Tuesday, 31 December 2019

नया वर्ष और धरती की सुरछा






दुनिया के इनवायरमेंट वैज्ञानिको ने वर्ष 2030 को प्रथ्वी के बिगड़ते वातावरण को दुरुस्त करने हेतु अंतिम समय सीमा निर्धारित की है . अर्थात 2030 के बाद धरती के वातावरण को की गयी हानि फिर कभी दुरस्त नही हो सकेगी . जिसके लिए कम से कम 2010 से प्रयास किये जाने चाहिए थे . किन्तु अफ़सोस दुनिया भर में इन 10 वर्षो में कागजी खाना पूरी के सिवाय कुछ नही किया गया . 

अब 2020 आने को है और ये आने वाले 10 साल हमारे लिए अंतिम अवसर है . प्रथ्वी के वातावरण के बिगड़ने का ही दुष्प्रभाव है कि आज मौसम की चाल -ढाल बदल रही है . असहय गर्मी और असहय ठंड के कारण तमाम जीवधारियो की जान निकल रही है . विकास के नाम पर चल रहा प्राक्रतिक दोहन और वैश्विक बाजार का कचरा धरती की सत्ता को चुनौती दे रहा है .

धरती पर रहने वाले प्राणियों किसी गफलत में मत रहिये , समय रहते यदि प्रथ्वी और पर्यावरण को सुरछित नही किया गया तो सबका अंत निकट है . नए साल की खुशियों में अपनी सामाजिक और प्राक्रतिक जिम्मेदारियों को भी याद रखिये . धन्यवाद .

सभी साथियों और शुभचिंतको को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाये .

Wednesday, 18 December 2019

प्रमुख राजनैतिक विचारक



























देश के राजनैतिक चिंतन और दर्शन में महात्मा गाँधी जी के बाद डा राम मनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का भी विशिष्ट योगदान माना जा सकता है .

गाँधी जी के सिद्धांत सत्य ,अहिंसा और विशवास थे . वे जिस कांग्रेस के नेत्रत्व कर्ता थे उसका सम्बन्ध आजादी के आंदोलन से जुड़ा रहा . वह इस कांग्रेस को राजनैतिक दल के रूप में देखने के विरुद्ध थे . किन्तु प्रधानमंत्री नेहरु ने राजनैतिक कांग्रेस को खड़ा किया और यह राजनैतिक कांग्रेस लगभग 70 साल तक सत्ता से जुडी रही . इन 70 सालो में कांग्रेस के क्रिया कलापों और महात्मा गाँधी जी की उपर्युक्त सोच पर आज एक व्यापक चिन्तन किया जा सकता है .

देश के दुसरे राजनैतिक चिंतक डा राम मनोहर लोहिया जी की बात करे तो वह आज भी इस देश के आधे से ज्यादा लोगो के लिए अनजान व्यक्तित्व है . किन्तु डा लोहिया इस देश के सर्वश्रेष्ठ मौलिक चिंतक , साहित्यकार ,दार्शनिक , इतिहासकार ,स्वप्नद्रष्टा , स्वतन्त्रता सेनानी और राजनैतिक चिंतक थे . वास्तव में वह राजनीति से आगे सामाजिक और आर्थिक मामलो के भी गूढ़ विशेषग्य थे . वह समस्त भेदभाव के खिलाफ थे और देश काल की सीमाओ से परे विश्व नागरिकता के द्रष्टा थे . उन्होंने महात्मा गाँधी और मार्क्स के विचारो का संगम करते हुए भारत के सन्दर्भ में समाजवाद की अवधारणा प्रस्तुत की . डा लोहिया देश के लिए एक नई संस्क्रति और सभ्यता के जन्मदाता थे किन्तु उनके विचार इतने प्रखर और मौलिक है कि सम्भवतः देश के लोग उन्हें आत्मसात नही कर पाए .कांग्रेस को राजनैतिक दल बनाने की जिस मुहीम का महात्मा गाँधी ने शांतिपूर्ण विरोध किया था , डा लोहिया उसी कांग्रेस शासित सरकार की गांधीवाद की व्यावहारिकता पर सवाल उठाते नजर आये . इसमें कोई संदेह नही कि उनके विचारो ने देश के लोकतंत्र को काफी वक्त तक संजीवनी दी .

तीसरे राजनैतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने चिन्तन में एकात्मवाद का विचार प्रस्तुत किया था . एकात्मता अर्थात अनेक विषमताओ पर समदर्शी विचार .उनका मानना था कि समाज और व्यक्ति में परस्पर संघर्ष पतन का कारण है और इससे संस्क्रति का हास होता है . एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटे को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी थी .

उनके अनुसार संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहते हैं कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है.दीनदयाल जी का मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा . भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी. उनके अनुसार विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं.

किन्तु 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय पंडित दीनदयाल जी की दुखद हत्या कर दी गयी .जिसकी गुत्थी आज भी अल्सुल्झी हुई है .

फिलहाल देश की राजनीति की दिशा आज जिस तरफ जा रही है , उस सन्दर्भ में इन तीनो महापुरुषों के प्रमुख विचारो को जानना बेहद आवश्यक हो गया है .

Saturday, 16 November 2019

1962 का रेजांगला युद्ध और अहीर रेजिमेंट की मांग


1962 के भारत -चीन युद्ध ने उस दौरान भारत की सबसे कमजोर सैन्य रणनीति और तत्कालीन अदूरदर्शी राजनैतिक नेत्रत्व का अत्यंत दुखद अहसास करवाया था . तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु का पंचशील और 'हिंदी -चीनी भाई -भाई ' का सिद्धांत धरा का धरा रह गया और धोखेबाज चीन ने मौके का फायदा उठा कर भारत से विश्वासघात कर दिया था .इस विनाशकारी युद्ध के परिणाम देश की सेना ही नहीं वरन प्रधानमन्त्री नेहरु के लिए भी इतने घातक रहे कि वह इस अपमानजनक  युद्ध के लगभग 2 साल बाद 1964 में ही परलोक चल बसे . हालाँकि ऐसा नहीं था कि उन्हें चीन से चल रहे सीमा विवाद और चीन की महात्वाकान्छाओ के बारे में किसी राजनेता ने चेताया नहीं था . कहा जाता है कि उस समय विपछ के प्रमुख नेता रहे डा राम मनोहर लोहिया ने भी चीन के नापाक इरादो के बारे में नेहरु जी को कई बार सचेत किया था किन्तु प्रधानमंत्री नेहरु अति आत्मविश्वास और 'हिंदी -चीनी भाई -भाई' की अपनी सोच से बाहर नहीं निकल सके.


लगभग 18000 फीट से ज्यादा की ऊंचाई वाले बर्फीले इलाके वाले इस युद्ध में चीनी सेना ने 20 अक्टूबर 1962 को पूर्व में तवांग एवं पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल स्थित रेजांग-ला पर सैन्य हमला किया था तथा भारी तबाही करने के बाद 20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की गयी थी . चीन की बड़ी सेनाओ (जिनमे 3 रेजिमेंट शामिल थी ) के सामने भारतीय फ़ौज की कम्पनियों की संख्या काफी कम थी . इस युद्ध का एक अहम पहलू यह भी था कि दोनों देशो ने अपनी वायु सेना का प्रयोग इस युद्ध में बिलकुल भी नहीं किया था . जबकि कुछ अमेरिकी सैन्य विश्लेषको के अनुसार भारत को अपनी वायु सेना का प्रयोग इस युद्ध में अवश्य करना चाहिए था .सम्भवतः 1962 के इस युद्ध में भारत की कमजोर स्थिति को भांपकर पाकिस्तान ने भी 1965 में भारत पर एक और आक्रमण करने का दुस्साहस कर डाला लेकिन उसे पहले की तरह ही फिर से मुह की खानी पड़ी थी . सैन्य विश्लेशको के अनुसार पाकिस्तान को इस युद्ध में चीन का परोछ समर्थन भी हासिल था . 


1962 के इस बड़े युद्ध में देश को मिली हार के कारणों की जांच हेतु एक समिति बनाई गयी थी जिसका जिम्मा ले. जनरल हेंडरसन ब्रुक्स तथा इंडियन मिलिट्री एकेडमी के तत्कालीन कमानडेंट ब्रिगेडियर प्रेमिन्दर सिंह भगत को प्राप्त हुआ था .लेफ्टिनेंट जनरल एंडरसन ब्रूक्स तथा ब्रिगेडियर पीएस भगत ने 1962 के इस युद्ध से संबंधित दस्तावेजों तथा परिस्थितियों की जांच की और 1963 में इस जांच रिपोर्ट को प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके कुछ अन्य वरिष्ठ मंत्रियों को सौंप दिया था . किन्तु कहा जाता है कि यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट कभी भी सार्वजनिक नहीं हो पाई क्योंकि इस रिपोर्ट में तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु जी की लापरवाहियो की तरफ भी उंगलिया उठ रही थी . वास्तव में प्रधानमन्त्री नेहरु जी का सम्पूर्ण कार्यकाल कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ 1962 के इस युद्ध के कारण काफी आलोचना का विषय बन चूका है . दरअसल 1962 के इस युद्ध में मिली सैन्य विजय से चीन को भले ही कुछ लाभ हुआ था किन्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि एक विश्वासघाती राष्ट्र के रूप में भी बन गई थी . इससे दुनिया के अनेक देश चीन की सीमा विस्तार और साम्राज्यवादी सोच के प्रति सतर्क हो गये . हालाँकि भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन के खिलाफ इस विश्वासघाती कदम पर कोई बड़ा माहोल नहीं बना सका और चीन द्वारा कब्जाई गयी हजारो वर्ग किलोमीटर की अपनी जमींन को भी वापस नहीं पा सका था . उधर इस युद्ध से चीनी सेनाओ को कितना दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक लाभ हुआ इसका नजारा हाल -फ़िलहाल में तब नजर आया जब कुछ महीने पहले डोकलाम पर ढाई महीनों तक चले गतिरोध के दौरान चीनी सैनिको ने भारतीय सैनिको पर तंज कसा कि लगभग 4 -5 दशक पूर्व 1962 के युद्ध में उन्होंने उनकी क्या दुर्दशा की थी. लेकिन ये चीनी सैनिक तंज कसते हुए 1962 के ही चुशूल स्थित रेजांग ला के उस महत्वपूर्ण युद्ध को बिलकुल ही भूल गए थे जिसमे उनके हजारो सैनिको को 13 कुमायूं रेजिमेंट के 124 भारतीय सैनिको ने किस तरह गाजर –मूली की तरह काट डाला था .


