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(चित्र - 11वे विश्व हिंदी सम्मेलन का लोगो -मोर और डोडो ) |
11वा विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरिशस में प्रारम्भ हो चूका है . यह कार्यक्रम 18 अगस्त 2018 से 20 अगस्त 2018 तक मारीशस में चलेगा . भारत की तरफ से इस बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी इस कार्यक्रम में भाग ले रही है . हालांकि यह एक विडम्बना ही कही जायेगी कि एक तरफ हमारी सरकारे अंग्रेजी शिछा को बढ़ावा देकर हिंदी की जडो में मटठा डाल रही है तो वही दूसरी तरफ विश्व स्तर पर हिंदी के प्रचार -प्रसार का ढोंग भी करती जा रही है .
सम्भवत: आज हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी विश्व की लाखो भाषाओं में सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर की भाषा होगी ,किन्तु आजादी के बाद से ही देश के अंदर इसके अस्तित्व को अंग्रेजी भाषा से खतरा बढ़ता चला जा रहा है .
अंग्रेजी राज में 1857 की असफल क्रान्ति के बाद स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु जन- जागरण बेहद आवश्यक था जिसके लिए एक सामान्य भाषा की अत्यंत आवश्यकता महसूस हुई . इस प्रकार देश वासियों को स्वाभिमान को जगाने हेतु हिंदी एक सम्पर्क भाषा बन गयी और इससे इसे व्यापक प्रचार -प्रसार भी मिला . लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ,लाला लाजपत राय , पंडित मदन मोहन मालवीय , महात्मा गांधी आदि ने अंग्रेजी मानसिकता के विरुद्ध हिंदी को मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त किये जाने की सख्त वकालत की . कहा जाता है कि पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद के साथ मिलकर न्यायालय में हिन्दी और देवनागरी के लिए जोरदार संघर्ष भी किया. पंडित जी का कहना था कि जनता को न्याय दिलाने के लिए न्यायालय की भाषा हिन्दी ही होनी चाहिए. हिन्दी प्रचार के अग्रणी नेता मालवीय जी 10 अक्तूबर, 1910 को सम्पन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष भी रहे थे.
इसी प्रकार सन् 1917 में गुजरात के भड़ौच गुजरात शिक्षा परिषद् के अधिवेशन में महात्मा गांधी जी ने भी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का पुरजोर विरोध किया और हिन्दी के महत्त्व पर मुक्तकंठ से चर्चा की थी . उन्होंने कहा था , राष्ट्र की भाषा अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाना देश में ‘एैसपेरेण्टों’ (एैसपेरेण्टों) को दाखिल करना है. अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कल्पना हमारी निर्बलता की निशानी है. उन्होंने सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर के अधिवेशन में अपना हिन्दी-प्रेम प्रकट करते हुए कहा था, आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें. हिन्दी सब समझते हैं. इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए. देश में शिक्षा के सशक्त माध्यम पर चर्चा करते हए गाँधी जी ने 2 सितम्बर, 1921 को कहा था, अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ.
बापू के अनुसार , "करोड़ों लोगों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना उन्हें ग़ुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच ग़ुलामी की बुनियाद थी. अंग्रेज़ी भाषा हमारे राष्ट्र के पाँव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है. भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेज़ी के मार्फ़त ज्ञान अर्जित करने पर कम से कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं, यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़ें, तो फिर और क्या हो सकता है ". वह कहते थे , "हिंदी और उर्दू नदियाँ हैं और हिन्दुस्तान सागर है. हिंदी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ना नहीं चाहिए, दोनों का मुक़ाबला तो अंग्रेज़ी से है". गाँधी जी कहते थे "मेरी मातृभाषा में कितनी ही ख़ामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह से चिपटा रहूँगा, जिस तरह से बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है. अगर अंग्रेज़ी उस जगह को हड़पना चाहती है, जिसकी वह हक़दार नहीं है, तो मैं उससे सख़्त नफ़रत करूँगा. वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों–करोड़ों की नहीं".
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापकों में से एक थे. आजादी के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने भी कहा था , मेरा दृढ़ मत है कि कोई भी शख्स अपनी मातृभाषा के द्वारा ही तरक्की कर सकता है..... देश भर को बाँधने के लिए, भारत के भिन्न-भिन्न हिस्से एक-दूसरे से संबंधित रहें, इसके लिए हिन्दी की जरूरत है. आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिशचन्ट्ठद्र जी ने भी हिंदी साहित्यकारों का एक मण्डल बनाया था जिसमे भारतेन्दु हरीशचन्द्र के साथ अन्य सक्रिय सदस्य थे- पं. प्रताप नारायण मिश्र, पं. बालकृष्ण भट्ट, बदरी नारायण चौधरी, श्रीनिवास दास, बालमुकुंद गुप्त, रमाशंकर व्यास और तोताराम. भारतेन्दु हरीशचन्द्र जी ने हिन्दी पर व्याख्यान देते हुए कहा था- 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल'.
