सज्जन लोग उजड़ने पर जहाँ भी जायेंगे वहां अपनी सज्जनता से उत्तम वातावरण का निर्माण करेंगे. परंतु दुष्ट और दुर्जन व्यक्ति जहाँ विचरण करेगा वहां, अपने आचार-विचार से वातावरण दूषित करेगा.----गुरुनानक
उपरोक्त विचार एक प्रसंग में गुरुनानक जी ने व्यक्त किया था . नानक जी का कहने का भाव यही था कि दुनिया भर के सज्जन या अच्छे इंसानों को किसी एक स्थान पर सीमित नही रहना चाहिए ,बजाय इसके उन्हें समाज में चल रही बुराइयों को समाप्त करने हेतु चारो तरफ फ़ैल जाना चाहिए . अच्छे लोगो की बेरुखी से समाज में गलत विचारो का बोलबाला हो जाता है . समय की कसौटी पर गुरु नानक देव जी की यह बात सौ प्रतिशत सही है .
बालक नानक का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में कार्तिकी पूर्णिमा को 1469 में एक खत्री परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम लाला कल्याण राय था जिन्हें लोग मेहता कालू के नाम से जानते थे और माता का नाम तृप्ता देवी था. इनके जन्मस्थान तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया.
बाल्यकाल से ही नानक प्रतिभासम्पन्न एव विशिष्ट स्वभाव से युक्त थे . वह समस्त सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे. पढ़ने लिखने में भी इनका मन नहीं लगता था और 7 -8 साल की उम्र में ही स्कूल छूट गया . इसके बाद नानक अपना समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे.
नानक के पिता मेहता कालू अपने बेटे नानक को भी पढ़ा -लिखा कर अपनी ही तरह एक मुनीम बनाना चाहते थे और सांसारिक जीवन में कैद कर देना चाहते थे . इसी क्रम में नानक का विवाह बालपन मे 16 वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से कर दिया गया .विवाह के बाद भी नानक का अध्यात्म के प्रति मोह नहीं गया और गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ. इसके 4 वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का भी जन्म हुआ. दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार की जिम्मेदारियों को अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकल पडे़. अपने भ्रमण काल में वह अफगानिस्तान , फारस और अरब भी गए . वह अपनी यात्राओ के दौरान घूम -घूम कर लोगो को मानवता की सीख देते . वह समस्त सामाजिक कुरीतियों का विरोध करते थे और मूर्ति पूजा के स्थान पर सीधे परमात्मा की उपासना को प्रमुख मानते थे . इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है उसकी उपासना हिंदू मुसलमान दोनों के लिये हैं. ये भक्ति काल का दौर था जब हिंदू और मुसलमान दोनों मज़हबों से लोग उकताने लग गये थे. तब स्त्रियों की हालत भी काफी बदतर थी. ऐसे विकट समय में नानक वास्तव में हिन्दू और मुसलमान दोनो धर्मो के मतावलम्बियो के मध्य की खाई भर रहे थे और इसी राह पर चलते हुए उन्होंने दोनों धर्मों के बीच से होते हुए ‘सिख’ धर्म की स्थापना की. अपने अनुयाइयो को नानक ने एकेश्वरवाद का सिद्धांत दिया. उन्होंने ईश्वर को निरंकार माना, उसे एक रौशनी माना. उन्होंने कहा ईश्वर एक गूंज है जो अनहद-नाद के समान पूरे ब्रह्मांड में फैला हुआ है.