दरअसल सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान 13 कुमायूं रेजिमेंट की चार्ली कम्पनी को चुशूल क्षेत्र में तैनात किया गया था. चुशूल चीनी सीमा से 15 किलोमीटर दूर हिमालय के पहाडो में लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा सा गाँव है. यह ऊंचे ग्लेशियरों से घिरा हुआ एक सुनसान पहाड़ी इलाका है जहां हर मौसम में लैंडिंग के लिए उपयुक्त एक हवाई पट्टी भी बनी हुई है. चुशूल घाटी के दक्षिण-पूर्व दिशा में कुछ मील की दूरी पर रेजांग ला नामक एक पहाड़ी दर्रा है, जो देश की सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है . 13 कुमायूं रेजिमेंट की अहीर चार्ली कंपनी को यही पर रेजांग ला में तैनात किया गया था जिसके जिम्मे चुशूल की इसी महत्वपूर्ण हवाई पट्टी की सुरछा थी . 13 कुमायू रेजीमेंट की इस अहीर चार्ली कम्पनी का नेत्रत्व मेजर शैतान सिंह कर रहे थे जिसमे मेजर शैतान सिंह और 2-3 जवानो के अतिरिक्त बाकी सभी सैनिक अहीर थे जो मुख्य रूप से हरियाणा और राजस्थान के आस -पास के निवासी थे . दरअसल 'अहीर' शब्द संस्कृत के 'अभीर' शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है "न डरने वाला' अर्थात निडर. इस असाधारण ऊंचाई वाले मोर्चे पर इन अहीर भारतीय सैनिको ने महत्वपूर्ण तरीके से अपनी पोजीसन ले रखी थी. सभी सैनिको ने वहा अच्छे मोर्चे बना लिए थे किन्तु उनके पास चीनी सैनिको को रोकने के लिए न तो कोई बारूदी सुरंग बिछाने का प्रबन्ध था और न ही कमांड पोस्ट की सुरक्षा हेतु उन्नत किस्म के हथियार ही उपलब्ध थे . 

आखिरकार 17 -18 नवम्बर की वह रात्रि आ ही गई जब वहां का तापमान शून्य से 15 डिग्री सेल्सियस नीचे था. यह असाधारण एवं खून जमा देने वाली कड़ाके की ठण्ड थी. इसी दौरान रात्रि 10 बजे तेज बर्फीला तूफान आया जो लगभग 2 घंटे तक चलता रहा . इससे ठंड और ज्यादा बढ़ गयी . हमारे सभी भारतीय सैनिक मैदानी क्षेत्र से लाकर वहां तैनात किये गए थे जाहिर है वे सब इस तरह की बर्फीली ठण्ड में रहने के अभ्यस्त भी नहीं थे. इससे भी बड़ी समस्या यह थी कि इनके पास पहाड़ी-ठण्ड से बचने के लिए उपयुक्त वर्दी भी नहीं थी. 18 नवम्बर 1962 को रविवार का दिन था और देश में दीपावली का त्योहार भी मनाया जा रहा था . सारा देश जहा दीपावली का जश्न मना रहा था तब 13 कुमायु रेजिमेंट के अहीर चार्ली कम्पनी के ये मुट्ठी भर भारतीय सैनिक विषम परिस्थियों में प्राणों की बाजी लगाकर मातृभूमि की रक्षा के लिए खून की होली खेल रहे थे. अंततः सुबह 5 बजे पौ फटने से पहले चीनी सैनिको ने रेजांग ला की चौकी पर भीषण हमला कर दिया लेकिन वीर भारतीय सैनिको ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करते हुए उस हमले को विफल कर दिया. यह जबरदस्त लड़ाई कई घंटों तक चली और इसमें चीनी सैनिको को काफी नुक्सान हुआ था . उनके सैकड़ो सैनिक मारे गये और बहुत से घायल भी हुए थे . कहा जाता है कि भारतीय सैनिको की गोलीबारी से इस रणछेत्र की नालियाँ चीनी सैनिको की लाशों से भर गईं थी . इस हमले के विफल हो जाने पर थोड़ी देर बाद चीनी फ़ौज़ ने पुनह एक और जबरदस्त हमला किया, लेकिन इस बार भी उनका वही हश्र हुआ . इन 124 वीर भारतीय सैनिको ने चीन के इस हमले को भी विफ़ल कर दिया था . 


अब तक दो बार मुह की खाने के बाद चीनी सेना ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और चारो ओर से भारी मशीन गन, मोर्टार, ग्रेनेड आदि के साथ भारतीय सैनिको पर भीषण हमला बोल दिया. किन्तु चीनी सेना को आगे बढ़ते हुए पिछले दो प्रयासों के दौरान मारे गये अपने ही सैकड़ो चीनी सैनिकों की लाशो पर से गुजरना पड़ा .भारतीय सैनिक चीनियों की अपेक्षा जहाँ संख्या में बहुत कम थे वहीं उनके हथियार और गोला बारूद भी अपेक्षाकृत कम उन्नत थे फ़िर भी वे बड़ी वीरता के साथ डट कर लडे. गोला बारूद समाप्त हो जाने पर भी भारतीय जांबाजो ने हार नहीं मानी . ये अपने मोर्चे और चौकियो से बाहर निकल आये तथा निहत्थे ही चीनी सैनिकों पर टूट पड़े. चीनी फ़ौज़ का जो भी सैनिक मिला उसे पकड़ लिया और चट्टान पर पटक - पटक कर मार डाला गया . इस प्रकार विषम परिस्थितियों मे प्राकृतिक बाधाओं के खिलाफ रेजांग-ला की इस लडाई मे भारतीय वीर जवान आखिरी गोली, खून की आखिरी बूँद और आखिरी सांस तक लडते रहे. युद्ध में इन वीरो की कंपनी के 124 में से 114 अहीर जवान शहीद हो गये थे . किन्तु इस लड़ाई में चीन की सेना का भी बहुत ज्यादा नुक्सान हुआ था.कहा जाता है कि इस लड़ाई में 114 वीर अहीर सैनिको ने अपने प्राणों की आहुति देते हुए चीनी सेना के लगभग 1300 सैनिको को मौत की नीद सुला दिया था .



13 कुमायूं रेजिमेंट की इस बहादुर कंपनी के इन 114 वीरों की याद में चुशूल से 12 किलोमीटर की दूरी पर एक स्मारक बनाया गया जिसमे सभी वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं जिसे 'अहीर धाम' के नाम से भी जाना जाता है . वास्तव में 1962 की इस लड़ाई में चीन के साथ युद्ध में भारतीय सेना को जहां कई मोर्चो पर हार का सामना करना पड़ा, वहीं लद्दाख के चुशूल सेक्टर में उसने ऐसा इतिहास रचा कि भारी प्रयासों के बाद भी चीनी सैनिक रेजांगला पर कब्जा नहीं कर पाए. प्रसिद्ध कवि प्रदीप और स्वर कोकिला लता मंगेशकर के गाये गीत ‘ए मेरे वतन के लोगो’ की पंक्ति ‘जब देश में थी दिवाली, वो खेल रहे थे होली, जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली’ रेजांगला के इन्ही वीर अहीर शहीदों को समर्पित कर लिखा गया था. किन्तु इस गीत की पंक्तियों में 'कोई सिख कोई जाट मराठा कोई गोरखा कोई मद्रासी' में इन वीर अहीरों का जिक्र कही नही हुआ, इससे अहीर समुदाय को काफी ठेस पहुची और वे अपने स्वाभिमान और वीरता की पहिचान के लिए सेना में 'अहीर रेजिमेंट' की मांग कर बैठे . दरअसल अंग्रेजो के समय से ही भारतीय थल सेना की लगभग सभी भर्तिया जाति /क्षेत्र और धर्म के आधार पर होती है .जैसे गढ़वाल रेजिमेंट में सिर्फ गढ़वाली ही भर्ती किये जातें हैं, डोगरा रेजिमेंट में सिर्फ डोगरा भर्ती किये जाते हैं , सिख रेजिमेंट में सिर्फ सिख भर्ती किये जाते हैं . इसी प्रकार जाट , राजपूत , महार , सिख लाइट इन्फेंट्री , मराठा , डोगरा नाम की रेजिमेंट जाति आधारित और राजपुताना राइफल्स, गढ़वाल राइफल्स , कुमाऊ , मद्रास आदि क्षेत्र आधारित रेजिमेंट हैं . एक प्रकार से यह भी जाती और धर्म आधारित आरक्षण ही है जबकि भारतीय सविंधान या किसी न्यायालय से सेना में ऐसे आरक्षण का कोई प्राविधान नहीं है . फिर भी यदि जाति आधारित यह व्यवस्था चल ही रही है तो इसमें अहीर समुदाय को समुचित प्रतिनिधित्व न दिया जाना इस बिरादरी के शहीदों और उनकी शहादत का भी घोर अपमान है . हरियाणा का अहिरवाल छेत्र तो सदियों से अहीरों की वीरता के किस्सों के लिए मशहूर रहा है . महाभारत के समय में भी यदुकुल शिरोमणि श्री क्रष्ण भगवान की नारायणी सेना ने युद्ध में अपने महान शौर्य का प्रदर्शन किया था . कहा तो यह भी जाता है कि अहीरों की वीरता के कारण प्राचीन समय में कई राज्यों के सेनापतियो का पद सिर्फ अहीरों के लिए ही आरक्षित रहता था . वर्तमान समय में अहीर रेजिमेंट की मांग दिनोदिन तेज होती जा रही है . अहीर समुदाय के अनेक नेताओ और सामाजिक कार्यकर्ताओ ने अपनी इस मांग को महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक पहुचाया हुआ है . जिसमे मुख्य रूप से राष्ट्रीय यादव संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंगलेश यादव भी शामिल है . इस मुद्दे की प्रासंगिकता के कारण अब कुछ राजनैतिक पार्टिया भी इसे अपने राजनैतिक एजेंडे में शामिल करती नजर आ रही है . 1962 का चीन युद्ध हालांकि देश के लिए एक बड़ी हार ही है किन्तु जिस प्रकार रेजांगला के इन 114 वीर सैनिको ने अपनी जान पर खेलकर चीन के हजारो सैनिको को मौत की नीद सुला दिया था , यह भारत के इतिहास में वीरता की एक अनुपम मिशाल भी है . चीन से लगती सीमा पर आज भी विवाद होता ही रहता है ऐसे समय में रेजांगला की यह शौर्य गाथा चीन के लिए एक सबक भी होनी चाहिए . 1962 के युद्ध के इन सभी वीर शहीदों के लिए साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहा जा सकता है कि , हजार बर्फ गिरे लाख आंधिया उड़े वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले है . 



