Sunday, 26 August 2018

क्रष्ण, क्रष्णा और राम

भारतीय संस्क्रति के सबसे प्रखर मौलिक चिंतक व समाजवादी राजनेता डा राम मनोहर लोहिया जी कहते है , कृष्ण यादव-शिरोमणि था , केवल क्षत्रीय राजा ही नहीं , शायद क्षत्रीय उतना नहीं था , जितना अहीर. तभी तो अहीरिन राधा की जगह अडिग है ,क्षत्राणी द्रौपदी उसे हटा न पायी. विराट विश्व और त्रिकाल के उपयुक्त कृष्ण बहुरूप था.कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की उसके वंशज उसे अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं , यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं , उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है.इसीलिए कृष्ण हिन्दुस्तान में कर्म का देव न बन सका.कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किये हैं.कितने सन्धि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों के धागे उसे पलटने पड़ते थे . यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था. संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया. राम रोऊ है , इतना कि मर्यादा भंग होती है. कृष्ण कभी रोता नहीं. आंखें जरूर डबडबाती हैं उसकी , कुछ मौकों पर , जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं . वाणी की देवी द्रौपदी से कृष्ण का संबंध कैसा था. क्या सखा – सखी का संबंध स्वयं एक अन्तिम सीढ़ी और असीम मैदान है , जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं ? कृष्ण छलिया जरूर था , लेकिन कृष्णा से उसने कभी छल न किया. शायद वचन – बद्ध था , इसलिए. जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया , वह आया. स्त्री – पुरुष की किसलय – मित्रता को , आजकल के वैज्ञानिक , अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं . ( प्रस्तुत लेख मूल रूप से डा राम मनोहर लोहिया जी द्वारा ही लिखित है )































कुरु – धुरी की आधार – शिला थी कुरु – पांचाल संधि . आसपास के इन इलाकों का वज्र समान एका कायम करना था सो कृष्ण ने उन लीलाओं के द्वारा किया , जिनसे पांचाली का विवाह पांचों पाण्डवों से हो गया . यह पांचाली भी अद्भुत नारी थी . द्रौपदी से बढ़ कर भारत की कोई प्रखर – मुखी और ज्ञानी नारी नहीं . कैसे कुरु पक्ष के सभी को उत्तर देने के लिए ललकारती है कि जो आदमी अपने को हार चुका है क्या दूसरे को दांव पर रखने की उसमें स्वतंत्र सत्ता है ?

अर्जुन समेत पांचों पांडव उसके सामने फीके थे. यह कृष्णा तो कृष्ण के ही लायक थी. महाभारत का नायक कृष्ण , नायिका कृष्णा. कृष्णा और कृष्ण का संबंध भी विश्व – साहित्य में बेमिसाल है. दोनों सखा – सखी ही क्यों रहे. कभी कुछ और दोनों में से किसी ने होना चाहा ? क्या सखा – सखी का सम्बन्ध पूर्व रूप से मन की देन थी या उसमें कुरु – धुरी के निर्माण और फैलाव का अंश था ? जो हो , कृष्ण और कृष्णा का यह संबंध राधा और कृष्ण के संबंध से कम नहीं , लेकिन साहित्यकारों और भक्तों की नजर इस ओर कम पड़ी है. हो सकता है कि भारत की पूर्व – पश्चिम एकता के इस निर्माता को अपनी ही सीख के अनुसार केवल कर्म , न कि कर्मफल का अधिकारी होना पड़ा , शायद इसलिए कि यदि वह वस्य कर्मफल-हेतु बन जाता , तो इतना अनहोना निर्माता हो ही नहीं सकता था. उसने कभी लालच न की कि अपनी मथुरा को ही धुरी – केंद्र बनाये , उसके लिए दूसरों का हस्तिनापुर ही अच्छा रहा. उसी तरह कृष्णा को भी सखी रूप में रखा , जिसे संसार अपनी कहता है , वैसी न बनाया. कौन जाने कृष्ण के लिए यह सहज था या इसमें भी उसका दिल दुखा था .


कृष्णा अपने नाम के अनुरूप सांवली थी , महान सुंदरी रही होगी. उसकी बुद्धि का तेज , उसकी चकित हरिणी आंखों में चमकता रहा होगा. गोरी की अपेक्षा सांवली, नखशिख और अंग में अधिक सुडौल होती है . राधा गोरी रही होगी. बालक और युवक कृष्ण राधा में एकरस रहा. प्रौढ़ कृष्ण के मन पर कृष्णा छायी रही होगी, राधा और कृष्ण तो एक थे ही. कृष्ण की संतानें कब तक उसकी भूल दोहराती रहेंगी- बेखबर जवानी में गोरी से उलझना और अधेड़ अवस्था में श्यामा को निहारना. कृष्ण – कृष्णा संबंध में और कुछ न हो , भारतीय मर्दों को श्यामा की तुलना में गोरी के प्रति अपने पक्षपात पर मनन करना चाहिए . 


रामायण की नायिका गोरी है. महाभारत की नायिका कृष्णा है. गोरी की अपेक्षा सांवला अधिक सजीव है. जो भी हो , इसी कृष्ण – कृष्णा संबंध का अनाड़ी हाथों फिर पुनर्जन्म हुआ. न रहा उसमें कर्मफल और कर्मफल हेतु त्याग. कृष्णा पांचाल यानी कनौज के इलाके की थी , संयुक्ता भी. धुरी – केन्द्र इन्द्रप्रस्थ का अनाड़ी राजा पृथ्वीराज अपने पुरखे कृष्ण के रास्ते न चल सका . जिस पांचाली द्रौपदी के जरिये कुरु – धुरी की आधार – शिला रखी गयी , उसी पांचाली संयुक्ता के जरिये दिल्ली – कनौज की होड़ जो विदेशियों के सफल आक्रमणों का कारण बना. कभी – कभी लगता है कि व्यक्ति का तो नहीं लेकिन इतिहास का पुनर्जन्म होता है , कभी फीका कभी रंगीला. कहां द्रौपदी और कहां संयुक्ता , कहां कृष्ण और कहां पृथ्वीराज , यह सही है. फीका और मारात्मक पुनर्जन्म , लेकिन पुनर्जन्म तो है ही .



कृष्ण की कुरु – धुरी के और भी रहस्य रहे होंगे. साफ़ है कि राम आदर्शवादी एकरूप एकत्व का निर्माता और प्रतीक था. उसी तरह जरासंध भौतिकवादी एकत्व का निर्माता था. आजकल कुछ लोग कृष्ण और जरासंध युद्ध को आदर्शवाद – भौतिकवाद का युद्ध मानने लगे हैं. वह सही जंचता है ,किंतु अधूरा विवेचन. जरासंध भौतिकवादी एकरूप एकत्व का इच्छुक था. बाद के मगधीय मौर्य और गुप्त राज्यों में कुछ हद तक इसी भौतिकवादी एकरूप एकत्व का प्रादुर्भाव हुआ और उसी के अनुरूप बौद्ध धर्म का . कृष्ण आदर्शवादी बहुरूप एकत्व का का निर्माता था.जहां तक मुझे मालूम है ,अभी तक भारत का निर्माण भौतिकवादी बहुरूप एकत्व के आधार पर कभी नहीं हुआ. चिर चमत्कार तो तब होगा जब आदर्शवाद और भौतिकवाद के मिलेजुले बहुरूप एकत्व के आधार पर भारत का निर्माण होगा.

अभी तक तो कृष्ण का प्रयास ही सर्वाधिक माननीय मलूम होता है , चाहे अनुकरणीय राम का एकरूप एकत्व ही हो.कृष्ण की बहुरूपता में वह त्रिकाल – जीवन है जो औरों में नहीं. कृष्ण यादव-शिरोमणि था , केवल क्षत्रीय राजा ही नहीं , शायद क्षत्रीय उतना नहीं था , जितना अहीर. तभी तो अहीरिन राधा की जगह अडिग है ,क्षत्राणी द्रौपदी उसे हटा न पायी. विराट विश्व और त्रिकाल के उपयुक्त कृष्ण बहुरूप था. राम और जरासंध एकरूप थे , चाहे आदर्शवादी एकरूपता में केन्द्रीयकरण और क्रूरता कम हो , लेकिन कुछ न कुछ केन्द्रीयकरण तो दोनों में होता है. मौर्य और गुप्त राज्यों में कितना केन्द्रीयकरण था , शायद क्रूरता भी.