नानक ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे. पर उनके लिखे 976 दोहे, बाणियां जिनमें हिंदी, फ़ारसी, अरबी लफ़्ज़ों का इस्तेमाल है . इनमें कही बातों में वेद, पुराण, कुरान, योग-शास्त्र, पतंजलि सबका सार है. डॉक्टर गोपाल सिंह की पुस्तक ‘सिखों का इतिहास’ के अनुसार ‘जब नानक 13 साल के हुए थे तो पिता द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार में जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया था . नानक ने कहा मुझे वो धागा पहनना है जो न ख़राब हो, न जले, न मिटटी में मिले. इंसान अपने कर्मों से जाना जाए न कि किसी धागे से.’ जाहिर है नानक की विचारधारा आडम्बर रहित होकर समत्वयुक्त और किसी समयकाल से परे थी . बाद में उन्होंने लोगों की धारणाओं, अंध-मान्यताओं पर अक्सर सवाल उठाये. बनारस में उन्होंने पंडितों को नदी में खड़े होकर पूर्व की दिशा की ओर जल अर्पित करते देखा. पूछने पर मालूम हुआ कि वे लोग अपने पूर्वजों का पिंड दान कर रहे थे. नानक ये देखकर पश्चिम की तरफ़ जल अर्पित करने लग गए. जब पंडितों ने उनसे पूछा, तो कहा - ‘वो क्या है कि मेरे खेत पश्चिम दिशा की तरफ हैं, मैं उन्हें पानी दे रहा हूं’. कुछ इसी तरह उन्होंने मक्का की तरफ पैर रखकर सोते हुए टोके जाने पर कहा - ‘मेरे पैर उस तरफ़ कर दो जहां मक्का न हो.’ इसी प्रकार समाज में महिलाओं की बदहाली पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा और कहा भी.
कहा जाता है कि एक समय गुरु नानक देव और उनका चेला मरदाना अमीनाबाद गए. वहां पर एक गरीब किसान लालू नें उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया. उसने यथा शक्ति रोटी और साग इन दोनों को भोजन के लिए दिए. तभी गाँव के अत्याचारी ज़मींदार मलिक भागु का सेवक वहां आया. उसने कहा मेरे मालिक नें आप को भोजन के लिए आमंत्रित किया है.बार-बार मिन्नत करने पर गुरु नानक लालू की रोटी साथ ले कर मलिक भागु के घर चले.मलिक भागु नें उनका आदर सत्कार किया. उनके भोजन के लिए उत्तम पकवान भी परोसे. लेकिन उससे रहा नहीं गया. उसने पूछा कि, आप मेरे निमंत्रण पर आने में संकोच क्यों कर रहे थे? उस गरीब किसान की सूखी रोटी में ऐसा क्या स्वाद है जो मेरे पकवान में नहीं. इस बात को को सुन कर गुरु नानक नें एक हाथ में लालू की रोटी ली और, दूसरे हाथ में मलिक भागु की रोटी ली, और दोनों को दबाया. उसी वक्त लालू की रोटी से दूध की धार बहने लगी, जब की मलिक भागु की रोटी से रक्त की धार बह निकली. गुरु नानक देव बोले-
भाई लालू के घर की सूखी रोटी में प्रेम और ईमानदारी मिली हुई है. तुम्हारा धन अप्रमाणिकता से कमाया हुआ है, इसमें मासूम लोगों का रक्त सना हुआ है. जिसका यह प्रमाण है. इसी कारण मैंने लालू के घर भोजन करना पसंद किया.
यह सब देख कर मलिक भागु उनके पैरों में गिर गया और, बुरे कर्म त्याग कर अच्छा इन्सान बन गया. इस प्रकार नानक समाज में अनैतिक रीती -रिवाजो को समाप्त करने हेतु सदैव प्रयत्नशील रहे और गरीबो को सम्मान देने की वकालत करते रहे .
जीवन के अंतिम दिनों में नानक जी की ख्याति बहुत बढ़ गई और यह सिख धर्म के प्रथम गुरु के रूप में स्थापित हो गये . अपने धर्म के माध्यम से समाज को मानवता की सेवा का संदेश देते रहे इन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला भी उसमें बनवाई. इसी स्थान पर आश्वन कृष्ण 10 , संवत् 1597 (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को गुरु नानक देव ने अपने लौकिक देह का त्याग कर दिया . करतारपुर सिखों के लिए काफी महत्वपर्ण स्थान है. किन्तु देश के विभाजन के बाद हिन्दू -मुस्लिमो को जोड़ने वाले इस गुरु के अनुयाई भी अपने गुरु के देहावसान स्थान पर जाने हेतु दो देशो की सीमाओं में कैद हो गये . सम्भवतः गुरु नानक की विचारधारा उनके सिख धर्म में तो समा गई किन्तु उसके बाहर वह भाईचारा बनाने में कामयाब न हो सकी . जिसके फलस्वरूप उनके बाद पुनह हिन्दू - मुस्लिम व्यापक टकराव शुरू हो गया .
मृत्यु से पहले गुरु नानक देव जी ने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से सिख धर्म के दुसरे गुरु के रूप में विख्यात हुए .
सत श्री अकाल .