13 कुमाऊं रेजीमेंट के शौर्य व पराक्रम पर लिखा गया गीत ‘वो झेल रहे थे गोली’









Tuesday, 12 November 2019

गुरु नानक





























सज्जन लोग उजड़ने पर जहाँ भी जायेंगे वहां अपनी सज्जनता से उत्तम वातावरण का निर्माण करेंगे. परंतु दुष्ट और दुर्जन व्यक्ति जहाँ विचरण करेगा वहां, अपने आचार-विचार से वातावरण दूषित करेगा.----गुरुनानक 


उपरोक्त विचार एक प्रसंग में गुरुनानक जी ने व्यक्त किया था . नानक जी का कहने का भाव यही था कि दुनिया भर के सज्जन या अच्छे इंसानों को किसी एक स्थान पर सीमित नही रहना चाहिए ,बजाय इसके उन्हें समाज में चल रही बुराइयों को समाप्त करने हेतु चारो तरफ फ़ैल जाना चाहिए . अच्छे लोगो की बेरुखी से समाज में गलत विचारो का बोलबाला हो जाता है . समय की कसौटी पर गुरु नानक देव जी की यह बात सौ प्रतिशत सही है . 

बालक नानक का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में कार्तिकी पूर्णिमा को 1469 में एक खत्री परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम लाला कल्याण राय था जिन्हें लोग मेहता कालू के नाम से जानते थे और माता का नाम तृप्ता देवी था. इनके जन्मस्थान तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया.

बाल्यकाल से ही नानक प्रतिभासम्पन्न एव विशिष्ट स्वभाव से युक्त थे . वह समस्त सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे. पढ़ने लिखने में भी इनका मन नहीं लगता था और 7 -8 साल की उम्र में ही स्कूल छूट गया . इसके बाद नानक अपना समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे. 

नानक के पिता मेहता कालू अपने बेटे नानक को भी पढ़ा -लिखा कर अपनी ही तरह एक मुनीम बनाना चाहते थे और सांसारिक जीवन में कैद कर देना चाहते थे . इसी क्रम में नानक का विवाह बालपन मे 16 वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से कर दिया गया .विवाह के बाद भी नानक का अध्यात्म के प्रति मोह नहीं गया और गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ. इसके 4 वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का भी जन्म हुआ. दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार की जिम्मेदारियों को अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकल पडे़. अपने भ्रमण काल में वह अफगानिस्तान , फारस और अरब भी गए . वह अपनी यात्राओ के दौरान घूम -घूम कर लोगो को मानवता की सीख देते . वह समस्त सामाजिक कुरीतियों का विरोध करते थे और मूर्ति पूजा के स्थान पर सीधे परमात्मा की उपासना को प्रमुख मानते थे . इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है उसकी उपासना हिंदू मुसलमान दोनों के लिये हैं. ये भक्ति काल का दौर था जब हिंदू और मुसलमान दोनों मज़हबों से लोग उकताने लग गये थे. तब स्त्रियों की हालत भी काफी बदतर थी. ऐसे विकट समय में नानक वास्तव में हिन्दू और मुसलमान दोनो धर्मो के मतावलम्बियो के मध्य की खाई भर रहे थे और इसी राह पर चलते हुए उन्होंने दोनों धर्मों के बीच से होते हुए ‘सिख’ धर्म की स्थापना की. अपने अनुयाइयो को नानक ने एकेश्वरवाद का सिद्धांत दिया. उन्होंने ईश्वर को निरंकार माना, उसे एक रौशनी माना. उन्होंने कहा ईश्वर एक गूंज है जो अनहद-नाद के समान पूरे ब्रह्मांड में फैला हुआ है.

नानक ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे. पर उनके लिखे 976 दोहे, बाणियां जिनमें हिंदी, फ़ारसी, अरबी लफ़्ज़ों का इस्तेमाल है . इनमें कही बातों में वेद, पुराण, कुरान, योग-शास्त्र, पतंजलि सबका सार है. डॉक्टर गोपाल सिंह की पुस्तक ‘सिखों का इतिहास’ के अनुसार ‘जब नानक 13 साल के हुए थे तो पिता द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार में जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया था . नानक ने कहा मुझे वो धागा पहनना है जो न ख़राब हो, न जले, न मिटटी में मिले. इंसान अपने कर्मों से जाना जाए न कि किसी धागे से.’ जाहिर है नानक की विचारधारा आडम्बर रहित होकर समत्वयुक्त और किसी समयकाल से परे थी . बाद में उन्होंने लोगों की धारणाओं, अंध-मान्यताओं पर अक्सर सवाल उठाये. बनारस में उन्होंने पंडितों को नदी में खड़े होकर पूर्व की दिशा की ओर जल अर्पित करते देखा. पूछने पर मालूम हुआ कि वे लोग अपने पूर्वजों का पिंड दान कर रहे थे. नानक ये देखकर पश्चिम की तरफ़ जल अर्पित करने लग गए. जब पंडितों ने उनसे पूछा, तो कहा - ‘वो क्या है कि मेरे खेत पश्चिम दिशा की तरफ हैं, मैं उन्हें पानी दे रहा हूं’. कुछ इसी तरह उन्होंने मक्का की तरफ पैर रखकर सोते हुए टोके जाने पर कहा - ‘मेरे पैर उस तरफ़ कर दो जहां मक्का न हो.’ इसी प्रकार समाज में महिलाओं की बदहाली पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा और कहा भी.


कहा जाता है कि एक समय गुरु नानक देव और उनका चेला मरदाना अमीनाबाद गए. वहां पर एक गरीब किसान लालू नें उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया. उसने यथा शक्ति रोटी और साग इन दोनों को भोजन के लिए दिए. तभी गाँव के अत्याचारी ज़मींदार मलिक भागु का सेवक वहां आया. उसने कहा मेरे मालिक नें आप को भोजन के लिए आमंत्रित किया है.बार-बार मिन्नत करने पर गुरु नानक लालू की रोटी साथ ले कर मलिक भागु के घर चले.मलिक भागु नें उनका आदर सत्कार किया. उनके भोजन के लिए उत्तम पकवान भी परोसे. लेकिन उससे रहा नहीं गया. उसने पूछा कि, आप मेरे निमंत्रण पर आने में संकोच क्यों कर रहे थे? उस गरीब किसान की सूखी रोटी में ऐसा क्या स्वाद है जो मेरे पकवान में नहीं. इस बात को को सुन कर गुरु नानक नें एक हाथ में लालू की रोटी ली और, दूसरे हाथ में मलिक भागु की रोटी ली, और दोनों को दबाया. उसी वक्त लालू की रोटी से दूध की धार बहने लगी, जब की मलिक भागु की रोटी से रक्त की धार बह निकली. गुरु नानक देव बोले-
भाई लालू के घर की सूखी रोटी में प्रेम और ईमानदारी मिली हुई है. तुम्हारा धन अप्रमाणिकता से कमाया हुआ है, इसमें मासूम लोगों का रक्त सना हुआ है. जिसका यह प्रमाण है. इसी कारण मैंने लालू के घर भोजन करना पसंद किया.
यह सब देख कर मलिक भागु उनके पैरों में गिर गया और, बुरे कर्म त्याग कर अच्छा इन्सान बन गया. इस प्रकार नानक समाज में अनैतिक रीती -रिवाजो को समाप्त करने हेतु सदैव प्रयत्नशील रहे और गरीबो को सम्मान देने की वकालत करते रहे .