बेचारे कृष्ण ने इतनी नि:स्वार्थ मेहनत की , लेकिन जन-मन में राम ही आगे रहा है.सिर्फ बंगाल में ही मुर्दे – ” बोलो हरि , हरि बोल ” के उच्चारण से – अपनी आख़री यात्रा पर निकाले जाते हैं , नहीं तो कुछ दक्षिण को छोड़ कर सारे भारत में हिन्दू मुर्दे – ” राम नाम सत्य है ” के साथ ही ले जाये जाते हैं. बंगाल के इतना तो नहीं , फिर भी उड़ीसा और असम में कृष्ण का स्थान अच्छा है. कहना मुशकिल है कि राम और कृष्ण में कौन उन्नीस , कौन बीस है. सबसे आश्चर्य की बात है कि स्वयं ब्रज के चारों ओर की भूमि के लोग भी वहां एक – दूसरे को ‘ जैरामजी ” से नमस्ते करते हैं. सड़क चलते अनजान लोगों को भी यह ” जैरामजी ” बड़ा मीठा लगता है , शायद एक कारण यह भी हो.

राम त्रेता के मीठे , शान्त और सुसंस्कृत युग का देव है.कृष्ण पके , जटिल , तीखे और प्रखर बुद्धि युग का देव है.राम गम्य है. कृष्ण अगम्य है.कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की उसके वंशज उसे अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं , यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं , उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है.इसीलिए कृष्ण हिन्दुस्तान में कर्म का देव न बन सका.कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किये हैं.कितने सन्धि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों के धागे उसे पलटने पड़ते थे . यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था.

इसके यह मतलब नहीं की प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों में में कृष्णनीति अब भी चलायी जए.कृष्ण जो पूर्व – पश्चिम की एकता दे गया ,उसी के साथ – साथ उस नीति का औचित्य भी खतम हो गया.बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी.और बच गया राम का कर्म.अभी तक हिन्दुस्तानी इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाये हैं. करें , तो राम के कर्म में भी परिवर्तन आये. राम रोऊ है , इतना कि मर्यादा भंग होती है. कृष्ण कभी रोता नहीं. आंखें जरूर डबडबाती हैं उसकी , कुछ मौकों पर , जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं .

कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के.अब भी तब की गोपियां और जो चाहें वे ,उसकी वाणी और मुरली की तान सुन कर रस विभोर हो सकते हैं और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते हैं. साथ ही कर्म-संग के त्याग , सुख-दुख,शीत-उष्ण,जय-पराजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यव भाव का सुरीला दर्शन ,उसकी वाणी में सुन सकते हैं . संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया.

वाणी की देवी द्रौपदी से कृष्ण का संबंध कैसा था. क्या सखा – सखी का संबंध स्वयं एक अन्तिम सीढ़ी और असीम मैदान है , जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं ? कृष्ण छलिया जरूर था , लेकिन कृष्णा से उसने कभी छल न किया. शायद वचन – बद्ध था , इसलिए. जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया , वह आया. स्त्री – पुरुष की किसलय – मित्रता को , आजकल के वैज्ञानिक , अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं. यह अवरोध सामाजिक या मन के आन्तरिक कारणों से हो सकता है.

पांचों पाण्डव कृष्ण के भाई थे और द्रौपदी कुरु – पांचाल संधि की आधार- शिला थी. अवरोध के सभी कारण मौजूद थे. फिर भी , हो सकता है कि कृष्ण को अपनी चित्तप्रवृत्तियों का कभी विरोध न करना पड़ा हो. यह उसके लिए सहज और अंतिम संबंध था अगर यह सही है , तो कृष्ण – कृष्णा के सखा – सखी संबंध के ब्योरे पर दुनिया में विश्वास होना चाहिए और तफ़सील से , जिससे से स्त्री – पुरुष संबंध का एक नया कमरा खुल सके. अगर राधा की छटा निराली है, तो कृष्ण की घटा भी. छटा में तुष्टिप्रदान रस है , घटा में उत्कंठा-प्रधान कर्त्तव्य. राधा – रस तो निराला है ही. राधा – कृष्ण एक हैं , राधा – कृष्ण का स्त्री रूप और कृष्ण राधा का पुरुष रूप. भारतीय साहित्य में राधा का जिक्र बहुत पुराना नहीं है , क्योंकि सबसे पहली बार पुराण में आता है ” अनुराधा ” के नाम से. नाम ही बताता है प्रेम और भक्ति का वह स्वरूप , जो आत्म विभोर है , जिससे सीमा बांधने वाली चमड़ी रह नहीं जाती.

आधुनिक समय में मीरा ने भी उस आत्मविभोरता को पाने की कोशिश की.बहुत दूर तक गयी मीरा , शायद उतनी दूर गयी जितना किसी सजीव देह को किसी याद के लिए जाना संभव हो.फिर भी , मीरा की आत्मविभोरता में कुछ गर्मी थी. कृष्ण को तो कौन जला सकता है , सुलझा भी नहीं सकता , लेकिन मीरा के पास बैठने में उसे जरूर कुछ पसीना आये , कम से कम गर्मी तो लगे.राधा न गरम है , न ठंडी , राधा पूर्ण है.मीरा की कहानी एक और अर्थ में बेजोड़ है.पद्मिनी मीरा की पुरखिन थी.दोनों चित्तौड़ की नायिकाएं हैं.करीब ढाई सौ वर्ष का अन्तर है. कौन बड़ी है , वह पद्मिनी जो जौहर करती है या वह मीरा जिसे कृष्ण के लिए नाचने से कोई मना न कर सका. पुराने देश की यही प्रतिभा है. बड़ा जमाना देखा है इस हिन्दुस्तान ने. क्या पद्मिनी थकती – थकती सैंकड़ों बरस में मीरा बन जाती है ? या मीरा ही पद्मिनी का श्रेष्ठ स्वरूप है ? अथवा जब प्रताप आता है , तब मीरा फिर पद्मिनी बनती है. हे त्रिकालदर्शी कृष्ण ! क्या तुम एक ही में मीरा और पद्मिनी नहीं बन सकते ?

राधा – रस का पूरा मजा तो ब्रज – रज में मिलता है. मैं सरयू और अयोध्या का बेटा हूं. ब्रज – रज में शायद कभी न लौट सकूंगा. लेकिन मन से तो लौट चुका हूं.श्री राधा की नगरी बरसाने के पास एक रात रह कर मैंने राधारानी के गीत सुने हैं. कृष्ण बड़ा छलिया था.कभी श्यामा मालिन बन कर , राधा को फूल बेचने आता था.कभी वैद्य बन कर आता था , प्रमाण देने कि राधा अभी ससुराल जाने लायक नहीं है. कभी राधा प्यारी को गोदाने का न्योता देने के लिए गोदनहारिन बन कर आता था. कभी वृन्दा की साड़ी पहन कर आता था और जब राधा उससे एक बार चिपट कर अलग होती थी , शायद झुंझला कर , शायद इतरा कर , तब श्री कृष्ण मुरारी को ही छट्ठी का दूध याद आता था , बैठ कर समझाओ राधारानी को कि वृन्दा से आंखें नहीं लड़ायी.

मैं समझता हूं कि नारी अगर कहीं नर के बराबर हुइ है , तो सिर्फ ब्रज में और कान्हा के पास. शायद इसीलिए आज भी हिन्दुस्तान की औरतें वृन्दावन में जमुना के किनारे एक पेड़ में रुमाल जितनी चुनड़ी बांधने का अभिनय करती हैं. कौन औरत नहीं चाहेगी कन्हैया से अपनी चुनड़ी हरवाना , क्योंकि कौन औरत नहीं जानती कि दुष्ट जनों द्वारा चीर हरण के समय कृष्ण ही उनकी चुनड़ी अनन्त करेगा. शायद जो औरतें पेड़ में चीर बांधती हैं , उन्हें यह सब बताने पर वह लजाएंगी , लेकिन उनके पुत्र पुण्य आदि की कामना के पीछे भी कौन – सी सुषुप्त याद है.

ब्रज की मुरली लोगों को इतना विह्वल कैसे बना देती है कि वे कुरुक्षेत्र के कृष्ण को भूल जायें और फिर मुझे तो लगता है कि अयोध्या का राम मनीपुर से द्वारका के कृष्ण को कभी भुलाने न देगा.जहां मैंने चीर बांधने का अभिनय देखा उसी के नीचे वृन्दावन के गंदे पानी का नाला बहते देखा , जो जमुना से मिलता है और राधा रानी के बरसाने की रंगीली गली में पैर बचा – बचा कर रखना पड़ता है कि कहीं किसी गंदगी में न सन जाये. यह वही रंगीली गली है , जहाँ से बरसाने की औरतें हर होली पर लाठी ले कर निकलती हैं और जिनके नुक्कड़ पर नन्द गांव में मर्द मोटे साफे बांध और बड़ी ढालों से अपनी रक्षा करते हैं.

