Friday, 29 June 2018

संघर्ष

(ओशो, अष्‍टावक्र: महागीता, भाग-1, प्रवचन-12)


मैंने सुना है, एक किसान परमात्मा से बहुत परेशान हो गया. कभी ज्यादा वर्षा हो जाए कभी ओले गिर जाएं, कभी पाला पड़ जाए कभी वर्षा न हो, कभी धूप हो जाए फसलें खराब होती चली जाएं, कभी बाढ़ आ जाए और कभी सूखा पड़ जाए . आखिर उसने कहा कि सुनो जी, तुम्हें कुछ किसानी की अक्ल नहीं, हमसे पूछो! परमात्मा कुछ मौज में रहा होगा उस दिन. उसने कहा, अच्छा, तुम्हारा क्या खयाल है? उसने कहा कि एक साल मुझे मौका दो, जैसा मैं चाहूं वैसा मौसम हो. देखो, कैसा दुनिया को सुख से भर दूं धन—धान्य से भर दूं!

परमात्मा ने कहा, ठीक है, एक साल तेरी मर्जी होगी, मैं दूर रहूंगा. स्वभावत: किसान को जानकारी थी. काश, जानकारी ही सब कुछ होती! किसान ने जब धूप चाही तब धूप मिली, जब जल चाहा तब जल मिला, बूंद भर कम—ज्यादा नहीं, जितना चाहा उतना मिला. कभी धूप, कभी छाया, कभी जल—ऐसा किसान मांगता रहा और बड़ा प्रसन्न होता रहा; क्योंकि गेहूं की बालें आदमी के ऊपर उठने लगीं. ऐसी तो फसल कभी न हुई थी. कहने लगा, अब पता चलेगा परमात्मा को! न मालूम कितने जमाने से आदमियों को नाहक परेशान करते रहे. किसी भी किसान से पूछ लेते, हल हो जाता मामला. अब पता चलेगा.

गेहूं की बालें ऐसी हो गईं, जैसे बड़े—बड़े वृक्ष हों. खूब गेहूं लगे. किसान बड़ा प्रसन्न था. लेकिन जब फसल काटी, तो छाती पर हाथ रख कर बैठ गया. गेहूं तो भीतर थे ही नहीं, बालें ही बालें थीं. भीतर सब खाली था. वह तो चिल्लाया कि हे परमात्मा, यह क्या हुआ? परमात्मा ने कहा, अब तू ही सोच, क्योंकि संघर्ष का तो तूने कोई मौका ही न दिया. ओले तूने कभी मांगे ही नहीं. तूफान कभी तुमने उठने न दिया. आंधी कभी तूने चाही नहीं. तो आंधी , अंधड़, तूफान, गड़गड़ाहट बादलों की, बिजलियों की चमचमाहट. तो इनके प्राण संगृहीत न हो सके. ये बड़े तो हो गए लेकिन पोचे हैं.

संघर्ष आदमी को केंद्र देता है. नहीं तो आदमी पोचा रह जाता है. इसलिए तो धनपतियों के बेटे पोचे मालूम होते हैं. जब धूप चाही धूप मिल गई, जब पानी चाहा पानी; न कोई अंधड़, न कोई तूफान. तुम धनपतियों के घर में कभी बहुत प्रतिभाशाली लोगों को पैदा होते न देखोगे—पोचे! गेहूं की बाल ही बाल होती है, गेहूं भीतर होता नहीं. थोड़ा संघर्ष चाहिए. थोड़ी चुनौती चाहिए.

*ओशो, अष्‍टावक्र: महागीता, भाग-1, प्रवचन-12*

Thursday, 28 June 2018

कबीर दास 'मगहर का संत '



15 वी शताब्दी में अपनी सीधी -साधी जुबान से दुनिया के आडम्बरो और पाखंडो के खिलाफ उन पर प्रहार करने वाले संतो की श्रेणी में कबीर दास जी को जाना जाता है . कबीर दास जी का जन्म 1398 ई में काशी में हुआ था . हालांकि उनका जन्मस्थान विवादित है . उनके जन्म के बारे में प्रचलित मान्यता यह है कि वह काशी के पास एक तालाब के किनारे पाए गये थे और उनका पालन -पोषण नीरू व नीमा नाम के जुलाहा दम्पति ने किया था .