जीवन के अंतिम दिनों में नानक जी की ख्याति बहुत बढ़ गई और यह सिख धर्म के प्रथम गुरु के रूप में स्थापित हो गये . अपने धर्म के माध्यम से समाज को मानवता की सेवा का संदेश देते रहे इन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला भी उसमें बनवाई. इसी स्थान पर आश्वन कृष्ण 10 , संवत् 1597 (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को गुरु नानक देव ने अपने लौकिक देह का त्याग कर दिया . करतारपुर सिखों के लिए काफी महत्वपर्ण स्थान है. किन्तु देश के विभाजन के बाद हिन्दू -मुस्लिमो को जोड़ने वाले इस गुरु के अनुयाई भी अपने गुरु के देहावसान स्थान पर जाने हेतु दो देशो की सीमाओं में कैद हो गये . सम्भवतः गुरु नानक की विचारधारा उनके सिख धर्म में तो समा गई किन्तु उसके बाहर वह भाईचारा बनाने में कामयाब न हो सकी . जिसके फलस्वरूप उनके बाद पुनह हिन्दू - मुस्लिम व्यापक टकराव शुरू हो गया . 

मृत्यु से पहले गुरु नानक देव जी ने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से सिख धर्म के दुसरे गुरु के रूप में विख्यात हुए .
सत श्री अकाल .

Thursday, 7 November 2019

बहादुर शाह जफर

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिए, 
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.
अपने आखरी वक्त में अपने वतन यानि हिंदुस्तान की दो गज जमीन की चाह रखने वाला यह शख्स अबू जफर उर्फ़ बहादुर शाह जफर था . बहादुर शाह जफर मुग़ल वंश का आखरी शासक था . 11 मई 1857 का वह ऐतिहासिक दिन जब दिल्ली में तमाम विद्रोहियों ने लगभग 80 साल के हो चुके बहादुर शाह जफर से हिंदुस्तान का बादशाह बन कर अंग्रेजो को चुनौती देने की दरख्वास्त की तब वह उम्र के ऐसे पड़ाव में था कि उसके लिए यह फैसला लेना काफी कठिन रहा होगा . लेकिन फिर भी जफर ने विद्रोहियों की दरखास्त कबुल की और विद्रोहियों का लीडर बन गया . अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का नेत्रत्व लेते ही विद्रोह की क्रांति चारो तरफ आग सी फ़ैल गयी . इस विद्रोह में न मालुम कितने अंग्रेजो को मौत की नीद सुला दिया गया लेकिन यह लड़ाई इतनी आसान तो नही थी . बूढ़े शहंशाह जफर ने जान लिया कि ताकतवर अंग्रेजो के खिलाफ यह लड़ाई ज्यादा दिनों तक नही चल सकेगी . 

अंततः वही हुआ , 19 सितम्बर 1857 को अंग्रेजी फ़ौज दिल्ली के लाल किले में पहुच गयी . कितनी अजीब विडम्बना थी कि इस अंग्रेज फ़ौज में सिख इन्फैंट्री के जवान थे .इन सिक्खों को देखकर बूढ़े शहंशाह को यह जरुर याद आया होगा कि ये वही सिक्ख है जिनके पुरखो गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्दसिंह के परिवार और उनके समर्थको को उसके खुद के पुरखो औरंगजेब वगैरह ने इस्लाम नही स्वीकारने के कारण मौत के घाट उतार दिया था . तो अब इन सिक्खों से क्या छमा याचना की जाए . इसलिए किसी प्रकार वह परिवार सहित लाल किले से बाहर निकल गया . इधर किले में घुसते ही अंग्रेज और सिक्ख सैनिको ने धुंआधार मार -काट कर डाली . लाल किले में शहंशाह बहादुर शाह जफर के नही मिलने से अंग्रेज अफसर हडसन ने आस -पास के इलाको की भी नाकेबंदी कर दी . जिसके बाद हुमांयू के मकबरे में परिवार सहित छिपे जफर को घेर लिया गया . दोनों तरफ से शर्ते रखी गयी और अंततः इस शर्त पर कि अंग्रेज बहादुर शाह जफर और उसके परिवार को अपमानित नही करेंगे , हिंदुस्तान के इस आखरी शहंशाह ने खुद को अंग्रेजो के हवाले कर दिया . लेकिन अंग्रेजो की जुबान कभी खरी नहीं थी सो बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया और उसके बेटो को अपमानित कर गोली मार दी गयी .

जफर पर अंग्रेजो ने मुकदमा चलाया . अदालत और जज दोनों अंग्रेजी थे सो फैसला भी अंग्रेजो के हक़ में होना था . अदालत में कहा गया कि बहादुर शाह जफर जो कि हिंदुस्तान का मुसलमान है , उसने दुनिया के अन्य मुसलमानों से मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत की है . इस तरह से बूढ़े जफर को दोषी करार दिया गया . अंग्रेज चाहते तो जफर को तुरंत गोली मारने की सजा दे सकते थे लेकिन उन्हें बाकी विद्रोहियों में भी खौफ भरना था . इसलिए उन्होंने एक बूढ़े शहंशाह को उसके वतन से दूर जेल में कैद रखने की सजा सुना दी . 7 अक्तूबर 1858 को यह खबर बूढ़े शहंशाह को सुना दी गयी लेकिन यह नही बताया गया कि कहा ले जाया जायेगा . इसके बाद उसे कलकत्ता होते हुए रंगून ले जाया गया जहा की एक कोठरी नुमा जेल में उसे कैद कर दिया गया . 

























यही कोठरी मुग़ल वंश के अंतिम शहंशाह और हिंदुस्तान की 1857 की क्रांति के लीडर रहे बहादुरशाह जफर की आखरी मंजिल साबित हुई . इस काली कोठरी में अपने जख्मो को याद कर बूढ़े जफर की आँखों का पानी सुख गया . असल में हिंदुस्तान के इस आखरी ट्रेजडी किंग को अपने आखरी वक्त में साथ देने के लिए कोई न मिला . अपने गमो को वह जेल की दीवारों पर अपने नाखुनो से लिखता गया और अपनी आखरी इच्छा को पूरा किये बगैर आज के दिन 07 नवम्बर 1862 को इस दुनिया से चला गया . अपने वतन की मिटटी में दफन होने के लिए दो गज जमींन की उसकी चाह अधूरी ही रह गयी . शायद दुनिया के इतिहास में ये पहला वाकया होगा जब एक शहंशाह को मौत के बाद उसके ही वतन की दो गज जमीन भी न मिल सकी . शंहशाह बहादुर शाह जफर को उसकी मौत के बाद रंगून में ही जेल की उसी कोठरी के पीछे दफना दिया गया , जहा वह अपने आखरी वक्त तक कैद था . आजादी के बाद आज भी उसकी कब्र हिंदुस्तान में अपने पुरखो की कब्र के बगल में दो गज जमींन मिलने से महरूम है . 


Sunday, 6 October 2019

व्रत और उपवास








सामान्यतौर पर व्रत और उपवास को एक ही अर्थ हेतु प्रयुक्त किया जाता है किन्तु आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से व्रत और उपवास में अंतर है . व्रत के बारे में धारणा है कि इंसान द्वारा किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु दिनभर के लिए निराहार अर्थात अन्न या जल या अन्य भोजन का त्याग व्रत कहलाता है. दुसरे शब्दों में किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है अथवा संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को भी व्रत कहा जाता है . वास्तव में उपवास करना व्रत का ही एक अंश है और इसे व्रत का एक संछिप्त रूप माना जाता है . प्रचलित मान्यताओ और आध्यात्मिक साहित्यों के अनुसार व्रत 3 प्रकार के होते है -नित्य, नैमित्तिक और काम्य. 

जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी होता है उसे नित्यव्रत कहा जाता है. जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना आदि नित्यव्रत माने जाते हैं. इसी प्रकार किसी प्रकार के पातक (नरक में गिरानेवाला पाप ) के हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण (चंद्रमा की कलाओं के हिसाब से आहार को घटाने-बढ़ाने का व्रत ) स्वरूप जो व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत कहलाते हैं. तीसरा व्रत काम्य व्रत है जो किसी प्रकार की कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर संपन्न किए जाते हैं जैसे - पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने जो गोव्रत किया था वह काम्य व्रत है. हिन्दू धर्म में पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए पृथक् व्रतों का नियम भी देखने को मिलता है हालाँकि कुछेक व्रत दोनों के लिए समान है. 

यदि व्रत के आचरण और तौर -तरीको की बात करे तो प्रत्येक व्रत के एक निश्चित समय भी निर्धारित किया गया है उदाहरणस्वरूप सत्य और अहिंसा व्रत का पालन करने का समय यावज्जीवन अर्थात जीवन भर माना गया है . उसी प्रकार कुछ अन्य व्रतों के लिए भी समय निर्धारित है. महाव्रत जैसे व्रत 16 वर्षों में पूर्ण होते हैं. वेदव्रत और ध्वजव्रत की समाप्ति 12 वर्षों में होती है. पंचमहाभूतव्रत, संतानाष्टमीव्रत, शक्रव्रत और शीलावाप्तिव्रत 1 वर्ष तक किया जाता है. अरुंधती व्रत वसंत ऋतु में होता है. चैत्रमास में वत्सराधिव्रत, वैशाख मास में स्कंदषष्ठीव्रत, ज्येठ मास में निर्जला एकादशी व्रत, आषाढ़ मास में हरिशयनव्रत, श्रावण मास में उपाकर्मव्रत, भाद्रपद मास में स्त्रियों के लिए हरितालिकव्रत, आश्विन मास में नवरात्रव्रत, कार्तिक मास में गोपाष्टमीव्रत, मार्गशीर्ष मास में भैरवाष्टमीव्रत, पौष मास में मार्तंडव्रत, माघ मास में षट्तिलाव्रत और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रि के व्रत प्रमुख हैं. तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, वार पर आश्रित व्रतों में रविवार को सूर्यव्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिवव्रत प्रमुख है .भक्ति और श्रद्धा की इच्छनुसार कभी भी किए जानेवाले व्रतों में सत्यनारायण व्रत प्रमुख है. 