राधा रानी अगर कहीं आ जाए , तो वह इन नालों और गंदगियों को तो खतम करे ही , बरसाने की औरतों के हाथ में इत्र , गुलाल और हल्के , भीनी महक वाले , रंग की पिचकाली थमाये और नन्द गांव के मरदों को होली खेलने के लिए न्योता दे. ब्रज में महक और नहीं है, कुंज नहीं है , केवल करोल रह गये हैं. शीतलता खतम है. बरसाने में मैंने राधारानी की अहीरिनों को बहुत ढूंढ़ा. पांच – दस घर होंगे. वहां बनियाइनों और ब्राह्मणियों का जमाव हो गया है , जब किसी जात में कोई बड़ा आदमी या बड़ी औरत हुई , तीर्थ – स्थान बना और मंदिर और दुकानें देखते – देखते आयीं , तब इन द्विज नारियों के चेहरे भी म्लान थे , गरीब , कृश और रोगी , कुछ लोग मुझे मूर्खतावश द्विज – शत्रु समझने लगे हैं. मैं तो द्विज – मित्र हूं , इसलिए देख रहा हूं कि राधारानी की गोपियां , मल्लाहिनों और चमाइनों को हटा कर द्विजनारियों ने भी अपनी कांति खो दी है. मिलाओ ब्रज की रज में पुष्पों की महक , दो हिन्दुस्तान को कृष्ण की बहुरूपी एकता , हटाओ राम का एक रूपी द्विज – शूद्र धर्म , लेकिन चलो राम के मर्यादा वाले रास्ते पर , सच और नियम पालन कर .

सरयू और यमुना कर्त्तव्य की नदियां हैं. कर्त्तव्य कभी – कभी कठोर हो कर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल , केन तथा दूसरी जमुना – मुखी नदियां रस की नदियां हैं. रस में मिलन है , कलह मिटाता है. लेकिन लास्य भी है , जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है. इसी रसभरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की , लेकिन कुरु धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया. बाद में , हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी , आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमि पर रसमय कर्त्तव्य का उदय होगा.कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं.कैसे तुमने राधा – लीला को कुरु लला से निभाया. लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा का नाम तक नहीं. बात इतनी सच नहीं , क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं. सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते , जो समझते हैं वे , और जो नहीं समझते हैं वे भी. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है. राधा का वर्ण्न तो वही होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक हैं. न जाने हजारों वर्ष से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है ? बताओ कृष्ण ! 


Saturday, 25 August 2018

बी पी मंडल (महामानव)

मंडल आयोग का नाम सभी ने (खासतौर पर पिछड़ा वर्ग ने ) अवश्य सुना है, लेकिन इस आयोग का नाम 'मंडल आयोग' क्यों पड़ा , यह बात शायद बहुत कम लोगो को मालुम होगी . दरअसल वर्ष 2018 बीपी मंडल का जन्मशती वर्ष भी है. इसलिए आइये एक छोटा सा परिचय जान लेते है इस मंडल आयोग और इसके महानायक के बारे में .

मंडल आयोग के महानायक बीपी यानि बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (यादव ) का जन्म 25 अगस्त, 1918 को बनारस में हुआ था. बीपी मंडल हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान जिस हॉस्टल में रहते थे. वहां पहले अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लड़कों को खाना मिलता उसके बाद ही अन्य छात्रों को खाना दिया जाता था. जातीय भेदभाव का यह हाल था कि इस स्कूल में अगड़ी जाती के छात्र बेंच पर बैठते थे और पिछड़े वर्ग के छात्र नीचे जमींन पर . इस अमानवीय भेदभाव के खिलाफ बी पी मंडल ने अपनी आवाज़ उठाई जिससे स्कुल के सभी पिछडे छात्रो को उनका बराबरी का हक मिल गया . 

अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वह कुछ दिन तक भागलपुर में एक मजिस्ट्रेट के रूप में कार्यरत रहे तत्पश्चात साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बन गये . कहा जाता है कि बीपी मंडल को राजनीति, विरासत में मिली थी और उनके पिता श्री रास बिहारी मंडल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे थे.

इसके बाद बीपी मंडल साल 1967 में लोकसभा के लिए चुने गए. किन्तु तब तक वह कांग्रेस छोड़कर समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया की अगुवाई वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता बन चुके थे.  संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में अपने कुछ मतभेदों के चलते उन्होंने उससे अलग होकर शोषित दल बनाया और कांग्रेस के समर्थन से 1 फरवरी, 1968 को बिहार के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए . उस दौर में पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले किसी शख्स के लिए यह उपलब्धी दुर्लभ ही थी .हालाकि इस महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर उन्हें मात्र 50 दिन तक रहने का ही सौभाग्य प्राप्त हुआ .


उनके नाम पर आधारित ऐतिहासिक 'मंडल आयोग' का गठन मोरारजी देसाई की सरकार के समय 1 जनवरी, 1979 को हुआ था किन्तु इसके बाद मोरार जी देसाई जी की सरकार ही गिर गयी . जिससे इस आयोग ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 31 दिसंबर 1980 को अपनी ऐतिहासिक रिपोर्ट सौंपी . रिपोर्ट सौपने के कुछ साल बाद 13 अप्रैल, 1982 को पटना में पिछडो के इस मसीहा बीपी मंडल की म्रत्यु हो गयी .



जीवन -म्रत्यु तो इस स्रष्टि का नियम है किन्तु महान व्यक्तित्वों को उनके महान कार्यो के बदौलत सदियों और युगों -युगों तक याद किया जाता है . बी पी मंडल के ऐसे ही ऐतिहासिक कार्यो की बदौलत देश में मौजूद 85 % बहुजन को समाज की मुख्य धारा में जीने का सुअवसर प्राप्त हुआ . उनके द्वारा निर्मित मंडल आयोग की रिपोर्ट को जनता दल की सरकार के दौरान लागू कर प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिह भी पिछडो के हिमायती बन गये . इसी मंडल आयोग की बदौलत सभी अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC) को नौकरियों में आरक्षण मिला और बाद में मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल के दौरान साल 2006 में उच्च शिक्षा में भी यह व्यवस्था प्रारम्भ की गयी  .

मंडल आयोग के कारण पिछडो को सरकारी नौकरियों में आरछ्न मिलना प्रारम्भ हुआ जिससे सदियों से दबी ये सभी कमजोर जातीया भी देश के पिछड़ेपन को दूर कर स्वयम खुशहाल हुई . इसके प्रभाव से समाज में व्याप्त ऊंच -नीच की खाई कुछ कम हुई जिससे सामाजिक भेदभाव में भी कमी आई एवं देश के समग्र विकास हेतु एक मुख्य नीव की स्थापना हुई . आज इसी महान आयोग के कारण पिछडो को नौकरियों और शिछा में आरछ्न का लाभ भले ही मिल गया हो किन्तु अभी इस आयोग में की गई कुछ अन्य अहम सिफ़ारिशों को ज़मीन पर उतारा जाना बाकी है. वास्तव में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों में शिक्षा-सुधार, भूमि-सुधार, पेशागत जातियों को सरकारी स्तर पर नई तकनीक और व्यापार के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराने से जुड़ी सिफ़ारिशें भी शामिल थी जिनका लागू होना अभी शेष है .



Monday, 20 August 2018

मुलायम सिह यादव (नेता जी)


“लोग मेरी बात सुनेगे शायद मेरे मरने के बाद लेकिन सुनेगे जरुर . आज नए नेतृत्व और नई खूबियों की जरुरत है . बहुत आराधना हो चुकी ...फल चढाना और यशोगान भी हो चुका . नेता रहेंगे ,अनेक नेता रहेंगे ,एक नेतृत्व रहेगा ....लेकिन नया नेतृत्व व् नए लोग राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नहीं ,गाव के स्तर के होंगे .”-------------डा राम मनोहर लोहिया




सन् 1960 में जैन इण्टर कालेज, करहल मैनपुरी में आयोजित एक कवि सम्मेलन में उस समय के विख्यात कवि दामोदर स्वरूप ‘विद्रोही’ ने अपनी चर्चित रचना 'दिल्ली की गद्दी सावधान!' सुनायी तो पुलिस का एक दरोगा मंच पर चढ़ आया और विद्रोही जी से माइक छीन कर बोला-"बन्द करो ऐसी कवितायेँ जो शासन के खिलाफ हैं." उसी समय कसे (गठे) शरीर का एक लड़का बड़ी फुर्ती से वहाँ पहुँचा और उसने उस दरोगा को मंच पर ही उठाकर दे मारा. विद्रोही जी ने मंच पर बैठे कवि उदय प्रताप सिह जी से पूछा ये नौजवान कौन है, तो पता चला कि यह नौजवान और कोई नही ,बल्कि मुलायम सिंह यादव है. उस समय मुलायम सिंह यादव उस कालेज के छात्र थे और उदय प्रताप सिंह वहाँ प्राध्यापक थे. तत्कालीन भ्रष्ट शासन व्यवस्था के खिलाफ नौजवान मुलायम सिह की यह हिम्मत और निर्भीकता शीघ्र ही आने वाली एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की चेतावनी ही तो थी . 