कबीर दास जी के गुरु रामानन्द जी थे . किन्तु कहा जाता है कि रामानन्द जी कबीर को अपना शिष्य स्वीकार नही करना चाहते थे . जबकि कबीर रामानन्द जी को ही अपना गुरु बनाना चाहते थे . इसलिए उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक योजना बनाई . कबीर दास जी जानते थे कि रामानन्द जी प्रत्येक दिन भोर में गंगा स्नान हेतु जाते है . अतः कबीर दास जी घाट की सीढियों पर अँधेरे में ही लेट गये . भोर समय जब गंगा स्नान को जाते हुए अनजाने में रामानन्द जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया तो उनके मुख से अचानक 'राम -राम ' का शब्द निकल गया . बस इसी 'राम -राम 'को कबीर ने गुरु मन्त्र मान लिया .



कबीर दास जी सादा जीवन जीते थे . कुछ लोगो की धारणा के अनुसार कबीर दास जी विवाहित थे एवं उनके दो संताने भी थी . वह अपनी सामाजिक जीविका चलाने के लिए जुलाहे का ही कर्म करते थे . वह धर्म से ज्यादा कर्मो के सिद्धांत पर यकीन करते थे . उस समय धर्म के आडम्बर काफी चरम पर थे , किन्तु कबीर दास जी ने हिन्दू -मुस्लिम दोनों ही धर्मो की अनेक कुरीतियों पर खुल कर प्रहार किया . वह ईश्वर के अवतार , मन्दिर , मस्जिद ,मूर्ति पूजा , रोजा आदि के एकदम खिलाफ थे . उनका कहना था कि ,

पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार। 
वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।

यानि की पत्थर पूजने से यदि प्रभु की प्राप्ति हो जाए तो वह पहाड़ की पूजा करने के लिए भी तैयार है . इसकी अपेछा वह पत्थर के रूप में उस चक्की की तारीफ़ करते है जो अनाज को पीसती है और पूरी दुनिया का पेट पालती है . कबीर दास जी अंधविश्वास से कोसो दूर है . वह सभी धर्मो के अलग -अलग ईश्वर के बजाय एक ही ईश्वर को मानते थे .वह शांति प्रिय थे . उन्हें अहिंसा , सत्य ,सदाचार आदि से प्रेम था किन्तु सामाजिक ऊंच -नीच ,जांत -पांत , धर्मो की लड़ाई , कट्टरता और किसी भी प्रकार के भेदभाव से सख्त नाराजगी थी .वास्तव में कबीर दास जी अपने समय के सबसे बड़े समाज सुधारक , सामजिक चिंतक और समाजवादी विचारों से ओत -प्रोत थे . वह इंसानों के बीच में प्रेम और भाईचारा देखना चाहते थे . 

कबीर दास जी ज्ञान की गंगा थे . उनका ईश्वर निर्गुण था . वह राम की आराधना अवश्य करते थे किन्तु उनके राम , दशरथ नन्दन राम न होकर पूरी दुनिया के सर्वव्यापी राम है . उनके राम दुनिया के कण -कण में व्याप्त है . वास्तव में उनके राम , रमता राम है . उनके राम सगुण -निर्गुण के भेद से परे है .उनका मानना था कि ईश्वर को किसी नाम , रुप, गुण और काल की सीमा में नही बाँधा जा सकता है . कबीर दास जी की भक्ति निर्गुण ब्रह्म के साथ काफी सहज ,सरल और वास्तविकता से भरी हुई है . 


कबीर दास जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी कागज और पेन नही छुआ था .उनके ज्ञान और भक्ति के प्रवचनों को उनके शिष्यों ने ही सुन कर ही लिखा था . उनके दोहों से बना 'बीजक ' ऐसा ही एक ग्रन्थ है .कबीर दास जी भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा से आते है इसलिए उनके दोहों और शब्दों में ज्ञान का अकूत भंडार है . उन्होंने अपने उपदेशो और लोकव्यवहार से समाज में सदैव सत्य की महिमा को बताने का काम बखूबी किया है . धर्म के बारे में उनकी बाते धर्म के अनेक ठेकेदारों को पसंद नही आई , अत: हिन्दू -मुस्लिम दोनों धर्मो के ठेकेदारों ने उन्हें काफी परेशान किया . लोगो की मान्यता ( काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है) , को चुनौती देते हुए वह अपने अंतिम दिनों में मगहर चले गये थे . कहा जाता है कि यही पर इन्होने 119 वर्ष की अवस्था में 1494 ई में अपना लौकिक शरीर त्याग दिया .