व्रत रखने का औचित्य मुख्य रूप से आध्यात्मिक ही है . प्राचीन काल में अक्सर ऋषि -मुनि ईश्वर साधना हेतु कठिन तप और व्रत रखते थे . इस दौरान वह निराहार रहते थे . कालान्तर में ईश्वर से पुन्य या इच्छा प्राप्ति हेतु की जाने वाली साधना व्रत के रूप में परिवर्तित हो गयी होगी . समय के साथ इसके तौर -तरीको में बदलाव आता रहा है . मसलन जब लोगो ने व्रत और उपवास हेतु निराहार रहने के स्थान पर कुछ खाने का विकल्प तलाशा होगा तो पुरोहितो ने फल -फूल का मार्ग बता दिया होगा . फल -फूल के पीछे सात्विक्क भोजन ग्रहण करने का उद्देश्य रहा होगा क्यों कि तामसी भोजन ग्रहण करने के पश्चात सात्विक विचारो का लोप हो सकता है . इसलिए हमारे भोजन का सम्बन्ध कही न कही हमारे विचारो और स्वभाव से अवश्य होता है . हालांकि आजकल तो किसी व्रत के लिए भोजन के रूप में अनेक प्रकार के फल से लेकर तमाम मिठाइया और कुट्टू या सिंघाड़े के आटे से बने व्यंजन भी उपलब्ध है .आज बहुत से लोग व्रत में साधारण नमक के स्थान पर सेंधा नमक का प्रयोग भी कर लेते है किन्तु कुछ साधक व्रत के कड़े नियमो का पालन करते हुए किसी भी नमक का प्रयोग अनुचित मानते है .ऐसे में प्रश्न उठता है कि कौन सही है और कौन गलत है ? क्या वास्तव में किसी व्रत से किसी प्रकार के भोजन का कोई सम्बन्ध होता है ? इसके उत्तर में एक घटना का सन्दर्भ इस प्रकार से लिया जा सकता है . 


गौतम बुद्ध के जीवन पर लिखी एक किताब में उनके कठिन उपवास का जिक्र किया गया है. बुद्ध ने संबोधि पाने के लिए सालों तक कुछ नहीं खाया. इस प्रक्रिया के तहत उन्होंने शुरू में अन्न कम किया, फिर कुछ दिन फल खाए और उसके बाद वे भी छोड़ दिए. ऐसा उपवास करने से उनके पैर बांस जैसे पतले हो गए, रीढ़ की हड्डी रस्सी की तरह दिखाई देने लगी, सीना ऐसा हो गया जैसे किसी मकान की अधूरी छत हो और आंखें ऐसी धंस गई जैसे कुएं में पत्थर खो जाता है. कुल मिलाकर वे एक चलता-फिरता कंकाल बन चुके थे. फिर भी उन्हें वह ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ जिसकी तलाश थी. यह एक उदाहरण है जो बताता है कि सिर्फ खाना-पीना छोड़ देने से न भगवान मिलते हैं, न ज्ञान.

कुछ डाक्टरों के अनुसार भी भोजन का त्याग करने से शरीर में बीमारियों का जन्म हो सकता है , वही दूसरी तरफ कहा जाता है कि व्रत के दौरान भोजन त्यागने से शरीर के अंदर के हानिकारक पदार्थ बाहर निकल जाते है और शारीरिक अंगो को थोडा आराम मिलता है . जो भी हो आज व्रत और उपवास के स्वरूपों में काफी बदलाव आ चूका है . आज यह आध्यात्मिक कम और भौतिक ज्यादा नजर आते है . व्रत और उपवास करने वाले इन भक्तो की इस कमजोरी का फायदा बाजार और उनके मालिको ने भी खूब उठाया है जिसके कारण फलाहारी पिज्जा और बर्गर भी परोस दिए गये हैं. जाहिर है अब व्रत में श्रद्धा और संकल्प के स्थान पर खानापूर्ति और व्यवसाय भी चल रहे है .




Wednesday, 11 September 2019

विनोबा भावे





















यु तो इस देश में जमीन की लड़ाई का इतिहास काफी पुराना है और भारत जैसे शांति प्रिय देश में जमीन की लड़ाई ने महाभारत का युद्ध तक करवा दिया था . किन्तु आज के हिंसाप्रिय और अराजक माहोल में लोग इस बात को एकदम भूल चुके है कि कभी कुछ समाजसेवियों के आह्वाहन पर इसी भारत में लोगों ने अपने ही गांव-समाज की जमीने भूमिहीन लोगों के लिए दान में दे दी थी .

आज़ादी के बाद भारत के सामने एक सबसे बड़ा प्रश्न जमीन के बंटवारे का भी था. जहा एक तरफ राजे-रजवाड़ों से लेकर जमींदारों और बड़े भूमिपतियों के पास बेहिसाब जमीनें थीं, तो दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक जनता भूमिहीन थी. जहां एक ओर जमींदारी उन्मूलन और भू-हदबंदी जैसे सरकारी प्रयास चल रहे थे, वहीं दूसरी ओर अनेक स्थानों में बंदूक के जरिए जमीन और संपत्ति छीन लेने का खूनी-संघर्ष भी चल रहा था. ऐसे विकट समय में विनोबा भावे आगे आये और उन्होंने भूदान आन्दोलन का सूत्रपात किया . 

विनोबा को अपने अहिंसा और प्रेमपूर्ण आन्दोलन की बदौलत लगभग 42 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिल गयी . उन्होंने इसमें से 15 लाख तो तत्काल ही भूमिहीनों में बांट दी . कहा जाता है कि भूदान आंदोलन में मिली जमीनों में से 10 लाख एकड़ जमीन आज भी बिना बंटे ही सरकारी राजस्व विभाग की फाइलों में धूल फांक रही है. वास्तव में आज यह विश्वास करना भी काफी कठिन है कि जिस जमीन के कारण भाई-भाई का सिर काटता है, गोलियां चलती हैं, जिसके लिए लोग सारा जीवन कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटते बिता देते हैं, वह जमीन लोगों ने विनोबा को प्रेम से दे दी थी और विनोबा ने इसमें से ज्यादातर जमीनें हरिजनों और आदिवासियों के बीच बांट दी थी . 

इस तरह जमीन के असमान और एकतरफा अधिकार को काफी हद तक विनोबा ने समान अधिकार में बदल दिया . विनोबा के भूदान ने लोगो को इतना प्रभावित किया कि लोग ग्राम दान तक करने लगे . ग्राम दान यानी पुरे गाव की जमीन का ही दान . इस मुहीम से प्रभावित होकर लोकनायक जयप्रकाश ने अपना जीवन दान करने की बात कह दी और पूंजीवादियो से उद्योग दान की सिफारिश भी की . 

विनोबा ने कितनी भी मेहनत से गरीबो को जमीने दिलवाई हो , लेकिन आज के दबंग और रसूखदार लोग जमीनों को हडप कर उनका व्यवसाय भी शुरू कर दिया है और भूदान के स्थान पर भू माफिया हो गया है . 










Sunday, 1 September 2019

पेरियार ललई सिंह यादव



कर्मवीर ललई सिंह यादव जी का जन्म 1 सितम्बर 1911 को ग्राम कठारा रेलवे स्टेशन-झींझक, जिला कानपुर देहात के एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था. उनके पिता चौधरी गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्य समाजी थे एवं माता श्रीमती मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चौधरी साधौ सिंह यादव की पुत्री थी. 

ललई सिंह यादव जी ने सन् 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू विषय लेकर हाईस्कूल पास किया. वह सन् 1929 से 1931 तक फाॅरेस्ट गार्ड के पद पर कार्यरत रहे एवं सन 1931 में ही इनका विवाह श्रीमती दुलारी देवी जी के साथ सम्पन्न हुआ. तत्पश्चात सन 1933 में वह सशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल के पद पर भर्ती हो गये . अपनी सिपाही की नौकरी से समय निकाल कर वह अपनी उच्च शिछा -दीछा भी सम्पन्न करते रहे और सन् 1946 में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर के अध्यक्ष चुने गए. नौकरी में रहते हुए उन्होंने तत्कालीन सिपाहियो की दशा पर ‘‘सिपाही की तबाही’ नामक एक पुस्तक लिखी, जिसने समस्त सिपाहियों को क्रांति के पथ पर चलने का आह्वान किया. इस प्रकार अंग्रेजी राज के खिलाफ इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तर्ज पर ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी कर्मचारियों को संगठित कर पुलिस और फौज में हड़ताल करवाई एवं समस्त जवानों से कहा कि 
बलिदान न सिंह का होते सुना, 
बकरे बलि बेदी पर लाए गये।
विषधारी को दूध पिलाया गया,
केंचुए कटिया में फंसाए गये।
न काटे टेढ़े पादप गये,
सीधों पर आरे चलाए गये।
बलवान का बाल न बांका भया
बलहीन सदा तड़पाये गये। 
हमें रोटी कपड़ा मकान चाहिए,


आखिरकार अंग्रेजी हुकूमत ने 29.03.1947 को ग्वालियर स्टेट्स के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व सेना में हड़ताल कराने के आरोप धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित उन्हें राज-बन्दी बना लिया और 06.11.1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने उन्हें अध्यक्ष हाई कमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण 5 वर्ष स-श्रम कारावास तथा 5 रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड भी सुना दिया . जेल की सजा होने के बाद अंततः देश आजाद होने पर वह दिनांक 12.01.1948 को अपने सभी साथियों सहित जेल से रिहा हुये. 