मुलायम सिह यादव 

मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई गांव में हुआ था. इनके पिता स्व. सुघर सिंह, और माता स्व. मूर्ति देवी थी .पिता स्वभाव से साहसी और काफी परिश्रमी थे . उन दिनों ग्रामीण परिवेश काफी पिछड़े होते थे और मूल जरुरतो से भी अभावग्रस्त होते थे . किसानी तथा पशुपालन ही लोगो की आजीविका का एकमात्र साधन होता था . इटावा जिले के सैफई गाव की हालत भी कुछ ऐसी ही थी . पिता किसान थे और बेटे मुलायम सिह जी को एक नामी पहलवान बनाना चाहते थे . किन्तु मुलायम सिह ने शिछा प्राप्त करने के साथ - साथ सामाजिक भेदभाव और अन्याय के खिलाफ सन्घर्ष को भी अपना आदर्श बनाए रखा . उन दिनों जब उत्तर प्रदेश सरकार ने सिचाई शुल्क में असामान्य व्रद्धी कर किसानो के हितो पर हमला किया तो समाजवादी नेता डा लोहिया ने राज्य के 13 जिलो में 'सिविल नाफरमानी आन्दोलन' की शुरुआत की, जिसे बाद में ‘नहर रेट आन्दोलन’ का नाम भी दिया गया था . मात्र 15 साल की हलकी उम्र में ही मुलायम सिह ने तत्कालीन समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के आह्वान पर ‘नहर रेट आन्दोलन’ में भाग लिया और इस आन्दोलन में वह पहली बार जेल गए. 



जेल से छूटने के बाद मुलायम सिह यादव ने 1960 में जैन इंटर कालेज करहल से इंटर की परीछा पास की और इटावा में के के कालेज में आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश ले लिया .यहा से स्नातक करने के बाद 1963 में ए के कालेज शिकोहाबाद से बैचलर आफ टीचिंग (BTC) की परीछा भी उत्तीर्ण कर ली . इसके पश्चात उन्होंने राजनीति शास्त्र में एम् ए किया और जैन कालेज में ही राजनीति शास्त्र के प्रवक्ता बन गए . शीघ्र ही उन्होंने राजनीति शास्त्र में आगरा विश्व विद्यालय से मास्टर डिग्री भी हासिल कर ली . इस प्रकार एक साधारण घर में जन्म लेकर मुलायम सिह यादव ने अपनी लगन और मेहनत से उच्च शिछा भी प्राप्त कर ली . कहा जाता है शिछा मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करती है . इसलिए इसे उनका पारिवारिक संस्कार कहा जाए या फिर उनकी शिछा का कमाल कि अब उनके चेहरे में गम्भीरता और आचरण में श्रेष्ठता भी नजर आने लगी.





























मुलायम सिह यादव पिछड़े समाज से ताल्लुक रखते थे और उस दौर में जातिवाद चरम पर था . मनुष्य का मनुष्य के साथ कैसा भेदभाव ? जब तक सामाजिक समानता नही होगी , देश आगे कैसे बढेगा . इन्ही विचारों से प्रेरित मुलायम सिह यादव ने पिछडो को जागरूक किया और ग्रामीण जनता में व्याप्त तमाम बंदिशों ,सामाजिक असमानता ,भ्रष्टाचार ,जन विरोधी सरकारी नीतियों आदि का सदैव विरोध किया . वह एक किसान परिवार से थे अत: किसानो को होने वाली समस्त समस्याओं को भली भाति जानते थे .उनका द्रढ़ विशवास था कि जब तक किसानो की हालत में सुधार नहीं होगा तब तक देश का भी कोई विकास होने वाला नहीं है . समाज और देश के विकास के लिए संघर्ष करने की मुलायम सिह की इस भावना से तत्कालीन स्थानीय समाजवादी नेता नत्थू सिह और अर्जुन सिह भदौरिया काफी प्रभावित हुए . उस वक्त देश में काग्रेस की सरकार होती थी और किसी प्रभावशाली विपछ के अभाव के कारण कांग्रेस की निरंकुशता से भ्रष्टाचार भी खूब फल -फूल रहा था . काग्रेस की इस निरंकुशता पर लगाम लगाने की खातिर कुजात गांधीवादी और समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया काफी सक्रिय थे . मुलायम सिह भी समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया के विचारों से पूरी तरह ओत- प्रोत हुए तथा भ्रष्टाचार से संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर लिया . मुलायम सिह ने डा लोहिया की नीतियों और आदर्शो को अपना मूल मन्त्र बनाया . इससे वह डा लोहिया के काफी नजदीक आते गये . यह निर्भीक मुलायम सिह जी का अद्भुत कुशल नेतृत्व था कि उनके नेतृत्व में सैकड़ो युवाओ की भीड़ ‘डा लोहिया जिंदाबाद ‘ व 'समाजवाद जिंदाबाद ‘ के नारों में अन्याय के खिलाफ तुरंत एकजुट हो जाती थी.


मुलायम सिह ने एक शिछक के रूप में समाज में कन्या शिछा पर विशेष बल दिया . उन्होंने सामाजिक जन जागरण पर समुचित ध्यान दिया . वह तत्कालीन रुढ़िवादी समाज में दकियानूसी परम्पराओ को नष्ट कर एक ऐतिहासिक सामाजिक बदलाव देखना चाहते थे . जिसका प्रारम्भ उन्होंने इटावा के आस पास के छेत्र को अपनी कर्म भूमि बना कर किया . उनकी बातो का लोगो पर काफी असर हुआ किन्तु सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया काफी मंद गति से होती है और यह आम तौर पर अद्रश्य भी होती है . मुलायम सिह जी काफी मेहनती और कर्मठ थे इसलिए उन्होंने हार मानना सीखा ही नहीं था –वह चाहे शिछा का छेत्र हो ,राजनीति का हो या फिर पहलवानी का अखाड़ा ही क्यों न रहा हो . उन्होंने अशिछा रूपी अभिशाप से पिछडे समाज को मुक्त कराने और उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने का भागीरथ प्रयास किया . इस प्रकार एक योग्य शिछक और क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में भी वह एकदम खरे साबित हुए . विद्यालय में उन्होंने अपने छात्रो का मार्गदर्शन करने के साथ -साथ उन्हें अनेक सामाजिक कुरीतियों जैसे दहेज प्रथा , बाल विवाह ,छुआ छुत ,जाती प्रथा आदि सभी से कोसो दूर रहने हेतु प्रेरित किया .




मुलायम सिह यादव को कुश्ती लड़ने का काफी शौक था और सौभाग्य से वह जिस दंगल में भी गए वहा सदैव विजयी ही रहे . समय निकाल कर वह डा लोहिया द्वारा सम्पादित समाचार पत्र ‘जन ‘ को भी सदैव पढ़ते रहते थे . जिससे लोहिया जी के विचारों का तेज उनमे और गहरा होता गया तथा पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए वह खुल कर सन्घर्ष करने लगे . कभी -कभी एकांत में वह डा लोहिया के ओजस्वी और मौलिक विचारों का एकाग्रता से चिंतन भी करते थे . शिछक होने के नाते भाषा और विषय की पकड़ तथा संघर्ष की जुझारू शैली ने उन्हें एक कुशल वक्ता के रूप में भी स्थापित कर दिया था . उनके भाषण आम जन समस्याओं के मुद्दों से युक्त और भ्रष्टाचार के खिलाफ होने के साथ -साथ काफी सरल होते थे जो जनता के दिलो में सीधे रम जाते थे . एक बार डा लोहिया जब इटावा में एक आम जन सभा को सम्बोधित करने आये, तो उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओ से मुलायम सिह यादव से मिलने की अपनी इच्छा व्यक्त की. इस मुलाक़ात के बाद उन्होंने श्री नत्थू सिह जी से मुलायम सिह के द्वारा छेत्र में किये गए सामाजिक कार्यो की काफी प्रशंशा की . 


