आज जब समाज में झूठ , पाखंड , भ्रष्टाचार ,धार्मिक कट्टरता और भेदभाव का बोलबाला है तो कबीर दास जी के दोहे उनकी तपस्या को सार्थक करते हुए जन -जागरण कर रहे है .


Monday, 25 June 2018

विश्वनाथ प्रताप सिह



1975 के आपातकाल से लड़ने के लिए संयुक्त समाजवादी पार्टी और जनसंघ समेत कई पार्टियों के नेताओ को मिलाकर लोकनायक जयप्रकाश जी ने जनता पार्टी का सूत्रपात किया था . इसी जनता पार्टी ने मोरारजी देसाई के नेत्रत्व में 1980 तक केंद्र में सरकार चलाई थी . किन्तु कुछ आंतरिक मतभेदों और विपछी साजिशो के कारण यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी . लेकिन इस जनता पार्टी की सरकार ने सामाजिक समानता हेतु देश के संविधान की मंशा के अनुरूप पहली बार सामाज में पिछड़ों की पहचान हेतु सन 1979 में 'मंडल आयोग' को बैठा दिया था और श्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को इसका अध्यक्ष बना दिया था . इसी मंडल आयोग ने ही सरकारी नौकरियों में पिछडे़ वर्गों के लोगों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की मांग की थी. तब अपने लगभग 3 साल के छोटे किन्तु शानदार कार्यकाल के जरिये इस सरकार ने कई जनहित के कार्य किये थे . जनता पार्टी की सरकार जाने के बाद हुए आम चुनावों में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर से देश की कमान संभाल ली . 

असल में उस दौर में आजादी के बाद कांग्रेस की निरंकुशता पर नकेल डालने वालो में समाजवादी नेता अग्रणी थे . चाहे डा राम मनोहर लोहिया रहे हो या जयप्रकाश या फिर राजनारायण, सभी ने कांग्रेस को लोकतंत्र की ताकत दिखलाई . किन्तु 1979 में लोकनायक जयप्रकाश की म्रत्यु के बाद जनता पार्टी की सरकार भी 1980 में गिर गयी थी और फिर धीरे -धीरे इसके दिग्गज नेता भी बिखर गये . वर्ष 1980 से 1984 तक इंदिरा गांधी अपनी शहादत तक कांग्रेस की प्रधानमन्त्री बनी रही . उनकी शहादत के बाद 1984 में जो आम चुनाव हुए उसमे उनके पुत्र राजीव गांधी को देश का प्रधानमन्त्री बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ .

विश्वनाथ प्रताप सिह के बारे में चर्चा करने से पहले यह एक अत्यंत आवश्यक रुपरेखा थी. अब बात मांडा के राजा की करते है . असल में राजा विश्वनाथ प्रताप सिह राजीव गांधी मंत्रीमंडल में वित्त मंत्री हुआ करते थे और उनके रहते ही विवादित बोफोर्स का सौदा तय हुआ था . इसी बोफोर्स काण्ड को हवा में उछाल कर वी पी सिह दुनिया की नजरो में सत्यवादी हरिश्चन्द्र बन गये थे . कभी वी. पी. सिंह ने चुनावी जनसभाओं में दावा किया था कि बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म एक 'लोटस' नामक विदेशी बैंक में जमा कराई है और वह सत्ता में आने के बाद पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे. ये तो ईश्वर ही जानता होगा कि इस सौदे में गांधी परिवार संलिप्त था कि नहीं , किन्तु उस दौर में बोफोर्स ने वी पी सिह को रातो रात देश का सबसे ईमानदार नेता अवश्य बना दिया.