एक ईमानदार स्वतन्त्रता सेनानी और क्रन्तिकारी विचारो के कारण उन्हें अन्याय बिलकुल बर्दास्त नही था फिर वह चाहे किसी भी स्वरूप में क्यों न हो . इसी लिए हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास और पाखण्ड के खिलाफ वह विद्रोह कर बैठे . हिन्दू धर्म में मनुवाद और ब्राह्मणवाद से उपजे शोषण पर वह काफी दुखी थे और ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का भी मन बना लिया. वह समाज में व्याप्त सामजिक विषमता के घोर खिलाफ थे और समस्त मानव जाति के प्रति समता और बन्धुत्व का व्यवहार चाहते थे . उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है. सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है. 

तभी इन्हें यह अहसास हुआ कि देश की अशिछित जनता को जागरूक करने एवं विचारों के प्रचार- प्रसार का सबसे सबल माध्यम साहित्य ही है अत; साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया. उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था स्थापित की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा . इसके पश्चात उन्होंने 5 नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक. गद्य में भी उन्होंने 3 पुस्तके लिखीं – (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? 

एशिया के सुकरात कहे जाने वाले दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामस्वामी नायकर जी के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हो रहे थे जिनसे ललई सिंह यादव जी उनके सम्पर्क में आये. सम्पर्क होने पर पेरियार द्वारा लिखित ‘‘रामायण ए ट्रू रीडि़ंग’’ में उन्होंने विशेष अभिरूचि दिखाई. इसके बाद दोनों सामजिक क्रान्तिकारियो में इस पुस्तक के प्रचार प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में करने पर विशेष चर्चा हुई. समस्त उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पैरियार रामास्वामी नायकर जी ने ललईसिंह यादव जी को 01-07-1968 को दे दी. जिसके बाद ललईसिंह यादव जी द्वारा इसे 'सच्ची रामायण' के हिन्दी स्वरूप में 01-07-1969 को प्रकाशित किया गया . इसके प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व तथा पश्चिम् भारत में एक तहलका सा मच गया. जिससे उ.प्र. सरकार द्वारा 08-12-1969 को इस पुस्तक को प्रतिबंधित कर इसके जब्ती का आदेश प्रसारित हो गया . सरकार के अनुसार यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी थी . 

इस प्रतिबन्ध और साहित्यिक दमन के विरूद्ध प्रकाशक ललई सिंह यादव जी ने हाई कोर्ट इलाहाबाद में क्रमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-1970 को प्रस्तुत किया . कोर्ट में तीन जजों की स्पेशल बैंच इस केस के सुनने के लिए बनाई गई . जिसमे अपीलांट (ललईसिंह यादव) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट श्री बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी श्री पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट व श्री आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार 3 दिन तक सम्पन्न हुई. जिसमे 19-01-71 को माननीय जस्टिस श्री ए. के. कीर्ति, जस्टिस के. एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत से निर्णय दिया कि -

1. गवर्नमेन्ट आफ उ.प्र. की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जब्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है. 
2. जब्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललईसिंह यादव को वापिस दी जाये. 
3. गर्वन्र्मेन्ट आफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को 300 का हर्जाना खर्च भी दिया जाए . 

अभी ललई सिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकार की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा 'सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें' नामक पुस्तक जिसमें डाॅ. अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा 'जाति भेद का उच्छेद' नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी. इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने श्री बनवारी लाल यादव एडवोकेट, के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की. मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र. सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और सभी पुस्तके जनता को उपलब्ध हो सकी. इसी प्रकार ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया गया और यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा.

पुस्तक 'सच्ची रामायण' समेत अन्य पर हाई कोर्ट में हारने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी किन्तु वहां भी अपीलांट उत्तर प्रदेश सरकार क्रिमिनल मिसलेनियस अपील नम्बर 291/1971 ई. निर्णय सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया, नई दिल्ली दि. 16-9-1976 ई. के अनुसार अपीलांट की हार हुई अर्थात् रिस्पांडेण्ट श्री ललई सिंह यादव की जीत हुई. यहाँ फुलबैंच में माननीय सर्वश्री जस्टिस पी. एन. भगवती जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर तथा जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली मौजूद थे . 


महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामास्वामी नायकर जो गड़रिया (पाल-बघेल) जाति के थे, अचानक वह 20 दिसम्बर 1973 की सुबह इस लोक से विदा हो गये. उनकी मृत्यु के पश्चात् एक विशाल सभा में चेन्नई में ललईसिंह यादव जी को एक व्याख्यान हेतु बुलाया गया था. श्री रामास्वामी नायकर पेरियार जी की श्रद्धांजलि सभा में दिये गये इनके भाषण पर दक्षिण भारतीय श्रोता मुग्ध हो गये और इनके भाषण की समाप्ति पर 3 नारे लगाये गये. 

1 . अब हमारा अगला पैरियार
2 . पैरियार ललई सिंह
3 . पैरियार ललई सिंह



इस घटना के बाद से ही इनके नाम के पूर्व पैरियार शब्द का शुभारम्भ हुआ. दक्षिण भारत में पैरियार शब्द जाति वादी नहीं अपितु स्वच्छ निष्पक्ष-निर्भीक अथवा सागर के अर्थों में प्रयोग किया जाने वाला सम्मान सूचक शब्द है. शोषित पिछड़े समाज में स्वाभिमान व सम्मान को जगाने तथा उनमें व्याप्त अज्ञान, अंधविश्वास, जातिवाद तथा ब्राह्मणवादी परम्पराओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से वह लघु साहित्य के प्रकाशन की धुन में अपनी 59 बीघे की जमीन कौडि़यों के भाव बेच प्रकाशन के कार्य में आजीवन जुटे रहे और अंत में एक कर्मयोगी की तरह 7 फरवरी 1993 को उन्होंने इस दुनिया से अंतिम विदा ले ली.

देश के पिछड़े और शोषित समाज की लड़ाई आजीवन लड़ने के बावजूद भी आज पेरियार ललई सिंह यादव जी का नाम गुमनामी के अँधेरे में खोया हुआ है . उनके क्रन्तिकारी विचारो के तेज और बहुमूल्य साहित्य को तलाशना भी एक दुरूह कार्य बन चूका है जिसका दोष इस देश की  मनुवादी ताकतों के साथ -साथ थोडा -बहुत बहुजन को भी दिया जाना चाहिए . काश बहुजन समाज अपने इस महापुरुष के संघर्ष को संजो कर आगे बढ़ पाता तो उसमे कही न कही क्रन्तिकारी वैचारिक बदलाव अवश्य नजर आता .


Monday, 19 August 2019

कृष्णवाद



























'भगवान श्री कृष्ण' का मनोरम और मंगलकारी नाम ही एक विराट वैश्विक दर्शन है क्यों कि उनका सम्पूर्ण जीवन ऐसे अनेक असाधारण घटनाक्रमों और संघर्षों से भरा पड़ा है जिसमें वह किसी लोकनायक की भूमिका से कम नही नजर आते है . दुनिया भर के लाखो बुद्धिजीवी श्री कृष्ण के रहस्यमय जीवन और उनके बताये दुर्लभ ज्ञान को जानने को सदैव उत्सुक बने रहते है . इसलिए यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि आखिर 'श्री कृष्ण' के विराट व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो सदियों से दुनिया भर के श्रेष्ठ अध्यात्मिक दार्शनिको व धार्मिक गुरुओ को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है . कही वह कुरुछेत्र के रण में महाभारत के महानायक श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया वह परम ज्ञान 'श्री मद भगवत गीता' तो नहीं है या फिर महाभारत नामक वह महाग्रंथ, जिसमे देश, धर्म-अधर्म , न्याय-अन्याय , राजनीति, समाज, युद्ध, परिवार, ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म समेत जीवन के समस्त छेत्रो का अद्भुत वर्णन समाहित है . इस सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व को लोक -परलोक से सम्बन्धित रहस्यमयी ज्ञान देने वाली 'श्री मद भगवत गीता' में श्री कृष्ण के विराट व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक होते हुए कुंती पुत्र अर्जुन द्वारा की गई यह एक स्तुति बेहद खास है. 


"वासुदेव सुतं देवम कंस चाणूर मर्दनम्,
देवकी परमानन्दं कृष्णम वन्दे जगतगुरु"
अर्थात 
वासुदेव जी के पुत्र, देवो के देव , कंस और चाणूर को मारने वाले, देवकी को अपार आनंद देने वाले श्री कृष्ण आप इस विश्व के सबसे बड़े और श्रेष्ठ गुरु है .

स्पष्ट है श्री कृष्ण का महान व्यक्तित्व पूरी दुनिया भर में सबसे महानतम है जिसमें उनकी बहुरूपता के भव्य दर्शन होते है. वास्तव में इस प्रक्रति का हर रंग -रूप उनमे समाहित है . "कृष्ण" मूलतः एक संस्कृत शब्द है, जो "काला", "अंधेरा" या "गहरा नीला" का समानार्थी है. "अंधकार" शब्द से इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट होता है. हालांकि इस नाम का अनुवाद कहीं-कहीं "अति-आकर्षक" के रूप में भी किया गया है. 