इस ऐतिहासिक मुलाक़ात के बाद मुलायम सिह ,डा लोहिया , जयप्रकाश के विचारों का अनुसरण करते हुए राजनीति में सयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संग समाज की सेवा करने के लिए पूरी तरह से सक्रिय हो गये . उस वक्त डा लोहिया की सयुक्त सोशलिस्ट पार्टी गरीबो की पार्टी थी . जिसके पास चुनाव लड़ने की खातिर धन की भी कमी रहती थी . तब नेहरु सरकार के भ्रष्टाचार के विरुद्ध डा लोहिया जी के ‘दाम बांधो ‘ आन्दोलन के कारण देश का पूंजीपति वर्ग काफी नाराज रहता था, इसलिए कही से पार्टी को धन मिलने का जुगाड़ भी नहीं था . ऐसी विषम परिश्थितियो में मुलायम सिह ने एक टूटी हुई साइकिल से ही अपने छेत्र का दौरा प्रारम्भ किया . हालांकि कुछ समय बाद कही से एक पुरानी जीप का जुगाड़ हो गया ,जिसके माध्यम से उन्होंने दूर -दराज की जनता से भी सम्पर्क साधना शुरू कर दिया . अपने जन सम्पर्क में वह लोगो को समाजवाद का वास्तविक अर्थ समझाते , उन्हें बताते कि समाजवाद का मतलब देश में समानता और खुशहाली लाना है . वह लोगो को समझाते कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए संघर्ष करना होगा . मुलायम सिह को उस दौर की यह बात भी काफी नागवार लगी कि जब किसी जाती विशेष के लोग सत्ता पर काबिज हो जाते है तो उनके कृत्य को विवेकपूर्ण और न्यायोचित कहा जाता है किन्तु वही जब हरिजन या पिछड़ी जाती के लोग अपने वाजिब अधिकारों की मांग करते है तो उन्हें जातिवादी कहकर उनका अपमान व तिरस्कार किया जाता है . उन्होंने अपने इन्ही क्रन्तिकारी विचारो को जनता तक पहुचाने के लिए 'क्रांति रथ ' का सहारा भी लिया . जनता के सुख -दुःख में शामिल होने से उनकी छवि गरीबो ,पिछडो के एक मसीहा के रूप में स्थापित होती चली गई . उनकी सभाओं में भारी भीड़ होने लगी . बढती लोकप्रियता से सन 1967 में जसवंत नगर सीट से मुलायम सिह जी भारी अंतर से चुनाव जीत गये और पहली बार विधान सभा में पहुचने में कामयाब हो हए . उस समय सदन में वह सबसे कम उम्र के विधायक होते थे . उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले बाहुबली नेता कांग्रेस के लाखन सिह यादव की जमानत ही जब्त हो गई थी . विधायक बनने के बाद मुलायम सिह ने पिछडो और गरीबो की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया . चुनाव जीतने के बाद भी उन्होंने जन समस्याओं हेतु अपना आन्दोलन जारी रखा और सितम्बर 1968 से दिसम्बर 1968 तक 3 महीने जेल में भी रहे . इसके पश्चात देश में आपातकाल के दौरान वह 19 महीने फिर से जेल में रहे. 





तत्कालीन वरिष्ठ किसान नेता चौधरी चरण सिह भी मुलायम सिह जी की कर्मठता और संघर्ष से काफी प्रभावित हुए . राजनीति की कर्म भूमि में मुलायम सिह यादव , अपने इष्ट राजनेता डा राम मनोहर लोहिया की लोहियावादी नीतियों को अपना आदर्श मान कर पिछडो ,गरीबो और किसानो के लिए निरंतर लड़ते रहे और पुन: वर्ष 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996, 2004 ,2007 और 2012 में भी उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए . मुलायम सिंह यादव अपनी अदम्य राजनैतिक इच्छाशक्ति व अपार लोकप्रियता के दम पर 1989 से 1991 तक, 1993 से 1995 तक और साल 2003 से 2007 तक 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने . साल 1982 से 1985 तक वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य और नेता विरोधी दल भी रहे . वह वर्ष 1985 से 1987 तक उत्तर प्रदेश विधान सभा में नेता, विरोधी दल बने और दुबारा फिर से 14 मई 2007 से 26 मई 2009 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विरोधी दल चुने गये . अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में मुलायम सिह यादव ने स्पष्ट किया ,जिस तरह से सरकार ने किसानो के लिए अधिकतम जोत सीमा निर्धारित कर दी है उसी तरह से अधिक पूंजी -सीमा का भी निर्धारण किया जाए और लघु उद्योगों को मजबूत किया जाए . 18 मार्च 1986 को एक कटौती प्रस्ताव रखते हुए उन्होंने कहा कि आई ए एस सेवा में पी सी एस सेवा का कोटा 50 % कर दिया जाए और समाज के पिछड़े ,हरिजन एवं अल्प संख्यक वर्ग को देश की मुख्य धारा में लाने हेतु इन वर्गो के लोगो को अधिकारी बनाया जाए . उन्होंने सरकारी खर्च का 60 % क्रषि छेत्र को देने की वकालत की एवं गांधीवाद की अवधारणा पर चलते हुए बड़े उद्योगों की जगह छोटे उद्योगों को मजबूत करने की सलाह भी दी . 





मण्डल आयोग की सिफारशो का दौर रहा हो या फिर राम मंदिर आन्दोलन का मुश्किल दौर .....मुलायम सिह यादव ने अपने कर्तव्यो और सवैधानिक मान मर्यादाओं का बखूबी साथ निभाया . उमके मुख्यमंत्री रहते कारसेवको पर गोली चलवाने का आरोप भी लगाया गया . किन्तु जिन्होंने ऐसा आरोप लगाया वे यह नही स्पष्ट कर सके कि मुलायम सिह के स्थान पर यदि कोई अन्य व्यक्ति मुख्यमंत्री होता तो संविधान और देश की एकता को कायम रखने हेतु अपने कर्तव्यो का निर्वाह आखिर और किस प्रकार करता ? हालांकि लोकतंत्र में ऐसी घटनाए दुखद होती है किन्तु इनके लिए किसी व्यक्ति विशेष को दोषी नही ठहराया जा सकता है . संवैधानिक कुर्सी पर बैठा हुआ व्यक्ति देश के सवैधानिक कर्तव्यो और जिम्मेदारियों से बंधा होता है और पद ग्रहण करने से पूर्व वह उनके पालन हेतु शपथ भी लेता है . इस प्रकार नैतिक रूप से व्यक्तिगत दोषारोपण उपयुक्त नही होता है . किन्तु कहा जाता है कि इसी दौर में मंडल आयोग को कमजोर करने के लिए कमंडल का यह खेल खेला गया था . ऐसी स्थितिया राजनीति में किसी के लिए भी कठिन फैसले वाली होती है , किन्तु मुलायम सिह ने इसे बड़े आत्मविश्वास के साथ देश की सवैधानिक मर्यादाओ के तहत ही निपटाया . कठिन परिस्थितियों और संघर्षो में ही एक विशिष्ट व्यक्ति के असाधारण होने की पहचान होती है . इसीलिए इस घटना ने मुलायम सिह यादव को देश में एक बड़े धर्म निरपेछ नेता के रूप में भी स्थापित किया और वह देश की राजनीति में एक और बड़े कद के साथ आगे आये . दछिनपंथियों ने उन्हें 'मुल्ला ' कहा तो उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर इसका भी राजनैतिक जवाब दिया . इससे मुस्लिमो में भी उनके प्रति विशवास बढ़ गया . हालांकि बाद में दछिनपंथी अपनी इस राजनैतिक भूल पर पछताते भी रहे . मुलायम सिह यादव किसानो और कार्यकर्ताओ के लिए बिलकुल सहज थे . लोकप्रियता से उनके अनुयायी और कार्यकर्ता उन्हें नेता जी और धरतीपुत्र के उपनामो से भी पुकारने लगे .....ये जनता का उनके प्रति अमिट और अगाध प्रेम ही है ,जो स्पष्ट करता है की उत्तर भारत में वह जनता के बीच कितना अधिक लोकप्रिय है . 


मुलायम सिह जी ने अपना राजनैतिक सफ़र सयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बाद लोकदल , जनता दल , जनता दल (S) तथा बाद में 4 अक्तूबर को लखनऊ में खुद की समाजवादी पार्टी बना कर जारी रखा . भारत के राजनीतिक इतिहास की यह एक क्रान्तिकारी घटना थी, जब लगभग डेढ़-दो दशकों से मृतप्राय समाजवादी आन्दोलन को उनके द्वारा पुनर्जीवित किया गया. 