कहा जाता है वी पी सिह मांडा के राजा के दत्तक पुत्र थे . छात्र राजनीति के बाद वह कांग्रेस पार्टी से जुड़े और उत्तर प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र की राजनीति में लाये गये . बोफोर्स मुद्दे के कारण 1987 में कांग्रेस से निष्काषित होने के बाद एक तरफ वी पी सिह बोफोर्स का मुद्दा गरमा रहे थे और दूसरी तरफ जनता पार्टी के कई पुराने दिग्गज नेता डा लोहिया की सामाजिक समानता की अवधारणा को एक बार फिर से जमीन पर उतारने की खातिर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने हेतु आम जनता खासतौर से पिछडो के बीच में दिन -रात जन -जागरण कर रहे थे . इस जन -आन्दोलन की मुहीम का असर ये हुआ कि देश की जनता ने कांग्रेस को विपछ में बैठने का जनादेश दे दिया और वी पी सिह का राष्ट्रीय मोर्चा कुछ अन्य पार्टियों (जनता दल , भाजपा एवं वामपंथी दल ) के सहयोग से 1989 में देश की सत्ता पर आसीन हो गया .

प्रधानमन्त्री बनने के बाद वी पी सिंह ने 13 अगस्त 1990 को लगभग 10 साल से लटकी हुई मंडल आयोग की अधिसूचना को जारी कर दिया. इसके जारी होते ही पूरा देश 2 भागो में बंट गया . एक तरफ आरछण के विरोधी थे तो दूसरी तरफ आरछण समर्थक . सवर्ण बिरादरी तो पूरी तरह से वी पी सिह की दुश्मन बन गयी . मंडल कमीशन के विरोध में कांग्रेस और भाजपा के खाए -पिए लोग भी एकजुट हो गये . भाजपा ने तो वी पी सिह की सरकार से समर्थन तक वापस ले लिया और मंडल की काट के लिए कमंडल का खेल रच दिया . भाजपा ने नवम्बर 1990 में ही अयोध्या में श्री राम मन्दिर निर्माण का बीज बोकर मंडल के प्रभाव को समाप्त करने हेतु अनेक अडचने पैदा करना प्रारम्भ कर दिया . अनेक बार बाबरी मस्जिद गिराने हेतु प्रयास हुए जिसका मुख्य उद्देश्य उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिह यादव की सरकार को अस्थिर करना ही था .

वास्तव में मंडल आयोग ने जहा एक तरफ समाज में पिछडो को अपना स्तर सुधारने का अवसर देकर सामाजिक ऊंच -नीच की खाई को कमजोर किया वही इसने भाजपा को इसकी काट हेतु धार्मिक ध्रुवीकरण का मन्दिर मुद्दा भी थमा दिया . जो कि आज भी भाजपा को संजीवनी देता रहता है . अपने छोटे से कार्यकाल में वी पी सिह ने मंडल कमीशन को लागू करने का एक अहम फैसला लिया था , इसके लिए वह सदैव स्मरणीय रहेंगे . अपने इस महत्वपूर्ण फैसले की खातिर उन्होंने अपनी सरकार के गिर जाने की भी परवाह नही की . अचानक मंडल और मन्दिर प्रकरण की घटनाओं के कारण देश की यथास्थिति से वी पी सिह हैरत में थे और वह सक्रिय राजनीति से दूर हो गये . इसके कुछ समय बाद ही वह गम्भीर रूप से अस्वस्थ भी हो गये . उन्हें पहले रक्त कैंसर की समस्या हुई किन्तु बाद में किडनी भी खराब हो गयी . अपनी इन लाइलाज बीमारीयो से जूझते हुए वी पी सिह जी 27 नवम्बर 2008 को इस दुनिया से विदा हो गये .

चूँकि विश्वनाथ प्रताप सिह अपने फतेहपुर लोक सभा निर्वाचन छेत्र से ही सांसद थे इसलिए एक चुनावी सभा में नवम्बर 1989 को उन्हें देखने -सुनने का एक सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ . इस छेत्र की जनता में उनकी लोकप्रियता बढिया थी और वह भी जनता से मिलना काफी पसंद करते थे . किन्तु प्रधानमन्त्री होने के बावजूद उन्होंने फतेहपुर के विकास के लिए लगभग कुछ नही किया इसलिए यह जिला आज भी काफी पिछड़ा हुआ है . लेकिन देश और समाज के समग्र विकास के लिए उन्होंने जो महान जन हित का कार्य किया है उसके लिए उन्हें सदैव एक समाज सुधारक और सामजिक न्याय के दूत के रूप में अवश्य याद किया जाएगा . 



