रैल, 1904 - 18 जनवरी, 1947)


कुंदन लाल सहगल हिंदुस्तानी पार्श्वगायन मतलब प्लेबैक सिंगिंग के सम्भवतः सबसे पहले जाने-माने चेहरे थे. वह अपनी मौलिक आवाज के दम पर अभिनय के अलावा गायकी के भी पहले सुपरस्टार कहलाए थे . लाख कोशिशों के बावजूद भी उनके वक्त के दूसरे पार्श्वगायक उनकी बराबरी न कर सके और कहा जाता है कि अगली पीढ़ी के गायक मुकेश, किशोर और रफी आदि भी शुरुआत में उनकी ही नकल करके स्थापित हुए थे .

उनके गायन के प्रति समर्पण की एक तस्वीर ‘स्ट्रीट सिंगर’ (1938) नामक फिल्म की शूटिंग के वक्त देखी जा सकती है. इस फिल्म में वे नायक भी थे और अपने गीतों को हमेशा की तरह अपनी आवाज दे रहे थे. ‘स्ट्रीट सिंगर’ में सहगल साहब की भूमिका सड़क पर गाने वाले एक गवइये की थी, इसलिए इस गीत को उन्होंने सड़क पर चलते हुए ‘लाइव’ गाया था.

सहगल साहब को यह महान लोकप्रियता सिर्फ उनकी अलग तरह की आवाज की वजह से नहीं हासिल हुई बल्कि वे जिन गीतों को गाते, उनमें पूरी तरह खुद को डुबो देते थे . चाहे ‘नुक्ताचीन है गमे-दिल’ जैसी गजल हो या ‘देवदास’ फिल्म का ‘दुख के अब दिन बीतत नाहीं’, हिंदी फिल्म संगीत में दिल से गीत गाने वाले वह सबसे पहले पार्श्वगायक थे. कहा जाता है कि एक तवायफ से सीखी हुई थोड़ी-बहुत संगीत से जब वे आलाप चढ़ाते थे, तो शास्त्रीय संगीत के कई दिग्गज भी हैरान रह जाया करते थे.


एक गीत था अवध के नवाब वाजिद अली शाह की 1856 के आसपास लिखी ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’, जो उन्होंने अंग्रेजों द्वारा लखनऊ निकाला दिए जाने के बाद अपने घर के बिछोह में लिखी और गाई थी. सहगल साहब के बाद इसे मशहूर शास्त्रीय गायक भीमसेन जोशी , किशोरी अमोनकर और गाजल सम्राट जगजीत सिह तक ने अपने अंदाज में गाया, लेकिन सहगल साहब ने जिस नायाब तरीके से इसे गाया था वैसा कमाल कोई और नही कर पाया .




















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