‘राम मनोहर लोहिया आचरण की भाषा’- पुस्तक के अनुसार -

“बीसवी सदी के अंतिम दशक में समाजवादी पार्टी की श्री मुलायम सिह यादव की अध्यछ्ता में स्थापना कई दृष्टियों से भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना कही जायेगी उस वक्त मुलायम सिह ने बड़े साफ़ शब्दों में कहा था की समाजवादी पार्टी जाति युद्ध और जाती विद्वेष की राजनीति में विश्वास नही करती .हमारा प्रयास होगा की हम समाज के अगड़े वर्ग के लोगो को समझा बुझा कर उनकी सहमति के साथ पिछड़े लोगो को अधिक से अधिक अवसर प्रदान करे .साथ ही जो ऊची जातियों में गरीब और वंचित लोग है उनको भी पूरी तौर पर आरछ्ण और विकास की सुविधा मिले.सत्ता के विकेंदीकरण ,चौखम्भा राज्य की नीति, गावो को आत्म निर्भर बनाने की निति आदि पर गहराई से विचार विमर्श हुआ था.चाहे पिछड़े लोगो की बात हो ,देशी भाषा की बात हो ,साहित्य और संस्कृति को भरपूर समर्थन की बात हो, किसानो के हितो की बात हो, अल्पसंख्यको की रछा का मुद्दा हो,ग्राम पचायातो को अधिक से अधिक अधिकार देने की बात हो,नारी जाती को जीवन के हर छेत्र में सम्मानित करने की बात हो -मुलायम सिह यादव ने बहुत ही साफ़ सुथरी और संकल्पबद्ध दृष्टि का परिचय दिया है. समाजवादी विचारधारा को अधिक से अधिक आचरण की परिधि में ले आना मुलायम सिह जी की एक बड़ी उपलब्धि कही जायेगी.वे सत्ता का समाजवाद के लिए प्रयोग जिस जुझारूपन से करते है वह आश्चर्यजनक है. उनकी शैली की विशेषता है की वह कोई निर्णय बहादुरी और झटके के साथ ले लेते है.”



वर्ष 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में धरतीपुत्र मुलायम सिह यादव लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए .एच. डी. देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल की सरकारों में 1996 से 1998 तक वह भारत के रक्षामंत्री के पद पर आसीन हुए . घोटालो और भ्रष्टाचार की आंधी के दौर में मुलायम सिह यादव का रछा मंत्री कार्यकाल बिलकुल बेदाग़ रहा . राष्ट्र प्रेम और आम जनता के प्रति लगाव तो उनमे पहले से ही कूट- कूट कर भरा हुआ था . उनके रछा मंत्री के कार्यकाल में एक ऐसी ही घटना है जिसने देश की सेना और समस्त राष्ट्र का सर गर्व से उंचा कर दिया था . नेता जी देश के रछा मंत्री के रूप में देश की सीमाओं के निरीछन / दौरे पर एक चौकी पर गये हुए थे . उन दिनों सीमा पर पाकिस्तान की ओर से फायरिंग अक्सर होती रहती थी . चौकी पर नेता जी हेलीकाप्टर से उतरने के बाद जैसे ही जवानो से मुखातिब हुए ,पाकिस्तान की तरफ से अकारण ही फायरिंग शुरू हो गयी ,कोई अन्य नेता होता तो ,सम्भवत : ऐसे माहोल में वहा से खिसकना ही उचित समझता ,किन्तु मुलायम सिह यादव ने तुरंत वहा मौजूद सैन्य आधिकारियो से पूछा, यह क्या हो रहा है? वहा मौजूद सैन्य अधिकारियों ने उन्हें बताया कि, नेता जी ये पाकिस्तानी सैनिको की तरफ से जारी अकारण गोलीबारी है . इसे सुन कर मुलायम सिह यादव जी ने तुरंत कहा ,तो आप लोग क्या कर रहे है ? देश के रछा मंत्री की तरफ से आत्मविश्वास और देशभक्ति के ये बोल सुन कर सैनिको की छाती चौड़ी हो गयी और उन्होंने तुरन्त पाकिस्तानी फायरिंग का जवाब देना भी शुरू कर दिया . नेता जी वही डटे रहे और अपने सैनिको का उत्साह वर्धन करते रहे . इस प्रकार एक रछा मंत्री की जिम्मेदारियों को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया . साहस और निर्भीकता के साथ अपने पद की जिम्मेदारियों का निर्वाहन करने की ऐसी असाधारण प्रतिभा विरला ही देखने को मिलती है .उन्होंने रछा मंत्री रहते हुए सेनाओ में अनेक प्रशासनिक सुधार भी किये . पहले किसी सैनिक के शहीद होने पर उसका अंतिम संस्कार वही कर दिया जाता था, किन्तु मुलायम सिह ने ऐसी व्यवस्था बनायी कि अब शहीद सैनिको का शव पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके घर तक भेजा जाता है .

राजनीति में मुलायम सिह यादव ने सदैव सिद्धांतो को महत्व दिया . उनकी राजनैतिक दूरदर्शिता और फैसले लेने की कला और संगठन चलाने की छमता काफी अद्भुत है . उन्होंने समाजवादी नीतियों को व्यावहारिकता के धरातल पर उतारा और समाज के शोषित वर्ग को अपनी आवाज उठाने की ताकत दिलाई . वह अपने इष्ट डा लोहिया की तरह ही अंग्रेजी के स्थान पर राष्ट्रभाषा हिंदी को प्राथमिकता दिए जाने के पछधर रहे . उन्होंने उत्तर प्रदेश में उर्दू को हिंदी के बाद दूसरा स्थान प्रदान किया . हिंदी के छेत्र में विकास हेतु 'यश भारती ' सम्मान देने की प्रथा का शुभारम्भ भी किया . मुलायम सिह आज भी उम्र के इस पड़ाव पर सबसे कर्मठ राजनेता है और जनता के साथ अति सवेदनशील भी . उत्तर भारत में गाँधी ,लोहिया ,जयप्रकाश और राजनारायण जी के बाद मुलायम सिह अकेले ऐसे बड़े नेता है जो अपनी कड़ी मेहनत से देश की राजनीति में शून्य से शिखर तक पहुचे में कामयाब हुए . मुलायम सिह ने बचपन में गरीबी को बड़े करीब से देखा था इसलिए वह जब कभी भी सत्ता में आये तो गरीबो के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाये भी साथ ले कर आये . कन्याओं की शिछा की अपनी पुरानी मुहीम को उन्होंने कन्या विद्या धन के माध्यम से लागू किया और गरीब परिवार की बेटियों को आर्थिक सहायता देकर शिछित होने का सुनहरा अवसर प्रदान दिया . इसी के साथ उन्होंने बेरोजगारों को भत्ता और किसानो को कर्ज माफ़ी दे कर समाज की आर्थिक असमानता को भी दूर करने का अथक प्रयास किया . 