Saturday, 23 June 2018

काशीराम



डा अम्बेडकर के बाद दलित जनसमूह में सबसे बडा राजनैतिक कद यदि किसी अन्य राजनेता का है तो वह और कोई दूसरा शख्स नही बल्कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक काशीराम जी का है. कहा जाता है काशीराम जी ने अपना घर त्यागने से पहले परिवार के लिए एक चिट्ठी छोड़ दी थी जिसमे उन्होंने लिखा था, ‘अब कभी वापस नहीं लौटूंगा’, और वे सच में वापस कभी अपने घर नहीं लौटे. परिवार के सदस्यों की मृत्यु पर भी वे अपने घर नहीं गए. परिवार के लोग कभी लेने आए भी तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. इससे उनके काफी द्रढ़ निश्चयी होने का भी पता चलता है .

काशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पिर्थीपुर बुंगा ग्राम, खवसपुर,जिला रूपनगर पंजाब में हुआ था . 1958 ई में स्नातक की पढाई करने के बाद काशीराम जी ने डीआरडीओ से बतौर सहायक वैज्ञानिक के रूप में अपना कैरियर प्रारम्भ किया . यहा नौकरी करते हुए डा अंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुट्टी को लेकर हुए विवाद ने नौकरी से उनका मोह भंग कर दिया .इसके बाद कांशीराम जी ने अपनी नौकरी छोड़कर ख़ुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक देने का मन बना लिया . इसके संकल्प हेतु उन्होंने नौकरियों में लगे अनुसूचित जातियों -जनजातियों, पिछड़े वर्ग और धर्मांतरित अल्पसंख्यकों के साथ मिलकर 'बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लायीज फेडरेशन' (बामसेफ़) की स्थापना की. 

कांशीराम दलितों के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव से काफी आहत थे . इसलिए वह दलित बिरादरी को डा अम्बेडकर और डा राम मनोहर लोहिया की सामाजिक समानता की विचारधारा तक लाना चाहते थे . वह दलितों के साथ होने वाले अपमान और शोषण बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. कहा जाता है कि एक बार कांशीराम रोपड़ जिले के एक ढाबे में गए थे . वहां उन्होंने खाना खा रहे कुछ ज़मींदारों को अपनी शेख़ी बघारते हुए सुना कि किस तरह उन्होंने खेतों में काम कर रहे दलितों को सबक सिखाने के लिए उनकी जम कर पिटाई की है. ये सुन कर कांशीराम का ख़ून खौल उठा और वो इतने गुस्से में आ गये कि उन्होंने एक कुर्सी उठाकर उसी से उन ज़मीदारों की पिटाई करनी शुरू कर दी .

समय के साथ -साथ राजनीति के अनुभवो से सीख लेते हुए सन 1981 में कांशीराम जी ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की शुरुआत की जिसे आज डीएस4 के नाम से भी जाना जाता है. इसी राह पर चलते हुए उन्होंने सन 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गठन कर दिया . कांशीराम कहते थे कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों की संख्या भारत की जनसंख्या की 85 फ़ीसदी है, लेकिन उनके ऊपर 15 फ़ीसदी सवर्ण जातियाँ सदियों से शासन कर रही हैं. इसलिए वह देश में बहुजन समाज को सत्ता में लाना चाहते थे . उन्हें पता था यह काम काफी मुश्किल है लेकिन असम्भव भी नही है . उनका मानना था कि लोकतंत्र में जिनकी संख्या ज़्यादा होती है उनको शासक होना चाहिए. इसीलिए उन्होंने एक नारा लगाया था 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी.' इसी तरह बहुजन की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने एक और नारा दिया था 'जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा'."