श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र के दिन रात्रि  के 12 बजे हुआ था . उनका यह जन्मदिन श्री क्रष्ण जन्माष्टमी के नाम से भारत, नेपाल, अमेरिका सहित लगभग सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाता है. कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था तथा वह माता देवकी और पिता वासुदेव की 8 वीं संतान थे. दरअसल कृष्ण का जन्म ही नितान्त विषम परिस्थितियों में होता है . जिस बालक का जन्म कारागार के अंदर हो उसके लिए आगे का जीवन, संघर्ष का दूसरा नाम ही होना चाहिए . सबको पता है कि कारागार कोई पवित्र स्थल नही होता है किन्तु कृष्ण ने दुनिया को बताया कि जन्मस्थान से कोई महान नही होता अपितू अपने सद्कर्मो से ही महान बना जा सकता है . ब्रज का मुरलीधर और कुरुछेत्र का श्री कृष्ण, वास्तव में न जाने कितने ही स्वरूपों में श्री क्रष्ण ने स्वयम को प्रस्तुत किया . एक तरफ बांस के पेड़ से निर्मित उनकी मुरली की मधुर धुन ब्रजवासियो को विह्वल करती है तो दूसरी तरफ वह कुरुछेत्र के मैदान में कुशल सारथी बन कर अर्जुन के साथ शंखनाद कर रहे है . अपनी चंचल बाल लीलाओ के माध्यम से खेल -खेल में मथुरा के राजा कंस मामा के भेजे आतताईयो का संहार करना हो या कन्दुक लेने के बहाने यमुना में कालिया नाग को दंडित करना हो , समस्त कृष्ण लीलाए अपरम्पार है . कही युवा कृष्ण अन्याई और अधर्मी कंस का संहार करते है तो अन्यत्र वह गोपियों के संग अपनी मधुर बांसुरी लेकर प्रेम का शास्वत संदेश भी दे रहे है . श्री कृष्ण ने अन्याय से लड़ते हुए तमाम राजा -महाराजा , मायावी दुष्टों को ही नहीं अपितु देवेन्द्र तक को पराजित किया . पता नही क्यों यदुनन्दन कृष्ण के तेज को देवराज इंद्र भी न समझ सके और अपनी एक भूल के कारण इस लोक में अपने देवत्व को गंवा बैठे . कृष्ण का महान व्यक्तित्व इंसानों का ही रछक नही अपितु जीव -जन्तुओ का भी पालक नजर आता है . वास्तव में पूरे विश्व में श्री कृष्ण से बढ़ कर अन्य कोई गोपालक भी नही हुआ होगा . अपनी इन्ही गायो और ग्वालो की रछा करने हेतु वह श्री कृष्ण से गिरधर बन गये . 

ब्रज की गोपिया उन्हें छलिया अवश्य कहती है लेकिन वही छलिया क्रष्ण आखिरकार क्रष्णा (द्रोपदी) के पुकारने में उसकी लाज रखने हेतु पहुच जाते है . ब्रज में राधा अहीरिन (अनुराधा ) के साथ कृष्ण अहीर की रास लीला और प्रेम अठखेलिया उनके निष्काम प्रेम का अभूतपूर्व संदेश है . हालांकि उनके निष्काम प्रेम के स्थान पर आजकल देश में जोर -जबरदस्ती और विकृत मानसिकता काफी ज्यादा हावी है . सम्भवतः यह पाश्चात्य संस्क्रती का भारतीय संस्क्रती पर आक्रमण है . वास्तव में राधा-कृष्ण के प्रेम में नर -नारी के समत्व के दर्शन भी होते है . चर्चा जब राधा -कृष्ण की हो तो मीरा का नाम भी सामने आ जाता है . वही मीराबाई जहा से चित्तौड़ की एक रानी पद्मिनी भी थी . इसी धरती से मीरा ने कृष्णभक्ति में अपना सर्वस्व त्याग दिया . कहा जाता है कि वह कृष्ण के प्रेम में इस कदर खोई कि जहर का प्याला भी अपने अधरों से लगा लिया . अंत मे मीरा ने अपनी अटूट भक्ति से कृष्ण के प्रेम को प्राप्त किया किन्तु मीराबाई का उदय एक ऐसे समय में हुआ था जब भारत में खानवा का युद्ध भी हुआ और इस युद्ध में बाबर ने राणा सांगा को पराजित कर मुग़ल साम्राज्य की नीव डाल दी थी . इस दौर में यह प्रश्न काफी अहम था कि जब मीराबाई अपने इष्ट श्री कृष्ण के प्रेम में डूबी हुई थी तब उस दौर में भारत के राजे -महाराजाओ ने श्री कृष्ण की युद्ध कलाओं और कूटनीति से कोई सबक क्यों नहीं लिया . 


श्री कृष्ण ने अपने जीवनकाल में अथाह पराक्रम और कल्याणकारी कर्म किये इसलिए उन्हें कर्मो का देव मान लेना चाहिए था . किन्तु यह एक विडम्बना ही है कि कर्मयोगी होने के बावजूद भी वह इस देश के जनमानस के अंतर्मन में कर्म के देवता नहीं बन सके . वास्तव में श्री क्रष्ण का जीवन एक लोकनायक के समान ही है . कुरुछेत्र के रण में उन्होंने अर्जुन से स्पष्ट कहा कि इस ब्रह्मांड में कर्म ही असली पूजा है और व्यक्ति या जीव का कर्म ही उसके भाग्य का निर्माण करता है . कृष्ण यादव शिरोमणि है लेकिन दुर्भाग्य से उनके वंशज ही उन्हें अपना आदर्श मानने से कतराते है . उनके वंशज अहीर समाज अपने पुरखे यदुनन्दन श्री कृष्ण के कृष्णवाद को अपनाना तो दूर वे सुबह -शाम उनका ध्यान और स्मरण भी भूल गये . इस प्रकार कृष्ण का विराट वैश्विक व्यक्तित्व अपने वंशजो में ही गुमनाम हो गया . हालांकि बंगाल और उड़ीसा में कृष्ण आज भी काफी जीवंत है . बंगाल में तो किसी की म्रत्यु होने पर ' बोलो हरि -बोल हरि' का उद्घोष आज भी सुनाई पड़ जाता है . महाभारत का एक रोचक प्रसंग कुछ इस प्रकार है . 


वनवास जाने से पूर्व पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- 'हे श्रीकृष्ण! अभी यह द्वाप‍र का अंतकाल चल रहा है. आप हमें बताइए कि आने वाले कलियुग में कलिकाल की चाल या गति क्या होगी ,कैसी होगी?' तब श्रीकृष्ण ने कहा - 'तुम पांचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी वहा दिखे वह आकर मुझे बताओ. मैं तुम्हें उसका प्रभाव अवश्य बताऊंगा '. पांचों भाई वन में गए और वहा जाकर उन्होंने जो देखा उसको देखकर वे सब आश्चर्यचकित रह गए. पांचों भाई वन में अलग-अलग दिशाओं में भ्रमण को निकले. युधिष्ठिर भ्रमण पर थे तो उन्होंने एक जगह पर देखा कि किसी हाथी की दो सूंड है. यह देखकर युधिष्ठिर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. अर्जुन दूसरी दिशा में भ्रमण पर थे. उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएं लिखी हुई हैं, पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है. महाबली भीम ने देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है और जन्म के बाद वह बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो गया. सहदेव ने देखा कि 6-7 कुएं हैं और आसपास के कुओं में पानी है किंतु बीच का कुआं खाली है. बीच का कुआं गहरा है फिर भी पानी नहीं है. उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है?इसी प्रकार नकुल ने देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी-सी शिला लुढ़कती हुई आती है और कितने ही वृक्षों से टकराकर उनको नीचे गिराते हुए आगे बढ़ जाती है. विशालकाय वृक्ष भी उसे रोक न सके. इसके अलावा वह शिला कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर फिर भी वह रुकी नहीं और अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई.

पांचों भाइयों ने अपने देखे गए दृश्य की चर्चा की और शाम को श्रीकृष्ण को अपने अनुभव सुनाए. सबसे पहले युधिष्ठिर ने कहा कि मैंने तो पहली बार दो सूंड वाला हाथी देखा. यह मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक था. तब श्रीकृष्ण कहते हैं- 'हे धर्मराज! अब तुम कलिकाल की सुनो. कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा, जो दोनों ओर से शोषण करेंगे. बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ. मन में कुछ और कर्म में कुछ और , ऐसे ही लोगों का राज्य होगा.' इसके बाद अर्जुन की बात पर श्री क्रष्ण ने कहा कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे, जो बड़े ज्ञानी और ध्यानी कहलाएंगे. वे ज्ञान की चर्चा तो करेंगे, लेकिन उनके आचरण राक्षसी होंगे. बड़े पंडित और विद्वान कहलाएंगे किंतु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाए.' 'हे अर्जुन! 'संस्था' के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाए. हर जाति धर्म के प्रमुख पद पर बैठे विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध हो. कौन, कब, किस पद से हटे और हम उस पर चढ़े. चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किंतु उनकी दृष्टि तो धन और पद के ऊपर ही रहेगी. ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई-कोई विरला ही सज्जन पुरुष होगा.' इसके पश्चात भीम के द्रष्टान्त पर श्री क्रष्ण ने कहा कलियुग का मनुष्य शिशुपाल के समान हो जाएगा. कलियुग में बालकों के लिए ममता के कारण इतना मोह करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा. मोह-माया में ही घर बर्बाद हो जाएगा. किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे, किंतु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोएंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोह-माया और परिवार में ही बांधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा. अंत में वह बेचारा अनाथ होकर मरेगा. वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं, लड़कियां जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है. तुम्हारी आत्मा, परमात्मा की अमानत है. तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो '. इसके उपरान्त सहदेव की बात सुनकर श्री क्रष्ण कहते है ,'कलियुग में धनाढ्‍य लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रुपए खर्च कर देंगे, परंतु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा-प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं. उनका अपना ही सगा भूख से मर जाएगा और वे देखते रहेंगे. दूसरी और मौज, मदिरा, मांस-भक्षण, सुंदरता और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे किंतु किसी के दो आंसू पोंछने में उनकी रुचि न होगी. कहने का तात्पर्य यह कि कलियुग में अन्न के भंडार होंगे लेकिन लोग भूख से मरेंगे. सामने महलों, बंगलों में ऐशोआराम चल रहे होंगे लेकिन पास की झोपड़ी में आदमी भूख से मर जाएगा. अत: एक ही जगह पर असमानता अपने चरम पर होगी.' अंत में नकुल की बात पर श्री क्रष्ण जी ने कहा ,'कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा. यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रुकेगा, न ही सत्ता के वृक्षों से रुकेगा. किंतु हरि नाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे से मनुष्य जीवन का पतन होना रुक जाएगा.' 