मुलायम सिह यादव सादगी पसंद व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते है . 12 अक्तूबर 1967 में समाजवाद के मूल स्तम्भ डा लोहिया की असमय म्रत्यु के बाद समाजवादी आन्दोलन में एक बिखराव सा आ गया . पहली पंक्ति के समाजवादी नेताओं जयप्रकाश ,मधु लिमये , आचार्य नरेंद्र देव आदि के बाद दूसरी पंक्ति के नेताओं में राजनारायण जी जाने जाते थे . राजनारायण जी ने आपातकाल और जनता पार्टी की सरकार में रह कर अपनी सार्थकता साबित कर दी . इसके बाद तमाम समाजवादी नेता चाहे वह जार्ज फर्नांडीज हो , लालू हो ,या नितीश रहे हो सभी अलग अलग पार्टी बना कर बंट गये . मुलायम सिह ने भी समाजवाद के साथ चलते हुए प्रदेश में ऐतिहासिक समाजवादी पार्टी की स्थापना कर दी . उनके तमाम साथी अवसरवादी होकर राह में उन्हें अकेला छोड़कर जाते रहे किन्तु मुलायम सिह अपने अदम्य साहस और समाजवादी नीतियों के साथ जनता के बीच पूरे आत्म विशवास के साथ डटे रहे . वह अपने अनेक साथियो के चले जाने से तनिक भी विचलित नहीं हुए और नए आत्मविश्वास से अपने विरोधियो को पराजित करते रहे . आम जनता के लिए वह अन्याय और भ्रष्टाचार से सन्घर्ष करते रहे और जनता भी उनका साथ बखूबी निभाती रही .किन्तु लोकतंत्र में सत्ता कभी स्थाई तौर पर किसी के पास नहीं रूकती है , जनता के पास जो बेहतर विकल्प होता है वह उसी पर अपनी मुहर लगाती है . राजनीति में घोर प्रतिस्पर्धा के साथ -साथ अन्य दलों में नैतिकता समाप्त होती गयी . ऐसे समय में नेता जी के सामने डा लोहिया के समाजवाद के साथ राजनैतिक ब्रह्मचारी बने रहने की कठिन चुनौती भी आ गयी . देश की राजनीति दलीय न होकर गठ्बन्धन की हो गयी . इस हालत में नेता जी ने समान विचारधारा वाले दलों के साथ समाजवादी पार्टी का गठबंधन कर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी ताकत का एहसास भी कराया . उत्तर प्रदेश में दशको से मौजूद 2 बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के बीच अपनी मजबूत स्थिति बना लेना मुलायम सिह के श्रेष्ठ राजनैतिक कौशल का ही परिणाम है . मुलायम सिह ने संविधान के अनुसार देश की धर्म निरपेछ विचारधारा का सदैव सम्मान किया . जिसके फलस्वरूप पुरे देश में उनका कद बढ़ता ही गया . 1996 में तो वह केंद्र में प्रधानमंत्री बनते -बनते रह गए . यहाँ भी उनके कुछ पुराने समाजवादी मित्रो के असहयोग के कारण यह अप्रिय स्थिति आई वर्ना वह प्रधानमंत्री तो बन ही जाते .किन्तु मुलायम सिह जी के व्यक्तित्व का ये अद्भुत पहलू है की वह अपने मित्रो की कभी आलोचना नहीं करते ,शायद वह यह भली भाँती जानते है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्ती या दुश्मनी नहीं रहती है . मुलायम सिह जी के व्यक्तित्व का कमाल है कि उनके विरोधी भी उनकी काफी तारीफ़ करते है . उन्होंने एक कुशल राजनेता की भाँती सभी राजनेताओ से मधुर सम्बन्ध स्थापित किये .





जब गठबंधन की राजनीति के दौर में सभी राजनैतिक दलों के द्वारा भीड़ को इकट्ठा करना महत्वपूर्ण होता गया . देश में धर्म और जाती की राजनीति की नई परम्पराए शुरू हो गई . इस राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में मुलायम सिह जी को समाजवादी पार्टी के वजूद को कायम रखने के लिए कड़ी चुनौतिया मिलने लगी . इन सबके बीच मुलायम सिह जी ने अपना संतुलन बनाये रखा और जनता के समछ खुद को एक सशक्त विकल्प के रूप में स्थापित किया . जब कभी समाजवादी मूल्यों से उनकी पार्टी का भटकाव हुआ तो जनता ने भी उन्हें समय आने पर सत्ता से बाहर कर दिया . किन्तु मुलायम सिह जी डा लोहिया के विचारों से ओत प्रोत थे अत: सत्ता या विपछ दोनों जगह वह जनता से नजदीक रहते और जन कल्याणकारी मुद्दों के पैरोकार बने रहते . जिसके फलस्वरूप जनता की नजर में वह सदैव अपना और पार्टी का कद ऊंचा करते गए .




मुलायम सिह यादव पर समाजवाद से भटकने और परिवार वाद के आरोप भी विरोधियो के द्वारा समय समय पर लगते रहे है . किन्तु ये आरोप कम, विरोधियो की साजिश ज्यादा साबित हुए .लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुनने के बाद इस विवाद की जड़ स्वत: कमजोर हो जाती है .अवसर वादिता की राजनीति से कोई दल अछूता नहीं रहा किन्तु फिर भी मुलायम सिह जी ने कभी भी अपने धर्मनिर्पेछ रुख से कोई समझौता नहीं किया . डा लोहिया की समाजवादी नीतियों और कार्यक्रमों को मुलायम सिह की पार्टी ने उनके मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान और अखिलेश यादव की सरकार के दौरान भी विभिन्न योजनाओं के तहत लागू किया . 

काश अगर वैट जैसे मुद्दों पर मुलायम सिह जी की बातो को तत्कालीन केंद्र सरकार ने समझा होता तो महंगाई का आज ये आलम ही नही होता . लगभग 80 साल के नेता जी आज भी किसी अन्य नेता के मुकाबले सबसे अधिक चुनावी रैली करते है और उनकी रैलियों में भीड़ उनके बिलकुल नजदीक आना चाहती है . उनके राजनीति में लम्बे अनुभव और समाज सेवा को द्रष्टिगत करते हुए नेता जी को इंटरनेश्नल जूरी एवार्ड से भी सम्मानित किया जा चूका है . राजनीति के इस धुरंधर समाजवादी नेता ने डा लोहिया के आदर्शो पर चलते हुए देश में समाजवाद को नई ऊँचाइया दी है . आज जहा दोनों राष्ट्रीय पार्टिया पर घोटालो और भ्रष्टाचार के भीषण आरोप है ऐसे में उत्तर प्रदेश में उनकी समाजवादी पार्टी के विकास कार्यो ने जनता के दिलो को जीत लिया है .






























































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Sunday, 19 August 2018

राष्ट्र भाषा 'हिंदी' और 11 वा विश्व हिंदी सम्मेलन

(चित्र - 11वे विश्व हिंदी सम्मेलन का लोगो -मोर और डोडो )






11वा विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरिशस में प्रारम्भ हो चूका है . यह कार्यक्रम 18 अगस्त 2018 से 20 अगस्त 2018 तक मारीशस में चलेगा . भारत की तरफ से इस बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी इस कार्यक्रम में भाग ले रही है . हालांकि यह एक विडम्बना ही कही जायेगी कि एक तरफ हमारी सरकारे अंग्रेजी शिछा को बढ़ावा देकर हिंदी की जडो में मटठा डाल रही है तो वही दूसरी तरफ विश्व स्तर पर हिंदी के प्रचार -प्रसार का ढोंग भी करती जा रही है .


सम्भवत: आज हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी विश्व की लाखो भाषाओं में सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर की भाषा होगी ,किन्तु आजादी के बाद से ही देश के अंदर इसके अस्तित्व को अंग्रेजी भाषा से खतरा बढ़ता चला जा रहा है .



अंग्रेजी राज में 1857 की असफल क्रान्ति के बाद स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु जन- जागरण बेहद आवश्यक था जिसके लिए एक सामान्य भाषा की अत्यंत आवश्यकता महसूस हुई . इस प्रकार देश वासियों को स्वाभिमान को जगाने हेतु हिंदी एक सम्पर्क भाषा बन गयी और इससे इसे व्यापक प्रचार -प्रसार भी मिला . लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ,लाला लाजपत राय , पंडित मदन मोहन मालवीय , महात्मा गांधी आदि ने अंग्रेजी मानसिकता के विरुद्ध हिंदी को मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त किये जाने की सख्त वकालत की . कहा जाता है कि पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद के साथ मिलकर न्यायालय में हिन्दी और देवनागरी के लिए जोरदार संघर्ष भी किया. पंडित जी का कहना था कि जनता को न्याय दिलाने के लिए न्यायालय की भाषा हिन्दी ही होनी चाहिए. हिन्दी प्रचार के अग्रणी नेता मालवीय जी 10 अक्तूबर, 1910 को सम्पन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष भी रहे थे.

इसी प्रकार सन् 1917 में गुजरात के भड़ौच गुजरात शिक्षा परिषद् के अधिवेशन में महात्मा गांधी जी ने भी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का पुरजोर विरोध किया और हिन्दी के महत्त्व पर मुक्तकंठ से चर्चा की थी . उन्होंने कहा था , राष्ट्र की भाषा अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाना देश में ‘एैसपेरेण्टों’ (एैसपेरेण्टों) को दाखिल करना है. अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कल्पना हमारी निर्बलता की निशानी है. उन्होंने सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर के अधिवेशन में अपना हिन्दी-प्रेम प्रकट करते हुए कहा था, आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें. हिन्दी सब समझते हैं. इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए. देश में शिक्षा के सशक्त माध्यम पर चर्चा करते हए गाँधी जी ने 2 सितम्बर, 1921 को कहा था, अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ. 