कांशीराम जी ने 1988 में इलाहाबाद से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा था .लेकिन इस उपचुनाव में उनकी हार हुई . किन्तु वह उस समय के कद्दावर नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे मज़बूत प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ़ 68000 से अधिक वोट करने में सफल रहे. राजनीति के माहोल में उन दिनों उन्ही की तरह इटावा से डा राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले और किसानो के नेता मुलायम सिह यादव भी काफी दिनों से संघर्षरत थे . समान विचारों और पिछडो का राजनैतिक वजूद बनाने की इच्छा ने दोनों नेताओ को 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सुनहरा अवसर प्रदान किया . काशीराम जी की बसपा ने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन कर लिया . इस गठजोड़ ने इन दोनों पार्टियों को उत्तर प्रदेश में एक राजनैतिक जीवन प्रदान किया . उत्तर प्रदेश में समाजवादी नेता मुलायम सिह यादव बसपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपनी लोकसभा सीट इटावा से काशीराम को जिता कर पहली बार संसद तक पहुचाया .

काशीराम अपने सहयोगी मायावती को अपना उत्तराधिकारी मानते थे . इसलिए बसपा की कमान भी उन्होंने मायावती को दे दी . मायावती सख्त स्वभाव की मानी जाती है . काशीराम के साथ उनके रिश्तो पर काफी संशय बना रहा . मायावती के स्वभाव के कारण सपा और बसपा का साथ ज्यादा दिनों तक नही चला . फिर जिस मनुवाद के खिलाफ काशीराम आजीवन लड़ाई लड़ते रहे , उन्ही मनुवादी शक्तियों के गोद में  बसपा बैठती रही . कभी दलितों और पिछडो की लड़ाई को अपना आराध्य मानने वाली बसपा मायावती की जिद के कारण मनुवादी कही जाने वाली भाजपा की सरकार ही बनवाती रही . अपनी खुद की पार्टी में काशीराम मूक दर्शक ही बने रहे .

एक बार प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने काशीराम जी से राष्ट्पति बनने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने कहा कि वह राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री बनना पसंद करेंगे. उनका मतलब स्पष्ट था कि राष्ट्रपति बन कर वह चुपचाप नहीं बैठना चाहते है .वह सत्ता का बंटवारा चाहते थे. जिसके लिए वह पंजाबी के गुरुकिल्ली शब्द का इस्तेमाल करते थे, जिसका अर्थ था सत्ता की कुंजी. उनका मानना था कि ताकत पाने के लिए सत्ता पर कब्ज़ा ज़रूरी है. 

साल 2003 में कांशीराम जी गंभीर रूप से बीमार हो गए. उस समय उनकी उत्तराधिकारी मायावती ने उनका ख़्याल रखा हालांकि इस पर काफी विवाद भी हुआ जब उन्होंने कांशीराम के परिवार वालों को उनसे मिलने नहीं दिया. उनके आखिरी दिन काफी बुरे रहे . एक बार जब वह ट्रेन से कही जा रहे थे तभी उनका ब्रेन हैमरेज हो गया. जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उन्हें स्मृतिलोप हो चुका था. वह लोगों को पहचान नही सकते थे. मायावती उन्हें अपने घर ले गईं. जिसका कांशीराम के भाइयों ने काफी विरोध किया और वो एक बड़ी लड़ाई में फंस गए. मायावती उन्हें अपने यहां रखना चाहती थीं और उनके परिवार वाले उन्हें अपने यहां ले जाना चाहते थे. बीमारी से जूझते हुए 9 अक्टूबर 2006 को वह इस संसार से विदा हो गये .

Friday, 22 June 2018

अमरीश पुरी




मोगैम्बो खुश हुआ !!


ये लोकप्रिय संवाद हिंदी फिल्म के किस प्रशंसक ने नही सुना होगा . हमारी हिंदी फिल्मो की यह परम्परा है कि अगर कोई फ़िल्मी संवाद लोकप्रिय होता है तो उसे बोलने वाला कलाकार भी उसके साथ अमर हो जाता है . आज ही के दिन यानि 22 जून 1932 को हिंदी फिल्मो के मशहूर विलेन मोगैम्बो उर्फ़ अमरीश पूरी जी का जन्म हुआ था . कहा जाता है कि अमरीश पुरी, अनुभवी अभिनेता और गायक के.एल सहगल के चचेरे भाई थे.

सिनेमा के परदे पर अमरीश पूरी का अभिनय काफी दमदार रहता था . कई फिल्मो में तो वह फ़िल्मी हीरो पर भी भारी पड़ते नजर आते थे . एक्टिंग के नजरिये से वह काफी मंझे हुए कलाकार थे .






