पांड्वो और श्री क्रष्ण के मध्य का यह वार्तालाप आज के दौर पर एकदम सटीक बैठता है . इसलिए श्रीक्रष्ण के युगपुरुष होने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए . वास्तव में वह दूरदर्शी और त्रिकालदर्शी भी थे . उनके द्वारा नरकासुर की कैद से मुक्त करवाई गई 16000 कन्याओं को समाज में उचित स्थान नहीं मिल पाएगा और इससे अनेक अनर्थ होंगे, यह विचार कर उन्होंने उन सबसे स्वयम विवाह रचाया. इससे उनके समाज और स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार रखने का पता चलता है . पांडवों के राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों का पादप्रक्षालन कर स्वयं जूठे पत्तल उठाए . यह उनकी महानता का बेजोड़ उदाहरण है . 

किंवदन्तियो के अनुसार 124 वर्षों के जीवनकाल के बाद श्री क्रष्ण ने अपनी लीला समाप्त की और उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ भी माना जाता है. महाभारत के बाद गांधारी के श्राप के दंश को झेल रहा कृष्ण का यदुवंश हकीकत में निर्दोष नजर आता है . गांधारी ने अपने सभी पुत्रो के महाभारत में परलोक सिधारने पर कुपित होकर कृष्ण और उनके यदुवंश को श्राप दिया था हालांकि गांधारी का यह श्राप बिलकुल औचित्यहीन नजर आता है .काश गांधारी अपने पुत्रमोह को त्यागकर अपने अन्यायी पुत्रो और कर्तव्य से विमुख ध्र्तराष्ट्र को पांड्वो के साथ हो रहे अन्याय के बारे में समझा पाती तो शायद इस महायुद्ध की नौबत ही न आती. आखिर पांच गाँव ही तो मांग रहे थे पांडव् किन्तु दुर्योधन का यह हठ कि पांच गाँव क्या सुई के नोक बराबर भूमि भी नही देंगे . ये सरासर अन्याय ही तो था . यही नहीं, भरी सभा में जब द्रोपदी का चीरहरण हो रहा था तब गांधारी कहा थी ? इन सबके बावजूद कृष्ण ने अपनी कृष्णनीति से भरपूर प्रयत्न किया था कि युद्ध न हो ,किन्तु कौरव अपने अहंकार में चूर थे . वस्तुतः युद्ध तो श्री कृष्ण भी नही चाहते थे सम्भवतः इसीलिए उन्होंने पुरे युद्ध में कोई शस्त्र नही उठाया अलबत्ता वह अर्जुन के सारथी अवश्य बने रहे . लेकिन समझौते के अनुसार इसके बदले में दुर्योधन ने पहले ही उनकी चतुरंगिनी सेना को अपने साथ मांग लिया था . निश्चित ही गांधारी का यह श्राप उसके पुत्रमोह के पूर्वाग्रह से ग्रस्त था . उसके श्राप में निष्पछता का अभाव था किन्तु जगतगुरु ने उनकी मातृत्व की भावनाओ का सम्मान कर इस श्राप को भी स्वीकार किया . 

गंगा और यमुना भारत की ऐतिहासिक नदिया है . लेकिन आज दोनों ही नदिया प्रदूषित है . यमुना नदी तो श्री कृष्ण की लीलाओ की ऐतिहासिक धरोहर है किन्तु वही सबसे ज्यादा प्रदूषित है . क्या कृष्ण के तमाम अनुयायियों और उनके वंशजो ने कभी अपनी इस धरोहर को सहेजने पर विचार किया ? कृष्ण ने अपने अनेक रूपों से भारत की एकता और संस्क्रति को सम्रद्ध करने का संदेश दिया . उन्होंने यहाँ की गायो की रछा की तो यहाँ के जन -मन को आत्मा -परमात्मा का गूढ़ ज्ञान भी दिया . उन्होंने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन आत्मा पुराने शरीर को वैसे ही छोड़ देती है, जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को उतार कर नए कपड़े धारण कर लेता है. आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, ना ही इसे जलाया जा सकता है, ना ही पानी से गीला किया जा सकता है, आत्मा अमर और अविनाशी है. उनके इस गूढ़ ज्ञान को आज तक कोई झुठला नही सका है . बल्कि विज्ञान भी ऊर्जा के अविनाशी होने की बात का समर्थन करता है . माया-मोह में लिप्त नागरिको को आत्मा के स्वरूप और जीव के कर्मो के अनुसार उसके पुनर्जन्म का सिद्धांत बतलाकर श्री क्रष्ण ने म्रत्यु के भय को दूर किया . उन्होंने सत रज तम (त्रिगुण) की व्याख्या कर लोकजीवन को कल्याणकारी बनाया . एक कृष्ण ही है जिनमें कर्म के त्याग , सुख-दुख,शीत-उष्ण,जय-पराजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यव भाव का सुरीला दर्शन किया जा सकता है . संसार में एकमात्र कृष्ण ही ऐसे व्यक्तित्व हुए जिन्होंने जीवन के दर्शन को भी गीत बना दिया . जीवन के हर छेत्र में कृष्ण उच्च मानवीय आदर्शो के प्रतीक है . मित्रता की बात हो तो कृष्ण -सुदामा की मित्रता का उदाहरण आज भी काफी जीवंत है . धैर्य और सहनशीलता का गुण देखना है तो देखिये कृष्ण ने शिशुपाल की 100 गलतिया तक नजरअंदाज की . सेवक के रूप में उन्होंने जूठे बर्तनों को धोना भी स्वीकार किया . इस प्रकार श्री कृष्ण का व्यक्तित्व और उनकी नीतिया समस्त मानवीय आदर्शो का भव्य संगम है . इसीलिए सम्पूर्ण विश्व उन्हें विश्वगुरु मानता है . 

कृष्णवाद कृष्ण के निष्काम प्रेम योग ,कर्मयोग , मित्रयोग , समत्व योग और अन्याय के खिलाफ युद्ध में कूटनीतियों का वह सम्मिश्रण है जिससे आज के दौर में समाज में बन्धुत्व और समत्व आ सकता है . जिसके फलस्वरूप समाज में एकता और पारस्परिक प्रेम उपजेगा. इससे भारत की गौरवमयी संस्क्रती का पुनर्जन्म होगा और राष्ट्र संगठित व सशक्त होगा . अन्याय और अधर्म का समूल नाश होगा . विश्व में शांति का शंखनाद होगा और भारत का सम्पूर्ण विश्व में गीतगान होगा . 


कृष्ण की पूजा वैष्णववाद का हिस्सा है, जो हिंदू धर्म की एक प्रमुख परंपरा है. कृष्ण को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार भी माना जाता है. सभी वैष्णव परंपराएं कृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार मानती हैं; अन्य लोग विष्णु के साथ कृष्ण की पहचान करते हैं . जयदेव अपने गीतगोविंद में कृष्ण को सर्वोच्च प्रभु मानते हैं जबकि दस अवतार उनके रूप हैं. स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामीनारायण ने भगवान के रूप में कृष्ण को स्वीकार किया है .वही "वृहद कृष्णवाद" वैष्णववाद में , वैसुलिक काल के वासुदेव और वैदिक काल के कृष्ण और गोपाल को प्रमुख माना जाता है . श्री क्रष्ण ऐतिहासिक रूप से कृष्णवाद और वैष्णववाद में इष्ट देव के प्रारंभिक रूपों में से एक है. भारतीय नृत्य और संगीत थिएटर प्राचीन ग्रंथो जैसे वेद और नाट्यशास्त्र ग्रंथों को अपना आधार मानते हैं .हिंदू ग्रंथों में पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से प्रेरित कई नृत्यनाटिकाओ को और चलचित्रो को , जिसमें कृष्ण-संबंधित साहित्य जैसे हरिवंश और भागवत पुराण शामिल हैं ,अभिनीत किया गया है. कृष्ण की कहानियों ने भी भारतीय थियेटर, संगीत, और नृत्य के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेष रूप से रासलीला की परंपरा के माध्यम से. कथक , ओडिसी , मणिपुरी ,कुचीपुड़ी और भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ तो कृष्ण-संबंधी प्रदर्शनों के लिए ही जाने जाते हैं. कृष्णाट्टम ( कृष्णट्टम ) ने अपने मूल को कृष्ण पौराणिक कथाओं के साथ रखा है और यह कथकली नामक एक अन्य प्रमुख शास्त्रीय भारतीय नृत्य रूप से जुड़ा हुआ है .वास्तव में श्री क्रष्ण और उनका जीवन भारत की संस्क्रती में रचा -बसा हुआ है . उनके विचार और तत्वज्ञान भारत के बाहर भी प्रकाशमान है . वह एक वैश्विक और दैवीय व्यक्तित्व है जिनमे सदियों से जनमानस की आस्था व्याप्त है . पूरे ब्रह्मांड में उनके भक्त आज भी विद्यमान है जिनकी आस्था क्रष्णवाद पर टिकी हुई है .