बापू के अनुसार , "करोड़ों लोगों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना उन्हें ग़ुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच ग़ुलामी की बुनियाद थी. अंग्रेज़ी भाषा हमारे राष्ट्र के पाँव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है. भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेज़ी के मार्फ़त ज्ञान अर्जित करने पर कम से कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं, यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें, तो फिर और क्या हो सकता है ". वह कहते थे , "हिंदी और उर्दू नदियाँ हैं और हिन्दुस्तान सागर है. हिंदी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ना नहीं चाहिए, दोनों का मुक़ाबला तो अंग्रेज़ी से है". गाँधी जी कहते थे "मेरी मातृभाषा में कितनी ही ख़ामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह से चिपटा रहूँगा, जिस तरह से बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है. अगर अंग्रेज़ी उस जगह को हड़पना चाहती है, जिसकी वह हक़दार नहीं है, तो मैं उससे सख़्त नफ़रत करूँगा. वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों–करोड़ों की नहीं".


राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापकों में से एक थे. आजादी के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने भी कहा था , मेरा दृढ़ मत है कि कोई भी शख्स अपनी मातृभाषा के द्वारा ही तरक्की कर सकता है..... देश भर को बाँधने के लिए, भारत के भिन्न-भिन्न हिस्से एक-दूसरे से संबंधित रहें, इसके लिए हिन्दी की जरूरत है. आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिशचन्ट्ठद्र जी ने भी हिंदी साहित्यकारों का एक मण्डल बनाया था जिसमे भारतेन्दु हरीशचन्द्र के साथ अन्य सक्रिय सदस्य थे- पं. प्रताप नारायण मिश्र, पं. बालकृष्ण भट्ट, बदरी नारायण चौधरी, श्रीनिवास दास, बालमुकुंद गुप्त, रमाशंकर व्यास और तोताराम. भारतेन्दु हरीशचन्द्र जी ने हिन्दी पर व्याख्यान देते हुए कहा था- 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल'.


हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी जी कहा करते थे , 'हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है, वह तो है ही'. किन्तु आख़िरकार 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी देश की राजभाषा के पद पर भी प्रतिष्ठित हो गयी . किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाए कि राष्ट्रभाषा होने के बावजूद भी हिंदी भेदभाव का शिकार बनी रही . देश में जनसंख्या के हिसाब से हिंदी भले ही ताकत में भारी बैठती हो किन्तु भाषाई सत्ता तो अंग्रेजी के हाथो में ही बनी रही . नेहरु राज में ही अंग्रेजी की जड़े मजबूत करने की जो बुनियाद रख दी गयी थी , कालान्तर में वह आलीशान बंगले में ही तब्दील होती चली गयी . जिसके कारण 29 नवंबर 1967 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने भाषा से सवाल पर एक आंदोलन किया. जिस पर विरोध कर रहे युवाओं पर पुलिस ने गोली चला दी , इसमें 2 छात्र घायल हुए . इस हिंसक घटना के बाद संसद का घेराव तक हुआ लेकिन जल्द ही बात आई -गयी हो गयी . किन्तु इसी दौर में गैर कांग्रेसवाद के जनक , कुजात गांधीवादी, समाजवाद के मूल स्तम्भ और प्रखर समाजवादी चिंतक डा राम मनोहर लोहिया जी भी अपना 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' चला कर देश को अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से आजाद करवाने हेतु अथक प्रयत्न कर रहे थे . वह कहते थे , "यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएं, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें, तो यह केवल एक प्रकार का जादू-टोना होगा ,अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए". डा लोहिया अंग्रेजी के स्थान पर किसी भी अन्य प्रांतीय भाषा के वर्चस्व को स्वीकार करने के पछ में थे .वह स्वयम अंग्रेजी भाषा के साथ जर्मन भाषा के जानकार थे , किन्तु लोकभाषा और मातृभाषा को ही श्रेष्ठ मानते थे . उनका विचार था कि ," मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोक राज्य असंभव है. कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती हैं यह प्रश्न नहीं है. हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी. अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये."

डा राम मनोहर लोहिया जी के 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' की गणना अब तक के कुछ गिने -चुने आंदोलनों में की जा सकती है. उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था. इसीलिए वह कहते थे , ‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें. इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं '. डा लोहिया की पुस्तको से उनके अंदर का एक उच्चकोटि का साहित्यकार व प्रखर मौलिक चिंतक भी नजर आता है .


डा राम मनोहर लोहिया के जाने के बाद देश में 'अंग्रेजी हटाओ ' के बजाय 'अंग्रेजी पचाओ ' ही प्रारम्भ हो गया . अंग्रेजी का जनाधार दिन ब दिन बढ़ता ही चला गया और आज ऐसी दुरूह स्थिति बन चुकी है की सोशल मिडिया हो या फिर आम बोल चाल , हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी चारो तरफ अपने जलवे दिखाती नजर आती है . मीडिया और नौकरियों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलने के कारण युवाओं में अब हिंदी साहित्य के प्रति कोई आकर्षण भी नही रहा है . हालात कुछ ऐसे हो चुके है कि राष्ट्रभाषा हिंदी के अतिरिक्त देश की अन्य प्रांतीय मातृभाषाये भी अंग्रेजी के सामने टिक पाने में असमर्थ दिखाई दे रही है . सरकार चाहे तो अपनी नीतियों से हिंदी को बढ़ावा देकर अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर लगाम लगा सकती है . किन्तु देश में नेहरु राज रहा हो या फिर हिंदी के कवि अटल बिहारी बाजपेयी जी का ही प्रधानमन्त्री कार्यकाल , वास्तविकता के धरातल पर अंग्रेजी के आगे राष्ट्रभाषा हिंदी को प्राथमिकता नही मिल सकी है . 






Wednesday, 1 August 2018

भारत में जेलों की दयनीय स्थिति

देश में आम जेलों की हालत काफी बदहाल है . अधिकांश जेलों में छमता से बहुत अधिक कैदी रह रहे है . जेलों की बदहाल व्यवस्था के कारण अधिकतर जेले आम कैदियों के लिए नरक तो बड़े अपराधियों के लिए आरामगाह का स्थान साबित हो रही है .




नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया, 2015 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कई जेलें, कैदियों की संख्या के लिहाज से छोटी पड़ रही हैं. इसके अनुसार भारतीय जेलों में क्षमता से 14 फीसदी ज़्यादा कैदी रह रहे हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ और दिल्ली देश में सबसे आगे हैं, जहां की जेलों में क्षमता से दोगेुने से ज़्यादा कैदी हैं. दिलचस्प बात ये भी है कि भारतीय जेलों में बंद 67 फीसदी लोग विचाराधीन कैदी हैं. यानी वे लोग , जिन्हें मुकदमे, जांच या पूछताछ के दौरान हवालात में बंद रखा गया है, न कि कोर्ट द्वारा किसी मुकदमे में दोषी क़रार दिए जाने की वजह से इन जेलों में बंद किया गया है . इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भारत की जेलों में ट्रायल या विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत काफी ज़्यादा है. उदाहरण के लिए इंग्लैंड में यह 11% है, अमेरिका में 20% और फ्रांस में 29% है. क्या भारत के संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों के अनुसार ऐसे विचाराधीन कैदियों को उनके दोषी सिद्ध होने से पहले तक निर्दोष नही माना जाता है.









वही जेल में कर्मचारियों की अपर्याप्त संख्या जेलों के भीतर बड़े पैमाने पर हिंसा और अन्य आपराधिक गतिविधियों की वजह भी बनती है. जेलों के अंदर वर्ष 2015 में हर रोज औसतन 4 कैदियों की मौत हुई थी और कुल मिलाकर 1,584 कैदियों की जेल में ही मृत्यु हो गई. इनमें 14,69 मौतें स्वाभाविक थीं, जबकि बाकी मौतों के पीछे अस्वाभाविक कारणों का हाथ माना गया. जेलों में बंद महिलाओ की बात करे तो भारत में लगभग 18 हजार महिलाएं जेलों में बंद हैं और इनमें से 9 फीसदी तो अपने बच्चों के साथ ही यहां रहती हैं. आम पुरुषो की तरह ही इन जेलो में बंद महिला कैदियों की स्थिति भी बदहाल है. समय-समय पर इनके यौन शोषण की खबरें भी आती रहती हैं. NCRB के आंकड़ों के अनुसार , वर्ष 2014 में हालातों व यौन उत्पीड़न से आजिज आकर 51 महिला कैदियों ने आत्महत्या ही कर ली थी. 


स्पष्ट है कि देश की जेलो में आर्थिक रूप से कमजोर आम नागरिको के लिए सजा काटना कितना दुस्वार है . वही बड़े रसूख वाले लोग जेलों में आने से पहले ही अपने लिए सुविधाओ की व्यवस्था करवा लेते है . क्या यह बात जेलों में बंद कुछ कमजोर अपराधियों के साथ न्यायोचित है ?