कहा जाता है कि अमरीश पूरी एक्टिंग से पहले राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ के सदस्य के तौर पर कार्य करते थे किन्तु 30 जनवरी 1948 को राष्ट्र पिता महात्मा गांधी जी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति अमरीश पुरी की निष्ठा लड़खड़ाने लगी, और उन्होंने चुपचाप खुद को संघ की सक्रिय भागीदारी से अलग कर लिया. इस राष्ट्रीय त्रासदी की दिल दहला देने वाली घटना ने न सिर्फ उन्हें स्तब्ध किया था , बल्कि अंदर से तोड़ ही दिया था . जिसके बाद वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ गये और फिल्मो में अमरीश पुरी बतौर विलेन बेहद कामयाब हुए . अपनी अभिनय कला से लोगो का मनोरंजन करते हुए 12 जनवरी 2005 को 72 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो गये .




शेक्सपियर ने कहा था कि यह दुनिया भी एक रंगमंच है जिसमे हर शख्स अपनी -अपनी भूमिका को जी रहा है . अमरीश पूरी के जीवन में भी उनकी जिन्दगी के अनेक रंग नजर आते है . किन्तु जो रंग सबसे अधिक गहरा है , वह यह कि उन्होंने हिंदी फिल्मो में एक कामयाब विलेन बन कर अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ दिए . वास्तव में हिंदी फिल्मो के इस मोगैम्बो ने अपनी अभिनय कला से अपने सभी प्रसंशको को बेहद खुश कर रखा था . उनके जाने के बाद हिंदी फिल्मो में विलेन की भूमिका निभाने वाले तमाम अभिनेता उनके जैसी प्रभावशाली छाप अभी भी नही छोड़ सके है .








Thursday, 7 June 2018

वामपंथ और दछिणपंथ


राजनीति में वृहद और व्यापक रूप से राजनैतिक दलों के मुद्दे तो अक्सर बदलते ही रहते है लेकिन एक बात है जो अपरिवर्तित रहती है , वह है उन दलों की विचारधारा . मुख्य रूप से राजनीति में 2 विचारधाराए है जिनसे विचारों की अनेक शाखाओ का विस्तार होता रहा है . इन 2 विचारधाराओ को हम द्छिणपंथी और वामपंथी के नामो से अक्सर सुनते रहते है . आखिर क्या है ये दक्षिणपंथी और वामपंथी . आइये एक नजर इन दोनों की विषय -वस्तु पर डालते है . 
दक्षिणपंथी

ये राजनीतिक दल मूलतः नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थक होते है, जो बाज़ार को राज्य के नियंत्रण से मुक्त रखने की बात करते हैं, ये निजीकरण के हिमायती बनते हैं किन्तु सामाजिक मुद्दों व धर्म में अनुदारवादी रवैया अपनाते हैं और सदियों से चली आ रही रुढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते है. धार्मिक मसलो में इनके विचार कट्टर होते है . ये संस्कृति के नाम पर राष्ट्रवाद को आगे बढाते हैं. ऐसे दलों का सामाजिक आधार मुख्यतः उच्च व मध्य वर्ग (व्यापारी वर्ग) का एक बड़ा हिस्सा होता है.
वामपंथी 

ये राजनीतिक दल समानता , विकास और समाजवाद पर बल देते है . ये गरीबों, मजदूरों, कृषकों व आम जनता के हितैषी तथा निजीकरण, बड़े उद्योगपतियों के बिलकुल विरोधी होने के साथ नवउदारवादी नीतियों के घोर विरोधी भी होते हैं. ये सामाजिक बदलाव / सुधार तथा आर्थिक लोकतंत्र के प्रति अपनी कड़ी प्रतिबद्धता रखते है. ऐसे राजनीतिक दल चाहते हैं कि बाज़ार का संचालन राज्य स्वयं करे क्योंकि बाज़ार कमज़ोर वर्ग का शोषण करता है, जिसे राज्य द्वारा विशेष नियमो से ही वापस मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है. अत: वामपंथ सकारात्मक समतावाद में विश्वास रखता है. इन दलों का सामाजिक आधार व समर्थन गरीब व वंचित वर्ग ही सामान्यत: करते है.