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी जी कहा करते थे , 'हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है, वह तो है ही'. किन्तु आख़िरकार 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी देश की राजभाषा के पद पर भी प्रतिष्ठित हो गयी . किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाए कि राष्ट्रभाषा होने के बावजूद भी हिंदी भेदभाव का शिकार बनी रही . देश में जनसंख्या के हिसाब से हिंदी भले ही ताकत में भारी बैठती हो किन्तु भाषाई सत्ता तो अंग्रेजी के हाथो में ही बनी रही . नेहरु राज में ही अंग्रेजी की जड़े मजबूत करने की जो बुनियाद रख दी गयी थी , कालान्तर में वह आलीशान बंगले में ही तब्दील होती चली गयी . जिसके कारण 29 नवंबर 1967 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने भाषा से सवाल पर एक आंदोलन किया. जिस पर विरोध कर रहे युवाओं पर पुलिस ने गोली चला दी , इसमें 2 छात्र घायल हुए . इस हिंसक घटना के बाद संसद का घेराव तक हुआ लेकिन जल्द ही बात आई -गयी हो गयी . किन्तु इसी दौर में गैर कांग्रेसवाद के जनक , कुजात गांधीवादी, समाजवाद के मूल स्तम्भ और प्रखर समाजवादी चिंतक डा राम मनोहर लोहिया जी भी अपना 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' चला कर देश को अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से आजाद करवाने हेतु अथक प्रयत्न कर रहे थे . वह कहते थे , "यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएं, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें, तो यह केवल एक प्रकार का जादू-टोना होगा ,अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए". डा लोहिया अंग्रेजी के स्थान पर किसी भी अन्य प्रांतीय भाषा के वर्चस्व को स्वीकार करने के पछ में थे .वह स्वयम अंग्रेजी भाषा के साथ जर्मन भाषा के जानकार थे , किन्तु लोकभाषा और मातृभाषा को ही श्रेष्ठ मानते थे . उनका विचार था कि ," मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोक राज्य असंभव है. कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती हैं यह प्रश्न नहीं है. हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी. अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये."
डा राम मनोहर लोहिया जी के 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' की गणना अब तक के कुछ गिने -चुने आंदोलनों में की जा सकती है. उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था. इसीलिए वह कहते थे , ‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें. इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं '. डा लोहिया की पुस्तको से उनके अंदर का एक उच्चकोटि का साहित्यकार व प्रखर मौलिक चिंतक भी नजर आता है .
डा राम मनोहर लोहिया जी के 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' की गणना अब तक के कुछ गिने -चुने आंदोलनों में की जा सकती है. उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था. इसीलिए वह कहते थे , ‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें. इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं '. डा लोहिया की पुस्तको से उनके अंदर का एक उच्चकोटि का साहित्यकार व प्रखर मौलिक चिंतक भी नजर आता है .
डा राम मनोहर लोहिया के जाने के बाद देश में 'अंग्रेजी हटाओ ' के बजाय 'अंग्रेजी पचाओ ' ही प्रारम्भ हो गया . अंग्रेजी का जनाधार दिन ब दिन बढ़ता ही चला गया और आज ऐसी दुरूह स्थिति बन चुकी है की सोशल मिडिया हो या फिर आम बोल चाल , हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी चारो तरफ अपने जलवे दिखाती नजर आती है . मीडिया और नौकरियों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलने के कारण युवाओं में अब हिंदी साहित्य के प्रति कोई आकर्षण भी नही रहा है . हालात कुछ ऐसे हो चुके है कि राष्ट्रभाषा हिंदी के अतिरिक्त देश की अन्य प्रांतीय मातृभाषाये भी अंग्रेजी के सामने टिक पाने में असमर्थ दिखाई दे रही है . सरकार चाहे तो अपनी नीतियों से हिंदी को बढ़ावा देकर अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर लगाम लगा सकती है . किन्तु देश में नेहरु राज रहा हो या फिर हिंदी के कवि अटल बिहारी बाजपेयी जी का ही प्रधानमन्त्री कार्यकाल , वास्तविकता के धरातल पर अंग्रेजी के आगे राष्ट्रभाषा हिंदी को प्राथमिकता नही मिल सकी है .
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